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यह ऋतुराज का ग्रीष्मकाल-कनक तिवारी की कलम से

भविष्य के आईने में नेहरू की तस्वीर एक प्रखर राजनीतिज्ञ के रूप में भले न उभरे, कलम के धनी के रूप में वह सदियों याद किये जायेंगे।

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Kanak Tiwari on Pt.Jawahar Lal Nehru: Image Credit:Facebook
Positive India: By Kanak Tiwari:

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1. नेहरू ने देश की कर्णधार संस्था कांग्रेस के केन्द्रीय नेता और प्रधान सेनापति के रूप में पार्टी संविधान और देश पर बेमिसाल बौद्धिक छाप छोड़ी है। पहले आम चुनाव के बाद आर्थिक आयोजना के मुख्य सूत्रधार के रूप में जवाहरलाल ने इस्पात और बिजली जैसे उद्योगों की ओर वैज्ञानिक वृत्ति के साथ ध्यान दिया। तब बहुत से अफ्रो-एशियाई मुल्क अपनी स्वाधीनता के बाद देशज परंपराओं को पुनर्जीवित करने में मशगूल थे। संविधान सभा में डा0 राजेन्द्र प्रसाद को अध्यक्ष निर्वाचित करने के बाद जवाहरलाल नेहरू के हाथों 13 दिसम्बर 1946 को संविधान की उद्देशिका का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया। उद्देशिका-भाषण उतना ही महत्वपूर्ण था जितना 14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि को लोकसभा में दिया गया स्वतंत्रता संदेश। नेहरू के अनुसार संविधान सभा का यह प्रस्ताव एक ऐसी घोषणा, प्रतिबद्धता और दृढ़निश्चयता से सन गया था जिसे भारत के भविष्य की तस्वीर गढ़नी थी। यह केवल देश नहीं बल्कि दुनिया को भी गढ़ने का सपना था। नेहरू के वक्तव्य के बाद संविधान सभा में गरिमा, उदात्तता और अनोखेपन की एक लहर सी दौड़ गई। देशभक्ति और राष्ट्र निर्माण की नेहरू की अपील का पहला और प्रत्यक्ष असर यह हुआ कि समिति के सदस्य एक स्वर से मजबूत केन्द्र के पक्ष में हो गये। राज्य-केन्द्र संबंध का समीकरण मुख्यतः उनके भाषण से प्रेरणा लेकर ही लिखा गया। मजबूत केन्द्र की अवधारणा का एक और कारण भारत-पाक विभाजन का दुर्भाग्य भी था। संविधान सभा के सदस्यों ने भारत की अखंडता को लेकर असफल रहने के कारण भारत की एकता और अखंडता के प्रति सचेष्ट होकर निर्णय लिए। नेहरू ने संविधान सभा के उद्देश्य-प्रस्तावों की घोषणा में कहा कि संविधान का उद्देश्य एक सार्वभौम गणतंत्र की स्थापना करना है। उसमें सभी शक्ति और अधिकार भारतीय जनता से प्राप्त किए गये हैं।
2. जवाहरलाल नेहरू संविधान सभा में स्वप्नदर्शी थे, ठीक यूनानी दार्शनिक प्लेटो की अनुकृति में। उद्देशिका संबंधी मूल प्रस्ताव नेहरू ने अपनी नायाब भाषण शैली और मोहक अदाओं के साथ रखा था। उनका भाषण लगभग स्वगत में बोला गया कथन था जो शिलालेख की तरह संविधान सभा के यादघर की डायरी में दर्ज़ है। 1937 की अंतरिम सरकार के चुनावों के बाद भाव विह्वल होकर नेहरू ने भारत के मेहनतकश किसानों और मजदूरों के सपनों का हिन्दुस्तान बनाने का रोमान्टिक आह्वान किया था । वह सपना उनमें पकता, खदबदाता रहा। संविधान में निहित दर्शन के लिए नेहरू के ऐतिहासिक उद्देश्य-संकल्प की ओर दृष्टिपात करना होगा। उसे संविधान सभा ने 22 जनवरी 1947 को अंगीकार किया था। उससे आगे के सभी चरणों में संविधान को रूप देने में प्रेरणा मिली है। नेहरू के शब्दों में उपर्युक्त विचार-दर्शन’संकल्प से कुछ अधिक है। यह एक घोषणा है, एक दृढ़ निश्चय है, एक प्रतिज्ञा है, एक वचन है और हम सभी के लिए यह एक समर्पण है।’
3. नेहरू ने संविधान सभा के भाषा सम्बन्धी मुंशी-आयंगर प्रस्ताव को भाषा-क्रांति की शुरुआत करार दिया। भारतीयों को भारत के अतीत से किसी भी कीमत पर असम्पृक्त नहीं किया जा सकता। नेहरू का यह आग्रह उनके जबर्दस्त इतिहास-बोध के कारण था। भारत अपने अतीत में पूरी दुनिया की संस्कृति से अलग थलग पड़ गया था। भारत में ब्रिटिश हुकूमत का झंडा श्रेष्ठतर समकालीन संस्कृति के झंडाबरदारों ने गाड़ा, भले ही आत्मा की श्रेष्ठता के गायन में हिन्दुस्तान सदैव अद्वितीय रहा है। यदि हम युगधर्म के अनुरूप नहीं चलेंगे तो अपने युग के साथ कदम नहीं मिला सकेंगे। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति के अतिरिक्त एक संस्कृति ऐसी होती है जो परम तथा सनातन होती है और उसके कुछ परम आदर्श होते हैं जिनका अनुसरण करना आवश्यक होता है। एक संस्कृति परिवर्तनशील होती है जिसका सामाजिक महत्व के अतिरिक्त अन्य कोई महत्व नहीं होता। उसका किसी विशेष काल, किसी पीढ़ी अथवा युग के लिये महत्व होता है। जवाहरलाल नेहरू ने भाषा नीति को लेकर संविधान सभा में महत्वपूर्ण बातें कही थीं और देश को आश्वासन भी दिए। उन्होंने सदन को याद दिलाया कि गांधीजी का ’हिन्दुस्तानी’ से आशय कोई तकनीकी या संकीर्ण अर्थ में नहीं था। वह उस भाषा से था जो देश के लोगों और साथ साथ उत्तर भारत के कई समूहों की भाषा थी। गांधी जी को ’हिन्दी’ शब्द से कोई विरोध नहीं था। ’वे हिन्दी को एक समावेशी भाषा बनाना चाहते थे जिसमें हिन्दुस्तान की सभी भाषाओं के भाषातत्व शामिल हो जाएं।
