Positive India:Gajendra Sahu:
यहाँ मैं 90बे के दशक का ज़िक्र कर रहा हूँ । वो दौर ही अलग था , वो वक़्त ही अलग था । जहाँ पैसे से ज़्यादा प्राथमिकता दोस्त , परिवार और रिश्तेदार को दिया जाता था । चाहे बच्चे हो , बड़े हो , बूढ़े हो या फिर महिला .. । सब में घनिष्टता और अपनापन था । वैसे 90 के दशक के बारे में लिखा जाए न, तो एक आर्टिकल क्या , किताब क्या, पूरी की पूरी पुस्तकालय कम पड़ जाएगी । ख़ैर ,उन सभी यादों की चर्चा कभी और करेंगे आज हम इतवार की सुनहरी यादों में खोने वाले है । साथ में आज के संडे और उस दौर के इतवार के बीच की खाई में अंतर को भी समझेंगे।
सुबह के 7 बजे नहीं कि पूरा परिवार टीवी के सामने ऐसे टिक जाता था जैसे गुड़ से मक्खियाँ चिपक जाती है । और शायद ये टिकाऊपन लगभग चार से पाँच घंटे तक की होती थी, ठीक किसी टेस्ट मैच के बैट्स्मन की तरह जो क्रीज़ पर घंटो समय बीता दिया करता है । उस दौर की बात ही कुछ ऐसी ही थी ।
इतवार मतलब छुट्टी का दिन । ज़िंदगी के किताब में सबसे सुनहरे पन्ने बचपन की शरारते और वो मस्तमौला जीवनशैली ही है । उस दशक में टीवी सबसे बड़ा मनोरंजन का साधन था तो जब कोई पसंदीदा फ़िल्म आती थी , होम वर्क पूर्ण नहीं होता था ,क्लास टेस्ट; ये सब चीज़ें हमारे तबियत ख़राब होने का मतवपूर्ण कारण हुआ करती थी । पर उस दौर में माता-पिता थोड़े से सख्त हुआ करते थे । स्कूल न जाने का कोई भी बहाना झट से पकड़ लिया करते थे । तबियत ख़राब का बहाना अक्सर कॉमन बहाना था जिसकी दवाई डॉक्टर के पास नहीं माँ के झाड़ू , चप्पल और बेलन में थी । और दवाई खाकर हम रोज़ स्कूल जाया करते थे , तो ये बहुत बड़ा कारण था कि छः दिन स्कूल में रहने के बाद इतवार हमारे लिए किसी उत्सव से कम नहीं था और हमारे जीवन में इतवार का महत्व ठीक उसी प्रकार था जैसे किसी ग़रीब को बहुत ज़ोरों की भूख लगी हो खाने को पैसे नहीं पर सामने चौक में भंडारे का आयोजन हो रहा हो । उस ग़रीब की ख़ुशी का ठिकाना और हमारे लिए इतवार आना बारबर था ।
छः दिनो के बाद आता था हमारा प्यारा इतवार । और ये इतवार हमारे लिए किसी मंत्री की दिनचर्या जैसे बहुत व्यस्त होता था । सुबह होते ही टीवी के सामने टिक जाते थे । रंगोली , चित्रहार के साथ ग़ानो को गुनगुनाया करते थे । महाभारत , रामायण , कृष्णा जैसे सीरियल में भक्तिमय हो जाया करते थे । भगवान की छवि आज तक किसी ने नहीं देखी, पर जब भी लबों पर श्री राम आता है तो अरुण गोविल और श्री कृष्णा आता है तो स्वप्निल की ही छवि नज़र आती है ।
