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यदा यदा हि धर्मस्य

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit:
यह गीता का सबसे प्रसिद्ध, लोकप्रिय और बहुश्रुत श्लोक है, किन्तु गीता में इसकी जो पृष्ठभूमि है और इसे जिस परिप्रेक्ष्य में कहा गया है, उसके बारे में अमूमन आमजन को पता नहीं होता है।

यह चौथे अध्याय ज्ञानयोग के आरम्भ में ही (सातवाँ श्लोक) आता है। तीसरे अध्याय में कर्मयोग का उपदेश देने के बाद श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यह जो योगविद्या मैंने तुझे दी, उसे मैंने पहले विवस्वत् से कहा था, अब इस उत्तम रहस्य को तुझे बतलाता हूँ। अर्जुन संशयी और जिज्ञासु है। वह प्रतिप्रश्न करता है कि विवस्वत् तो बहुत पहले हुए थे, किन्तु आप तो अभी के हैं। फिर आपने विवस्वत् को आदिकाल में यह विद्या कैसे दी?

गीता के जितने भी अनुवाद मिलते हैं, उनमें विवस्वत् को सूर्य लिखा जाता है। किन्तु मूल श्लोक में विवस्वत् शब्द ही प्रयुक्त है- ‘इमं विवस्वते योगं।’ ये एक वैदिक देवता थे, जो सौर्य-देवताओं की श्रेणी में आते हैं। ऋग्वेद में विवस्वत्, आदित्य, पूषन्, सूर्य, अर्यमन् आदि सौर्य-देवता हैं। तो विवस्वत् सूर्य नहीं हैं। विवस्वत् एक व्यक्ति भी हुए, जिन्हें प्रथम यज्ञकर्ता कहा गया है। उनके पुत्र मनु थे, जो वैवस्वत कहलाते हैं।

अर्जुन का यह कहना कि विवस्वत् तो आदिकाल में थे, फिर आपने उन्हें यह गुह्यवि​द्या कैसे दी, इसका प्रमाण है कि गीता की रचना ऋग्वेद से बहुत बाद की है।

कृष्ण अर्जुन को उत्तर देते हैं : ‘बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।’ हे अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता। फिर आगे के श्लोक में कहते हैं : यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ, तथापि अपनी माया से जन्म लेता हूँ।

यह जो जीवन का सनातन-सातत्य है- जिसमें जन्म का दिन पहला दिन नहीं और मृत्यु का दिन अन्तिम दिन नहीं- उसी परिप्रेक्ष्य में ‘यदा यदा हि धर्मस्य’ की बात आती है। इस पृष्ठभूमि को याद रखना आवश्यक है।

यह श्लोक इसलिए लोक​प्रिय है, क्योंकि यह आमजन को सांत्वना देता है। इसका सामान्यतया यह अर्थ लगाया जाता है कि जब-जब धर्म की हानि होगी, तब-तब मैं अवतरित होऊँगा। आमजन सोचते हैं कि जब पाप अपरम्पार हो जायेगा तो भगवान रक्षा करने आएँगे।

किन्तु गीता के परिप्रेक्ष्य में इसकी यह व्याख्या सही नहीं है। वहाँ पर परिप्रेक्ष्य आवागमन का है। अविनाशी और अजन्मे तत्त्व के बार-बार जन्म लेने का है। श्रीकृष्ण यह नहीं कह रहे हैं कि मैं आऊँगा। वो कह रहे हैं मैं तो आता ही रहता हूँ और तुम भी आते रहते हो- ‘बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।’ मेरे-तुम्हारे बहुत जन्म हो चुके। जो विवस्वत् से कहा, फिर अर्जुन से कहा, उसे ही फिर किसी और से कहूँगा।

जब-जब धर्म की हानि होती है- इसे भी समझ लें कि धर्म का अर्थ यहाँ पर कोई सम्प्रदाय या रिलीजन या लोगों का समूह नहीं है, जिसकी रक्षा के लिए श्रीकृष्ण आएँगे। धर्म का अर्थ गीता में सत्य, शील, नीति, आचरण, औचित्य, न्याय आदि से है। तीसरे अध्याय में स्वधर्म की भी बात कही है- ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः’। यह अर्जुन से कहा है, किन्तु सभी के भीतर के अर्जुनों को सम्बोधित है। उन अर्थों में स्वधर्म वंश-परम्परा से नहीं मिलता, उसकी खोज करनी पड़ती है और उसे आचरण में लाना होता है।

धर्म की हानि भी भविष्य में होने वाली कोई परिघटना नहीं, वह तो सदैव ही होती रही है। जब-जब कोई कर्मासक्त होता है, तब-तब धर्म की हानि होती है। जब-जब कोई अनासक्ति को प्राप्त करके स्थितप्रज्ञ होता है, तब-तब धर्म की जय होती है। गीता में वर्णित धर्म सम्प्रदाय-आधारित नहीं है और उसमें किसी ऐसे धर्मयुद्ध की ओर संकेत नहीं है, जिसे एक जाति को किसी दूसरी शत्रु-जाति से लड़ना है। यह तो हम आपके मन में स्थित अगणित कुरुक्षेत्रों के बारे में है।

गीता के मर्म को सूक्ष्मता से समझना बहुत आवश्यक है, बंधु!

साभार:सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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