4. ‘आत्मकथा‘ में कुछ चरित नायकों पर भी प्रकाश डाला गया है। इनमें से दो चरित्रों का वर्णन विशेष उल्लेखनीय है। किसकी लेखनी में इतना दम है कि गांधी के सम्बन्ध में नेहरू से अधिक प्रामाणिक हो सके। ‘यह बात बिलकुल साफ थी कि कृषकाय होने पर भी उनमें चट्टानी दृढ़ता थी जिसने भौतिक शक्तियों के सामने घुटने टेकने से साफ इन्कार कर दिया था। चाहे वे कितनी ही मजबूत और ताकतवर क्यों न हों? साधारण सा हुलिया और लंगोटधारी खुली देह होने पर भी उनमें कोई शाही रुतबा और सल्तनती अमलदारी थी जिसने स्वेच्छा से सबको विनयी बनने पर मजबूर कर दिया था।‘ पिता मोतीलाल नेहरू का यह चित्र कितनी निश्छल और प्रवाहमान भाषा में उन्होंने खींचा है-‘चौड़ा ललाट, भिंचे हुए होंठ और दृढ़निश्चयात्मक ठुुड्डी की मुखाकृति वाले मेरे पिताजी इटली की म्यूजियम में रखे रोमन बादशाहों से दीखते थे।……….मैं समझता हूं मैं उनके सम्बन्ध में पक्षपात कर रहा हूं, लेकिन आज की इस कमजोर और ओछी दुनिया में मैं उस पवित्र उपस्थिति से वंचित हूं। चारों ओर मुझे कोई दिखाई नहीं पड़ता जो उन जैसा शानदार और भव्य हो।‘
5. बैंसिल मैथ्यूस ने (जिन्हें जवाहरलाल नेहरू ने अपनी ‘विश्व इतिहास की झलक‘ समर्पित की थी) ठीक ही कहा था कि भविष्य के आईने में नेहरू की तस्वीर एक प्रखर राजनीतिज्ञ के रूप में भले न उभरे, कलम के धनी के रूप में वह सदियों याद किये जायेंगे। विश्वविख्यात पत्रकार जाॅन गुन्थर के अनुसार इस सदी में नेहरू की टक्कर के लेखक इने-गिने ही हुए हैं। वस्तुतः जवाहरलाल ऐसे राजनीतिज्ञ नहीं थे, जो अवकाश के क्षणों में मनोरंजन के लिए साहित्य-सृजन का ढोंग रचते थे। साहित्य बल्कि इतिहास के लिए यह विशेष दुर्भाग्य का विषय है कि राजनीति ने एक मौलिक प्रबुद्ध चिन्तक और असाधारण लेखक उससे छीन लिया था। अपनी ‘आत्मकथा‘ में उन्होंने अपना मानसिक अन्तद्वन्द्व, हृदय की वेदना, महत्वाकांक्षाएं और असफलताएं कलाकार की नैतिक ईमानदारी के साथ अभिव्यक्त की हैं। एक महान् मानववादी इतिहासकार के रूप में ‘विश्व इतिहास की झलक‘ में उन्होंने सम्पूर्ण विश्व वांड.मय का संतुलित सर्वक्षण प्रस्तुत किया है। ‘भारत की खोज‘ में उन्होंने भारत के अतीत की महानता के गीत गाए हैं।
6. ‘विश्व इतिहास की झलक‘ में नेहरू ने विनम्रतापूर्वक लिखा है ‘मैं इतिहासकार होने का दावा नहीं करता। मेरे ये समस्त पत्र असंख्य गलतियों से भरे पड़े हैं।‘ वस्तुस्थिति ठीक इसके विपरीत है। आलोचकों के अनुसार इसके तथ्य अधिक प्रामाणिक और भाषा अधिक जीवन्त है। नेहरू को इतिहास से असीम प्यार था। उनका वर्णन पेशेवर इतिहासकारों की तरह केवल मृत घटनाओं और स्थलों का उल्लेख मात्र नहीं है। आंकड़ों, तथ्यों एवं घटनाओं से लैस होने की अपेक्षा उन्होंने इतिहास में जीवन की सांस फूंकी है। अपनी कृतियों में उन्होंने काव्यात्मक तथ्य संप्रेषित किए हैं। जवाहरलाल ने पहली बार इतिहास और कविता की परम्परागत शत्रुता का लबादा उतारकर उन्हें पूरक सिद्धांतों के रूप में पेश किया। उनके अनुसार इतिहास और कविता जीवन के अंश पहले हैं, सामाजिक विज्ञान तथा कला बाद में। यह एक मौलिक साहसिक प्रयोग है। ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें इतिहास और रोमान्स का यह गठबंधन मुग्ध नहीं करता। ये इतिहास को सैनिक तथा कूटनीतिज्ञ इतिवृत्त समझते हैं। वे यह नहीं समझते कि रीति-रिवाजों और नैतिक मान्यताओं का इतिहास, जो प्रत्येक नई पीढ़ी के साथ बदलता है, संधिविग्रहों के इतिहास से कहीं ज्यादा दिलचस्प है।
7. जन-मान्यता ने जवाहरलाल नेहरू को ‘महानतम राजनीतिज्ञ‘, ‘शांतिदूत‘, ‘युग-मानव‘ जैसी संज्ञाएं अवश्य दी हैं। उनके अधिक उदात्त, भावुक और सौन्दर्य प्रिय साहित्यिक पक्ष पर अब तक यथेष्ट प्रकाश नहीं पड़ा है। उनकी मृत्यु के बाद ही उनके लेखक का रूप उभरकर सामने आया। ‘नेहरू अभिनंदन ग्रंथ‘ में टाम विंट्रिगम ने सही बात लिखी है-‘‘भारत की अगली पीढ़ियां अंग्रेज़ी पढ़ने में इस बात पर जिद करेंगी कि वह उन्हें मेकाले या गिबन की अपेक्षा ‘विश्व इतिहास की झलक‘ से पढ़ाई जाये। इससे वे अधिक प्रामाणिक इतिहास तथा अच्छी भाषा सीख सकेंगे।‘ नेहरू इस सदी के महानतम लेखकों में एक थे। आधुनिक इतिहास में मानव मात्र के सहृदय आलोचक उन जैसे और कितने हुए हैं? अपनी शारीरिक सीमाओं से सर्वथा उन्मुक्त वे विराट मानवीय चेतना के प्रतिनिधि अंश थे। असाधारण संतुलित उनकी लेखनी में ऐतिहासिक पकड़ थी। व्यक्तिगत स्तर पर झेले गए अनुभवों को युगानुभूत सत्य बना देने की उनकी अद्भुत क्षमता ही उनके साहित्य सृजन का रहस्य है। उनकी कृतियां उनके राजनीतिक जीवन दर्शन का आईना होने के अतिरिक्त उन महान आदर्शों की वसीयत हैं जिन्हें वे भारत की नई पीढ़ी के नाम कर गए हैं। अपने रचयिताओं की तरह ये दोनों कृतियां भी राष्ट्रीय रंगमंच पर एक दूसरे की पूरक सिद्ध हुईं। गांधी के अतिरिक्त जवाहरलाल की यह अद्भुत काव्य-सृष्टि शिल्प और शक्ति में रूसो, गिबन, सेंट आगस्टाइन, जान स्टुअर्ट मिल और फ्रैंकलिन की आत्मकथाओं से टक्कर लेती है। ‘आत्मकथा‘ का पहला वाक्य है-‘‘एक समृद्ध मां बाप से उसके बेटे का बिगड़ना लगभग तय ही होता है, खासतौर पर हिन्दुस्तान में और भी ज्यादा। यदि वह बेटा ग्यारह वर्षों तक मां बाप की इकलौती संतान हो, तब बिगड़ने से उसका बचना लगभग नामुमकिन ही है।‘ इस तरह उत्सुकता, आशंका और अपेक्षाएं लिए पाठक ‘आत्मकथा‘ हाथ में लेता है। श्रीमती चांग काई शेक के अनुसार उसे बिना पूरा पढ़े बिस्तर में पड़े रहने पर मजबूर हो जाता है।‘‘