शक्तिमान के प्रति दीवानगी तो बता पाना ही नामुमकिन है । शक्तिमान देखकर हम उसी की तरह गोल गोल घुमने की कोशिश करते थे । मेरे मामा जी आर्मी में थे , मेरी हर खवाईश उन्होंने पूरी की है । मुझे आज भी याद है उन्होंने मेरे ज़िद करने पर मुझे शक्तिमान वाली ड्रेस लाकर मुझे दिए थे । और मैं दिन भर उस ड्रेस को पहनकर गोल गोल घूमकर शरारते किया करता था । शक्तिमान ख़त्म होते ही खाने के कुछ निवाले खाकर ख़ाली जेब और लाखों अरमान जेब में भरकर साइकल से पूरा नगर घूम लिया करते थे । हमारे धार्मिक खेल क्रिकेट का तो कोई ठिकाना नहीं था , जब मन किया तब खेला करते थे । हर इतवार शाम चार बजे दूरदर्शन पर एक हिंदी मूवी आती थी जिसे हम चाव से देखते थे ।
फ़िल्म ख़त्म होते ही फिर मोहल्ले की गलियों में दौड़ लगा देते थे । रात के अंधेरे में छुपम-छुपाई , परी-पत्थर , पकड़ा-पकड़ी और तरह तरह के खेल । रात १० बजे तक न भूख लगती थी न प्यास बस सारा दिन खेलने में ही निकल जाता था। फिर आती थी हमारी माता जी दवाई के साथ । ये वक़्त हमारे इतवार का आख़री क्षण होता था । बस फिर क्या! माँ के हाथ में झाड़ू देखकर हम सीधे घर की ओर दौड़ पड़ते । खाना खाकर सो जाते । और फिर आता था सोमवार मतलब बुखार का दिन । बुखार की दवाई का ज़िक्र तो पहले ही कर चुका हुँ ।
तो ऐसा था हमारा प्यार इतवार पूरी तरह ख़ुशियों भरा त्योहार का दिन ।
पर अब हम अत्याधुनिक काल में प्रवेश कर चुके है । २१वीं सदी के मॉर्डन लोग बन चुके है । अब इतवार नहीं संडे आता है । वो संडे जिसे हम ठीक से जीं भी नहीं पा रहे है । संडे मतलब छुट्टी का वो दिन जहाँ व्यक्ति छुट्टी में नहीं बल्कि काम में ही व्यस्त होता है । पैसे कमाने की ललक अब जीवन की पहली प्राथमिकता हो गई है । अब दोस्त,परिवार और रिश्तेदार केवल कॉंटैक्ट लिस्ट की मेमरी में है और साल में एक या दो बार साथ में है । अब वो रंगोली, चित्रहार टीवी में कहीं छूट गए है और गाने भावनाओं से निकलकर हमारे मोबाइल में किसी एप में हमारे एक इशारे के इंतज़ार में है ।
भगवान के इतने सीरियल हो गए है कि अब मंदिर का रास्ता भी भूल चुके है । शक्तिमान अब हमारी यादों का हिस्सा मात्र है और वो ड्रेस पता नहीं किस संदूक की आख़री कतार में धूल खा रहा है । फ़िल्म देखने की खवाईश तो पहले थी अब तो सब चीज़ एक क्लिक पर हाज़िर होते हुए भी वो मज़ा नहीं देती जो बचपन के इतवार में इंतज़ार पर देती थी । अब ये छोटे छोटे कॉलोनी वाला नगर नहीं रहा । बल्कि बड़ी बड़ी बिल्डिंग वाला शहर हो चुका, जिसे कार में घूमने में भी आनंद नहीं । छुपम-छुपाई की तरह वो दिन भी कही खो गए है । परी-पत्थर की तरह लाखों अरमान अब पत्थर हो गए है । अब पकड़ा-पकड़ी खेल में नहीं ज़िंदगी में आ चुकी है । अब मशीनी युग में हम मशीन की तरह पैसे कमाने में कार्य कर रहे है । अब सब मिलकर इतवार नहीं मनाते बल्कि सब अपने अपने काम में, मोबाइल में, ज़िंदगी में व्यस्त होकर संडे काटते है ।
कुछ भी कर लो वो दिन और इतवार नहीं लौटने वाले .. बस ये संडे कट जाए यही जीवन का सार हो गया है ।