8. ‘पुत्री के नाम पिता का पत्र‘ तथा ‘विश्व इतिहास की झलक‘ सीधी-सादी प्रवाहमान निश्छल भाषा में जीवन के विभिन्न पक्षों का चित्रण उपस्थित करते हैं। नेहरू की व्यापक मानवीय सहानुभूति तथा मानवतावादी दृष्टिकोण ही इनकी विशेषता है। नेहरू का विशद् अध्ययन प्राचीन ग्रीक वैभव की कहानी कहता है। उसमें बीसवीं सदी के भारत का संघर्ष मुखर हो उठता है। उनका स्वर निराश बुद्धिजीवी का नहीं है। मर्मान्तक पीड़ा से व्यथित होकर भी यह महान् सेनानी प्रचण्ड आत्मविश्वास के स्वर में बोल उठता है-‘इस बीसवीं सदी में शांति नहीं है। सारा संसार कड़ी मेहनत कर रहा है और दुनिया को शांति तथा युद्ध की काली छाया ओढ़े हुए है। यदि हम इस नियति से बच नहीं पाये, तो उसका सामना कैसे करेंगे? क्या हम घोंघों की तरह अपना मुंह छिपा लेंगे या हमें इस नये इतिहास का निर्माण करने में महत्वपूर्ण हिस्सा लेंगे? क्या हम खतरों और संकटों का मुकाबला कर सकेंगे, और यह महसूस करेंगे कि हमारे कदम इतिहास का निर्माण कर रहे हैं?‘ विश्व का इतिहास एक ही ग्रंथ में लिखना दुष्कर कार्य है। फिर भी जवाहरलाल ने विषय वस्तु के साथ यथेष्ट न्याय किया। मूल कारण यह था कि सम्बद्ध युग की आत्मा को पहचानने एवं अभिव्यक्त करने में जवाहरलाल ने ग्रंथागारों एवं दंतकथाओं की अपेक्षा कविता, साहित्य, ललित कलाओं, धर्मगृहों तथा यात्रा विवरणों का अधिक सहारा लिया है। ‘विश्व इतिहास की झलक‘ उन्हें अप्रतिम इतिहासकारों के समकक्ष प्रतिष्ठित करती है। उनमें अपूर्णता का आभास नहीं होता।
9. 1942 में ‘भारत छोड़ो‘ आंदोलन के अन्तर्गत जवाहरलाल नेहरू नौवीं बार गिरफ्तार कर आगाखां महल में रखे गये। लेखक नेहरू के लिये यह वरदान था। उन्होंने कारावास की अवधि में ही अपनी विख्यात कृति ‘ए डिस्कवरी आॅफ इंडिया‘ लिखी। छः सौ से अधिक पृष्ठों का यह ग्रंथ उन्होंने पांच महीनों (अप्रैल-सितम्बर 1944) से भी कम अवधि में लिखा। भारत के विशाल नक्शे की एक एक रेखा नेहरू ने एक कुशल चित्रकार की तरह आंकी है। इठलाती हुई नदियां, सूखे बेजान मरुस्थल, उछलते हंसी बिखेरते झरने, डरावने, रहस्यमय जंगल, काली, अभेद्य घाटियां, ऊंचे ऊंचे बर्फीले पर्वत, फैले हुए मैदान-सारा भारत एक ही दृष्टि में जैसे सजीव हो उठता है। भूगोल ही नहीं इतिहास की घटनाएं भी एक एक कर स्मृति-पटल पर नाचने लगती हैं। बादशाहों के वैभव तथा ऐश्वर्य की गाथाएं, सत्ता के लिए षड़यंत्र, साम्राज्यों का पतन, कला एवं संगीत के चरमोत्कर्ष के क्षण, महाकाव्यों की महान परम्पराएं, भारत के वक्ष पर प्रस्तुत होने वाली झांकियां आंखों के सामने नाचती हैं। वर्णन की सहजता, अनुभूतिजन्य विवेचना, वातावरण की सजीवता, सांसों की गरमाहट व तकनीकी मानदंड से ‘भारत की खोज‘ नेहरू की सर्वश्रेष्ठ कृति घोषित की जा सकती है। इतना सशक्त वर्णन किया है लेखक ने कि अक्षर बोलने के साथ साथ चित्र खींचते से प्रतीत होते हैं। इस महान् कृति के माध्यम से पाठक इतिहास के बारे में अपने ज्ञान में वृद्धि करने के साथ ही समय की पर्तों की गहराइयों में डूबता चला जाता है। स्वप्निल बोझिलता से उसके अन्तर की आंखें मुंदने लगती हैं। इतिहास का महान् विद्यार्थी नेहरू उंगली पकड़कर वर्तमान और अतीत की दुनिया की नुमाइश में सैर कराता है। पाठक अपनी बौद्धिक उपस्थिति का लबादा उतारकर फेंक देता है। अद्भुत प्रेषणीयता, अतुलनीय वर्णन—शक्ति, अद्वितीय सृजनशीलता से युक्त इस कृति में पाठक को महाकाव्योचित उदात्तता के दर्शन होते हैं।
10. विश्व इतिहास में शायद ही कोई वसीयत नेहरू की गंगा वसीयत से ज्यादा प्राणवान हो। प्राणवान होना स्थायी होना है जबकि वसीयतें मृत्यु के बाद का अफसाना हैं। गंगा-वसीयत शरीर के नष्ट होकर फुंकी हुई राख का जल तर्पण नहीं है। राख स्मृति की मुट्ठी है। वह यादों के आचमन योग्य भी नहीं है। हमारी स्मृतियां तक बोझ नहीं बन जाएं, इससे उनका इतिहास में ठहरा यश वक्त के आयाम में बहता हुआ अहसास बन जाये-यह वसीयतकार जवाहरलाल का इच्छा लेख है। इसलिए गंगा एक पहेली, क्लिष्ट दार्शनिक सवाल, बहता भूचाल सभी कुछ है। उसमें एक साथ थपकियां और थपेड़े, रुद्र गायन और अभिसार, उन्मत्त यौवन और गहरा सन्यास सभी कुछ है। सभ्यता नदी की तरह विकसित होती है, अपने शैशव के कौमार्य से संन्यस्त जीवन के वीतराग होने तक। लेकिन नदी सभ्यता की तरह बनती, बिगड़ती नहीं। वह अनन्त होने पर भी आदिम बनी रहती है। नदी की ऐसी मान्यता नेहरू के लिए अधिमान्यता हुई। गंगा हमारी सबसे बड़ी राष्ट्रीय धरोहर भर नहीं है कि वह हमारी सभ्यता और संस्कृति का थर्मामीटर या बैरोमीटर है। वह निखालिस पारे की तरह है जो किसी भी आकार में रखे या रचे जाने पर भी अपना गुरुत्व, घनत्व और चरित्र नहीं बदलता। गंगा से हम हैं, हमसे गंगा नहीं। जवाहरलाल की वसीयत का प्रतिमान एक राष्ट्रीय पक्षी, पशु या प्रतीक की तरह कोई जलांश नहीं है। वह है हमारी समग्र अस्मिता का लगातार जल-कायिक वाचन। गंगा का चलना भारत का चलना है। भारत के बहुलांश का लेकिन विपथगा हो जाना गंगा हो जाना कतई नहीं है।
11.यह हैरत की बात है कि अशेष क्रांतिकारी नायक भगतसिंह ने मोटे तौर पर कांग्रेस में दो परिचित नेताओं गांधी और लाला लाजपत राय की कड़ी आलोचना की। सुभाषचंद्र बोस के प्रति आदर रखने के बावजूद भगतसिंह उन्हें एक भावुक युवक नेता की तरह ही तरजीह देते थे। तत्कालीन राजनीति में उनकी दृष्टि में जवाहरलाल नेहरू अकेले ऐसे नेता थे जिन पर इस अग्निमय नायक ने पूरी तौर पर भरोसा किया था। नेहरू ने भी लगातार भगतसिंह की क्रांति का गांधी के विरोध के बावजूद समर्थन किया। अपनी आत्मकथा में नेहरू ने साफ लिखा था ‘‘भगतसिंह अपने आंतकवादी कार्य के लिए लोकप्रिय नहीं हुआ बल्कि इसलिए हुआ कि वह उस वक्त, लाला लाजपतराय के सम्मान और उनके माध्यम से राष्ट्र के सम्मान का रक्षक प्रतीत हुआ। वह एक प्रतीक बन गया, आतंकवादी कर्म भुला दिया गया परन्तु उसका प्रतीकात्मक महत्व शेष रह गया और कुछ ही महीनों के अंदर, पंजाब का हर कस्बा और गांव और कुछ हद तक उत्तरी भारत के शेष हिस्से में उसका नाम गूंज उठा। उस पर अनगिनत गाने गाए गए और जो लोकप्रियता उसने पाई, वह चकित करने वाली थी।‘‘ नेहरू ने क्रांतिकारियों की गांधी द्वारा की गई भत्सना को ठीक नहीं माना और कहा कि इन लोगों या उनके कामों की भत्सना करना न्यायोचित नहीं है, बिना उन कारणों को जाने जो इसके पीछे हैं। लाहौर में दिसम्बर 1928 में सांडर्स की हत्या के तुरंत बाद नेहरू ने नौजवान भारत सभा को आश्वासन दिया ‘‘भारत में अनेकों आपके लिए हमदर्दी रखते हैं और हर संभव सहायता देने के लिए तैयार हैं। मुझे उम्मीद है कि सभा संगठन के रूप में और मजबूत होगी और भारत के एक राष्ट्र के रूप में निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाएगी।‘‘ (सर्च लाइट 11 जनवरी, 1929)। नेहरू और सुभाष बोस के अलावा कई और प्रमुख कांग्रेसी थे जो क्रांतिकारियों के साथ हमदर्दी रखते हुए उन्हें आर्थिक सहायता भी दिया करते थे।
12.भगतसिंह और साथियों की गिरफ्तारी के बाद जेल में उन पर असाधारण जुल्म किए गए। जवाहरलाल नेहरू भूख हड़ताल पर बैठे कैदियों से मिलने गए और जेल में उनकी तकलीफों को देखा। वे व्यक्तिगत तौर पर सभी से मिले और उनके बुरे हालात पर बहुत संजीदा होकर बोले। वे उनकी स्वार्थरहित बलिदानी इच्छाशक्ति से पूरी तरह सहमत हुए और कहा ‘‘मुझे इनसे पता चला है कि वे अपने इरादे पर कायम रहेंगे, चाहे उन पर कुछ भी गुज़र जाए। यह सच है कि उन्हें अपनी कोई परवाह नहीं थी।‘‘ नेहरू ने पदलोलुप कांग्रेसियों को नहीं बख्शा जो क्रांतिकारियों की आलोचना उनके बलिदान की भावना को समझे बिना करने लगते थे। ट्रिब्यून की 11 अगस्त 1929 की एक रिपोर्ट के अनुसार नेहरू ने कहा था ‘‘हमें इस संघर्ष के महान महत्व को समझना चाहिए जो ये बहादुर नौजवान जेल के अंदर चला रहे हैं। वे इसलिए संघर्ष में नहीं हैं कि उन्हें अपने बलिदान के बदले लोगों से कोई पुरस्कार लेना है या भीड़ से वाह-वाही लूटनी है। इसके विपरीत आप संगठन में और स्वागत-समिति में पद के लिए कांग्रेस में दुर्भाग्यपूर्ण खींचातानी को देखें। मुझे कांग्रेसियों के बीच आंतरिक मतभेदों के बारे में सुनकर शर्म आती है। परन्तु मेरा दिल उतना ही खुश भी होता है जब मैं इन नौजवानों के बलिदानों को देखता हूं जो देश की खातिर मर-मिटने के लिए दृढ़ संकल्प हैं।‘‘
13.असेम्बली बम कांड में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के बयान को नेहरू ने कांग्रेस बुलेटिन में प्रकाशित कर दिया। इसके लिए महात्मा गांधी ने उन्हें फटकार लगाई। नेहरू ने संकोच के साथ गांधी को लिखा ‘‘मुझे खेद है कि आपको मेरा भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के बयान को कांग्रेस बुलेटिन में देना सही नहीं लगा। यह बयान इसलिए छापना पड़ा क्योंकि कांग्रेसी हलकों में प्रायः इस कार्यवाही की सराहना हुई।‘‘ कांग्रेस के अध्यक्ष चुने जाने पर नेहरू की सदारत में 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस बड़ी धूमधाम से मनाया गया। प्रदर्शनकारियों ने तिरंगे के साथ साथ लाल झंडे को फहराने का प्रयास किया। कई कांग्रेसियों के विरोध के बावजूद नेहरू ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा ‘‘हमारे राष्ट्रीय तिरंगे झंडे और मज़दूरों के लाल झंडे के बीच न कोई दुश्मनी है और न होनी चाहिए। मैं लाल झंडे का सम्मान करता हूं और उसे इज्ज़त बख्शता हूं क्योंकि यह मज़दूरों के खून और दुःखों का प्रतीक है।‘‘ जवाहरलाल नेहरू भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी से पहले इसलिए खामोश रहे कि कहीं गांधी नाराज़ न हो जाएं। फांसी के एकदम बाद उन्होंने अपनी खामोशी की दलील देते हुए एक वक्तव्य दिया। ‘‘मैं खामोश रहा हालांकि मैं फटने की कगार पर था, और अब, सब कुछ खत्म हो गया‘‘ (दी बाॅम्बे क्रानिकल, 25 मार्च, 1931)। एक अन्य संदर्भ में उन्होंने माना ‘‘मुझे हालात के मद्देनज़र ऐसे काम करने पड़े जिनके साथ मैं सहमत नहीं था।‘‘ उन्होंने आगे कहा, ‘‘हम सब मिलकर भी उसे नहीं बचा सके जो हमें इतना प्यारा था और जिसका ज्वलंत उत्साह और बलिदान देश के नौजवानों के लिए प्रेरणा के स्त्रोत थे। आज भारत अपने प्यारे सपूतों को फांसी से नहीं बचा सका।‘‘ (दी बांबे क्राॅनिकल, 25 मार्च, 1931।)
14.नेहरू-पटेल युति के राजनीतिक किस्सों का इतिहास में संग्रहालय है। इन दो शीर्ष राजनेताओं ने कई मुद्दों पर संयुक्त होकर गांधी के नेतृत्व को भी चुनौती दी थी-मसलन भारत विभाजन के मसले को लेकर। कई बार संगठन में बहुमत होने पर भी गांधी और पटेल ने नेहरू को तरजीह दी। सरदार पटेल की क्षमता के बावजूद गांधी ने नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। पटेल ने कोई प्रत्यक्ष विरोध नहीं किया। इतिहास इस तरह यथार्थ की इबारतों पर रचता चला जाता है। नरेन्द्र मोदी जैसे बहुत से हिन्दू राष्ट्रवादी नेताओं ने नेहरू पर निशाना साधने के लिए सरदार पटेल के कंधे का इस्तेमाल किया है। ऐसा करने में उन वैज्ञानिक अवधारणाओं और परिस्थितिजन्य कारणों की हेठी की जाती है-जो भविष्य का दिशा निर्धारण करते हैं। यदि विवेकानन्द और गांधी आपसी विमर्श कर पाते। यदि गांधी ने सुभाष बोस को पूरा समर्थन दिया होता। यदि नेहरू और सुभाष के कारण गांधी-भगतसिंह बौद्धिक साक्षात्कार हुआ होता। यदि सुभाष बोस और भगतसिंह को गांधी के बराबर उम्र मिली होती। यदि ज़िन्ना ने जिद नहीं की होती। यदि सरदार पटेल का जन्म कोई दस वर्ष बाद हुआ होता। ऐसी सब अफलातूनी परिकल्पनाएं ऐसे भारत को रच सकती हैं जो कल्पना लोक का संसार तो होगा, लेकिन उसे इतिहास में घटित तो नहीं होना था। सरदार पटेल भी दक्षिणपंथी तत्वों के वोट बैंक बनाए जा रहे हैं। उससे यही आमफहम देसी कहावत सिद्ध होती है ‘ज़िंदा हाथी लाख का। मरे तो सवा लाख का।‘
15.बेचारा इतिहास पुरानी ज़िल्दों में ही अंततः बंध जाता है। इन ज़िल्दों को खोलकर पढ़ने में दिक्कत भी होती है। यह गृह मंत्री सरदार पटेल थे जिन्होंने गांधी हत्या के पहले और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पहचानने के बावजूद नरमी और सुधार का रुख अपनाया था। उनके सामने ही संघ ने शपथपत्र दिया था कि वह एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में कार्य करता है और करता रहेगा। उसका राजनीति से कोई लेना देना नहीं होगा। सरदार पटेल महान थे। स्वतंत्र भारत को बनाने में उनकी प्रधानमंत्री नेहरू के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सहयोगी भूमिका थी। कुछ मुद्दों को लेकर शीर्ष नेतृत्व में आपसी मतभेद होना स्वस्थ प्रजातांत्रिक लक्षण है। किसी भी बड़े राष्ट्रीय मुद्दे पर पटेल ने नेहरू के नेतृत्व को चुनौती नहीं दी, यद्यपि कई बार अपनी बात मनवाई। 1929-30 में लाहौर कांग्रेस की अध्यक्षी बहुमत का साथ होने पर भी पटेल ने गांधी की सलाह पर नेहरू के लिए छोड़ी। राजेन्द्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनाने के मामले पर पटेल लेकिन अड़ गए थे। सरदार पटेल के जीवन काल में भाजपा के पूर्वज जनसंघ का जन्म नहीं हुआ था। राष्ट्रवादी हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व हिन्दू महासभा और संघ के जिम्मे था। पटेल को इन संगठनों के बारे में मुगालता नहीं था।
16.भारत के विभाजन के चार दिन पहले दिल्ली में सरदार ने कहा था कि सरकारी ओहदे पर बैठे कई मुसलमानों की सहानुभूति मुस्लिम लीग के साथ है। यह भी कि देश को विनाश से बचाने के लिए कांग्रेस ने बहुत मजबूर होकर मुल्क का विभाजन स्वीकार किया है। मुसलमानों की जड़ें हिन्दुस्तान में ही हैं। यहीं उनके धार्मिक और सांस्कृतिक स्थल इतिहास के गर्भगृह हैं। आज़ादी के छह महीने बाद वल्लभभाई ने मेहरौली की सभा में उदास मन से कहा था कि सांप्रदायिक दंगों के कारण वे शर्मसार हैं। हिन्दुओं को चाहिए कि वे मुसलमानों को इस देश में असुरक्षित महसूस नहीं होने दें। साफगोई के प्रवक्ता सरदार ने गांधी की हत्या के पहले कलकत्ता की जनसभा में माना था कि देश में हिन्दू राज्य कभी स्थापित नहीं होगा, लेकिन इस देश के साढ़े चार करोड़ मुसलमानों में से कई पाकिस्तान के निर्माण के समर्थक रहे हैं। यह कैसे भरोसा किया जाए कि उनकी धारणा रातों रात बदल गई होगी। मुसलमान कहते हैं कि वे भारत के प्रति वफादार हैं। इसे कहने की क्या ज़रूरत है। उन्हें खुद अपनी आत्मा में झांकना चाहिए। सरदार इस तरह की निष्कपट टिप्पणियां करते थे। उनके साम्प्रदायिक व्याख्याकार उसे मौज़ूदा हिन्दुस्तान के हालात में अंतरित करते हैं। उन्होंने गांधी की हत्या के एक पखवाड़े पहले मुंबई में दो विरोधाभासी लगती लेकिन एक जैसी बातें देशभक्ति के तरन्नुम में डूबकर कही थीं। उन्होंने कहा कि यहां कुछ लोग मुस्लिम विरोधी नारे लगा रहे हैं। ऐसे वहशी इरादों वाले क्रोधियों से तो पागल ज़्यादा अच्छे हैं जिनका इलाज तो किया जा सकता है। फिर उन्होंने मुसलमानों को भी झिड़का और कहा कि वे मुसलमानों के दोस्त हैं। मुसलमान यदि उन्हें वैसा नहीं आंकते तो वे भी पागल आदमियों की तरह हैं क्योंकि उनमें सही और गलत को समझने का विवेक नहीं है। सबसे मुश्किल और महत्व का काम वल्लभभाई के लिए हैदराबाद में प्रतीक्षा कर रहा था। देसी रियासतों के विलीनीकरण के कर्ताधर्ता ने आज़ादी के दो बरस बाद हैदराबाद की जनसभाओं में हिन्दू-मुस्लिम एकता की पुरज़ोर समझाइश दी। अलबत्ता यह ज़रूर कहा कि मुसलमानों को भी अपना हृदय परिवर्तन करना चाहिए। उन्हें पाकिस्तान और कश्मीरी मुसलमानों को भी हिंसा से विरत होने की समझाइश देनी चाहिए। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में हिन्दू और मुसलमान के संवैधानिक अधिकारों में कोई फर्क नहीं है।
17.सरदार पटेल और नेहरू के कथित मतभेदों को अफवाहों की तरह उछालकर तरह तरह की राजनीतिक रोटियां सेंकी जाती रही हैं। यह बदस्तूर जारी है। अपने पचहत्तरवें जन्मदिन के अभिनन्दन समारोह को संबोधित करते हुए सरदार ने स्वीकार किया था कि उनके पास करने के लिए बहुत अधिक जीवन शेष नहीं है। उन्होंने यह स्वीकारोक्ति भी की कि जवाहरलाल नेहरू ही देश के नेता हैं और सरदार के पास नेहरू का हाथ मजबूत करने की सीमित भूमिका है। नेहरू पूरी दुनिया में भारत के गौरव की वृद्धि कर रहे हैं। गांधी जी के बाद नेहरू के नेतृत्व की ही अंतर्राष्ट्रीयता है। उनकी वजह से भारत का सम्मान बढ़ा है। जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिवस पर 14 नवम्बर 1949 को पटेल ने भावुक होकर कहा था कि उन दोनों के संयुक्त नेतृत्व के प्रति देश ने जो विश्वास व्यक्त किया है, उससे वे अभिभूत हैं। इस विश्वास के कारण ही दोनों नेता मिलकर अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन कर पा रहे हैं। लोगों का जितना जितना सहयोग और विश्वास मिलेगा-उनको दिया गया नेतृत्व का भार उतना उतना कम महसूस होगा।
18.नेहरू-पटेल युति के राजनीतिक किस्सों का इतिहास में संग्रहालय है। इन दो शीर्ष राजनेताओं ने कई मुद्दों पर संयुक्त होकर गांधी के नेतृत्व को भी चुनौती दी थी-मसलन भारत विभाजन के मसले को लेकर। कई बार संगठन में बहुमत होने पर भी गांधी और पटेल ने नेहरू को तरजीह दी। सरदार पटेल की क्षमता के बावजूद गांधी ने नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। पटेल ने कोई प्रत्यक्ष विरोध नहीं किया। इतिहास इस तरह यथार्थ की इबारतों पर रचा जाता है। नरेन्द्र मोदी जैसे बहुत से हिन्दू राष्ट्रवादी नेताओं ने नेहरू पर निशाना साधने के लिए सरदार पटेल के कंधे का इस्तेमाल किया है। ऐसा करने में उन वैज्ञानिक अवधारणाओं और परिस्थितिजन्य कारणों की हेठी की जाती है-जो भविष्य का दिशा निर्धारण करते हैं। यदि विवेकानन्द और गांधी आपसी विमर्श कर पाते। यदि गांधी ने सुभाष बोस को पूरा समर्थन दिया होता। यदि गांधी-भगतसिंह बौद्धिक साक्षात्कार हुआ होता। यदि सुभाष बोस और भगतसिंह को गांधी के बराबर उम्र मिली होती। यदि ज़िन्ना ने जिद नहीं की होती। यदि सरदार पटेल का जन्म कोई दस वर्ष बाद हुआ होता। ऐसी अफलातूनी परिकल्पनाएं कल्पना लोक में होती हैं। उसे इतिहास में घटित तो नहीं होना था। सरदार पटेल भी दक्षिणपंथी तत्वों के वोट बैंक बनाए जा रहे हैं। उससे यही आमफहम देसी कहावत सिद्ध होती है ‘जिंदा हाथी लाख का। मरे तो सवा लाख का।‘
19.नेहरू जानते थे कि छत्तीसगढ़ के कोई डेढ़ दो करोड़ निवासियों में से पचहत्तर प्रतिशत आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गों के हैं। इनमें से सबसे बड़ा हिस्सा आदिवासियों का है। उनकी एक भीलनी माता जूठे बेर खाने खिलाने के आत्मीय प्रतीक के रूप में नए भारत में भी नई भूमिका का अधिकार मांगती है। भिलाई इस्पात संयंत्र विकास यात्रा में मील का पत्थर बना। रविशंकर शुक्ल की जिद को भी सहसा भुलाया नहीं जा सकता। इस संयंत्र के राजनीतिक निहितार्थ महत्वपूर्ण नहीं हैं। इसके आर्थिक फलितार्थ उपलब्धि, बहस और पुनर्विचार के विषय हैं। बाल्को अल्युमिनियम कारखाना, कोरबा में विद्युत उत्पादन इकाइयां, दल्लीराजहरा और बैलाडिला की लौह अयस्क खदानें, सीमेंट उद्योग और इन पर निर्भर सैकड़ों सहवर्ती उद्योगों के कारण छत्तीसगढ़ में औद्योगिक क्रान्ति की तस्वीर उकेरी गई है।
20.जवाहरलाल ने भिलाई में खड़े होकर भिलाई को नए भारत का तीर्थ कहा था। उन्होंने सामाजिक-धार्मिकता के प्रतिमानों और आयामों को झिंझोड़ दिया था। श्रम, सामूहिकता, सहकारिता और सहयोग राष्ट्रीय स्वावलंबन का आधार बने। इंदिरा गांधी ने राजनीतिक दबावों के कारण सार्वजनिक क्षेत्र की अनिवार्यता को कठोर कानूनी शिकंजों में कसा। आजाद हिन्दुस्तान में इसी कारण एक नए मध्यवर्ग के आत्मविश्वास का दौर शुरू हुआ। उसकी संतानों में जीवन को प्रतिद्वंद्विता के आधार पर भविष्य संवारने के नए रूमान की तरह इस्तेमाल किया गया। राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में छत्तीसगढ़ की तरुण मानव संपदा ने कीर्तिमान रचे। शिक्षा के प्रसार, स्वास्थ्य के प्रति नवचेतना और सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध जेहाद समाजवाद के प्राकृतिक प्रतिफल बनकर मोर्चे पर डटे रहे। आज छत्तीसगढ़ की हालत ऐसी है जैसे सामरिक दृष्टि से बने किसी मजबूत किले को पहले पुरातत्व केन्द्र घोषित किया जाए और फिर उसे धराशायी कर वहां छोटे-छोटे रहवासी फ्लैट्स बना दिए जाएं। किले के रक्षकों को यह आश्वासन जरूर दिया जा रहा है कि उनके फ्लैट्स में इस किले की तस्वीरें लगाने की इजाजत दे दी जाएगी। सार्वजनिक क्षेत्र की मानसिकता में काम करने वाली पीढ़ियां संविधान की गारंटियों और श्रमिक कानूनों से भी बाखबर हैं। इन प्रावधानों को हटाए बिना सार्वजनिक क्षेत्र के इतिहास को मिटाया नहीं जा सकता। जवाहरलाल की उक्ति का व्यंग्य यही है कि छत्तीसगढ़ के नए औद्योगिक तीर्थों में पंडों की भरमार होगी। गंदगी, प्रदूषण, भ्रष्टाचार और शोषण धर्म के साथ रहने से गुरेज नहीं करते।
21.छत्तीसगढ़ के मजदूरों का अरसे से पलायन होता रहा है। पंजाब जैसे इलाके में जाकर पुरुष कर्मियों को अपना जीवन और महिलाओं को अपना शील तक बंधक रखना पड़ता है। यह भगदड़ आंशिक रूप से रुकी थी, जब बड़े सार्वजनिक उद्योगों ने बाहें फैलाकर मजदूरों को सहारा दिया था। इन कारखानों से बड़े पैमाने पर छंटनी की प्रक्रिया शुरू हो गई। छत्तीसगढ़ के दूसरे सबसे बड़े उद्योग चावल मिलों की हालत खस्ता है। अधिकांश मिलें अधिकांश समय बंद रहती हैं। सार्वजनिक क्षेत्र ने छत्तीसगढ़ में महंगाई बढ़ाने के बावजूद किसानों के उत्पाद को अच्छा मूल्य बाजार दिया था। वह सीराजा भी बिखर रहा है। उत्पादन तो हो रहा है, लेकिन विक्रय और विनिमय नहीं। एक नई काॅस्मोपाॅलिटन (सर्वप्रदेशीय) जन संस्कृति समाजवाद के पुत्र सार्वजनिक क्षेत्र के कारखानों की वजह से छत्तीसगढ़ में उगी है। उसने जातिवाद के जहर का डटकर मुकाबला किया है। पूरे भारत में अलग अलग संस्कृति समूहों के परिवार जब खून पसीने और आंसुओं के रिश्ते में जुड़ जाते हैं, तब जीवन की सामाजिकता के नए आयाम उद्घाटित होते हैं। मध्यप्रदेश तो क्या, भारत के अच्छे से अच्छे नगरीय इलाकों को रायपुर, भिलाई जैसे क्षेत्र की बौद्धिकता और खुलेपन से रश्क है। यह मनोवैज्ञानिकता नेहरू की ही तो प्रतिकृति है। निजी क्षेत्र का लोक संस्कृति से क्या लेना देना। साइबर संस्कृति के पुरोधा मनुष्य को ही अतिरिक्तता करार देते हैं। नेहरू के लिए वह एक अनिवार्यता रही है।
22. वैश्वीकरण की आग में नेहरू का सपना जल रहा है। जवाहरलाल ने भारत की आजादी के लिए अपना जीवन जेलों में सड़ा दिया। उसकी नीतियों की हत्या एक पूर्व नौकरशाह ने उसकी पार्टी में शामिल होकर संसद के भरे दरबार में की। तब भी स्वतंत्रता संग्राम सैनिक कुछ नहीं बोले जिन्होंने नेहरू की नीतियां रचने में मदद की थी। नरसिंह राव की अगुवाई में नेहरू नीतियां जिबह की गईं। वे जवाहरलाल के पैरोकार समझे जाते थे। नए आर्थिक उदारवाद का सीधा और विपरीत असर छत्तीसगढ़ पर भी हुआ है। हरियाणा, पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे प्रदेशों में ग्रामोद्योगों और कृषि उद्योगों का जाल बिछा हुआ है। ये प्रदेश पारंपरिक विधाओं की ढाल लेकर नए आर्थिक साम्राज्यवाद से कुछ अर्सा तो लड़ ही पाएंगे। ओडिसा, गुजरात, तमिलनाडु जैसे प्रदेशों में पारंपरिक पोशाकों और वस्त्रों का उद्योग उनकी सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान बन गया है। छत्तीसगढ़ के लिए यह सब कुछ नहीं है। छत्तीसगढ़ के कुटीर उद्योगों के लिए बाजारतंत्र विकसित करने में किस सरकार ने रुचि दिखाई है? बस्तर की कलाकृतियां रईस और नफीस लोगों के दीवानखानों में शोभा पाती होंगी, लेकिन बाजार के अभाव में कला ही दम तोड़ रही है।
23. दरअसल इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर मनुष्य और मशीन के मूल्य युद्ध का नियामक संघर्ष शुरू हो चुका है। समाजवाद भारत की संविधान सभा में घोषित एक रचनात्मक सामाजिक आस्था है। उस आलेख की इबारत नेहरू ने लिखी थी। जवाहरलाल नेहरू, कार्ल मार्क्स, एंजेल्स, लेनिन, हैरोल्ड लास्की, बर्टेण्ड रसेल, महात्मा गांधी, विवेकानंद, पातंजलि, बुद्ध, कौटिल्य आदि सभी के अध्येता थे। वे आज की संसद के सदस्य नहीं थे, जहां सबसे बड़ी योग्यता यह है कि अभी प्रकरण न्यायालय में चल रहा है, लेकिन सजा नहीं होने से सांसद होने की योग्यता लांछित नहीं है। भूगोल, रसायनशास्त्र और वनस्पतिशास्त्र की तिकड़ी के स्नातक बैरिस्टर जवाहरलाल मूलतः इतिहासकार बल्कि इतिहास निर्माता थे। इतिहास में उनका स्वप्न आज खंडित हो रहा है।

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24. तपेदिक से तपती बीवी को स्विटजरलैंड के अस्पताल में छोड़कर जेलों में अपनी जवानी सड़ा दी। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान खंदकों में बैठकर उन्होंने हेरल्ड लास्की के फेबियन समाजवाद के पाठ पढ़े। बेटी को पिता के पत्र के नाम से चिट्ठियों की श्रंखला लिखी। उस शिक्षा की इतनी गहरी ताब कि बेटी बिना किसी मदद के सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री बनी और शहीदों की मौत पाई। नेहरू खानदान पर परिवारवाद का आरोप लगाने वाले कहें कि जवाहरलाल ने उत्तराधिकारी जयप्रकाश में ढूंढ़ा था इंदिरा में नहीं। वे तो अटलबिहारी वाजपेयी को भी कांग्रेस में लाने लाने को थे। मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल के दबाव में भिलाई इस्पात संयंत्र लाकर इस प्रदेश को नया औद्योगिक तीर्थ दिया। उनकी किताबों ’विश्व इतिहास की झलक’, ’भारत की खोज’ और ’आत्मकथा’ की राॅयल्टी से नेहरू परिवार का खर्च वर्षो चलता रहा। आज भी संसार में बहुत बिकने वाली वे किताबें चाव से पढ़ी जाती हैं। अपने ही खिलाफ लेख तक छद्म नाम से लिखा कि जवाहरलाल तानाशाह हैं। नेहरू में कवि, दार्शनिक और इतिहास बोध था। उनकी दृष्टि में नदियां, हवाएं और तरंगें बनकर बहती हैं। उनकी गंगा पानी का एकत्र नहीं है जिसकी सफाई के लिए मंत्रालय कुलांचे भरे जा रहे हैं। नेहरू की गंगा समय की बहती नदी है। भारत के सुदूर अतीत से लेकर भविष्य के महासागर तक संस्कारों का सैलाब लिए अनंतकाल तक बहती रहेगी। वसीयत के गंगा चित्रण से बेहतर वसीयत लेखन संसार में नहीं है। उनकी श्रद्वांजलि में संसद में असाधारण बौद्धिक सांसद हीरेन मुखर्जी ने कहा था कि मैं ऐसी वसीयत लिखने वाले लेखक की हर गलती माफ कर सकता हूं। यहां तक कि उनकी खराब सरकार को भी। नेहरू ने प्रधानमंत्री नहीं साहित्य अकादमी के अध्यक्ष की हैसियत से सोवियत रूस के सर्वोच्च नेता खु्रुश्चेव को लिखा था कि वे डाॅक्टर जिवागो उपन्यास के लेखक बोरिस पास्तरनाक को रूसी समाज की कथित बुराइयों को उजागर करने के आरोप में अनावश्यक सजा नहीं दें। आॅल्डस हक्सले जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के बौद्धिक ने लिखा है कि जवाहरलाल का व्यक्तित्व गुलाब की पंखुड़ियों जैसा है। शुरू में लगता था कि चट्टानी राजनीति में गुलाब की ये पंखुड़ियां कुम्हला जाएंगी। लेकिन नहीं नहीं मैं गलत था। गुलाब की पंखुड़ियों ने तो पैर जमाने शुरु कर दिए हैं। नेहरू का स्पर्श पाकर राजनीति सभ्य हो गई है। गुरुदेव टैगोर ने उन्हें भारत का ऋतुराज कहा था। विनोबा के लिए अस्थिर दौर में सबसे बड़े स्थितप्रज्ञ थे।

25. निंदक शेख अब्दुल्ला को नेहरू का अवैध भाई बताते हैं। उनके ब्राह्मण पूर्वजों में मुसलमानों का रक्त अफवाहों के इंजेक्शन डालते रहते हैं। एडविना माउंटबेटन से रागात्मक संबंधों में मांसलता की वीभत्सता की अफवाहों का तंतु बना लिया जाता है। उन्हें काॅमनवेल्थ कायम रखते हुए ऐसे समझौतों के लिए दोषी करार दिया जाता है जिनका किसी को इल्म ही नहीं है। सफेद झूठ सर्वोच्च राजनीतिक स्थिति में हैं कि नेहरू सरदार पटेल की अंत्येष्टि में नहीं गए थे। कांग्रेसी कुनबे से केवल जवाहरलाल हैं जिन पर हमले जारी हैं। निखालिस हिन्दू दिखाई पड़ते गांधी, मदनमोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन, सरदार पटेल, लालबहादुर शास्त्री, राजगोपालाचारी वगैरह की तस्वीरें कांग्रेसियों से ज्यादा संघ परिवार खरीद रहा है। नेहरू के सियासी और खानदानी वंशज पूरी तौर पर गाफिल हैं। जवाहरलाल से बेरुख भी हो जाते हैं। उनके लिए 14 नवंबर बौद्धिक भूकंप की तरह होना था। पुरानी वर्जनाओं को नेहरू के ज्ञानार्जन के कारण दाखिल दफ्तर कर सकता था। कांग्रेस इस आधारण बौद्धिक से घबरा या उकताकर मिडिलफेल जीहुजूरियों के संकुल को ज्ञानकोष बनाए बैठी है। ठूंठ से कोंपल उगाने का जतन हो रहा है। कांग्रेस महान क्रांतिकारी भगतसिंह की इबारत को तो पढे़ । उसने कहा था कि मैं देश के भविष्य के लिए गांधी, लाला लाजपत राय और सुभाष बोस वगैरह सब को खारिज करता हूं। केवल जवाहरलाल वैज्ञानिक मानववाद होने के कारण वे देश का सही नेतृत्व कर सकते हैं। नौजवानों को चाहिए वे नेहरू के पीछे चलकर देश की तकदीर गढ़ें। नेहरू चले गए। भगतसिंह भी। उस वक्त के नौजवान भी। वर्तमान के ऐसे करम हैं कि नेहरू अब भी उदास हैं।
लेखक:कनक तिवारी (साभार-फेसबुक)

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