दिग्विजयदास: टुकड़े टुकड़े याद-कनक तिवारी की कलम से
But for my father I would have been a bastard.
Positive India: By Kanak Tiwari:
इस सुन्दर, भावुक, सम्भावनायुक्त नवयुवक की त्रासदी उसके एकाकी जीवन के कारण थी। उसने कहा था ‘but for my father I would have been a bastard.’ मां के होने पर भी उसे मां का प्यार नहीं मिला। वह उसके मन में पक्षाघात कर गया। पत्नी ऐसी आई कि नहीं आती तो अच्छा था। संस्कारहीन, सिगरेट-शराब की शौकीन, बकौल ज्योतिषी ‘मंगली‘। पति से उदासीन या उदास लेकिन उसके प्रति निष्चेष्ट। राजा-रानी रिश्ते की पारस्परिकता के रिश्तेदार नहीं थे। यह सब जिन्होंने देखा, उन्हें दिग्विजय की तकदीर पर तरस और रानी के करम पर गुस्सा आया। दिग्विजयदास में भी कमियां थीं। माता पिता विहीन एक कच्ची उम्र के रियासत प्रमुख में दुर्गुणों का खजाना भले न हो, उसका भंडार खाली भी तो नहीं रह सकता। लेकिन रानी की नादानी और हठधर्मी ने राजा की कमियों को सहानुभूति योग्य बना दिया।
तरुण दिग्विजयदास में एक जननेता के कंटूर राजशाही के सन्दर्भ के बावजूद उगने लगे थे। उनमें सेवाभावना अपनी वंश परम्परा के साथ साथ अपने एकाकीपन को सर्वसुलभ बनाकर लोगों में डूब जाने की ललक लेकर विद्रोह कर रही थी। वे अपने राजनांदगांव के विकास को अपने जीवन का ध्येय बनाना चाहते थे। वक्त उनके साथ वायदा खिलाफी कर रहा था। उसने उससे मां बाप का संरक्षण छीन लिया था। जीवन साथी को उनकी मर्जी, रुचि और नियति के विरुद्ध उनके अस्तित्व से बांध दिया था। फिर भी नियति ने उसके साथ छल ही किया। उनके असामयिक निधन से एक स्वप्न, युग, वंश, परम्परा, विचार सभी का विनाश हो गया। यह होना नहीं चाहिए था।
दार्जिलिंग में खाना खाते समय दिग्विजय में अपनी धरती का सोंधापन हृदय चीरकर बाहर आ गया। रात का बचा हुआ चावल (भात) पानी में डुबाकर सुबह तक रखा जाने की छत्तीसगढ़ी परम्परा उसको एक तरह की ‘डेलिकेसी‘ बनाती है। उसे प्याज के लच्छों और हरी मिर्च के कतरों के साथ खाने का वर्णन करते करते दिग्विजय के मुँह में पानी आने लगता है। रानी को यह सब संस्कारों में कहाँ मिला है? वे दिग्विजय से सहमत नहीं हैं। लिहाजा डिनर के वक्त दोस्तों के सामने दिग्विजय उनसे तलखी से पेश आते हैं। वे अपनी मातृ परम्पराओं की उपेक्षा या अपमान नहीं सह सकते। रानी कुपित होकर होटल के अपने कमरे में कोपभवन रच लेती हैं। राजा हारता नहीं, रानी को मारता नहीं, लेकिन खुद को रानी पर वारता नहीं।
दिग्विजयदास नाम रखने भर से क्या होता है? हर जगह उसे पराजय ही तो मिली। बाप ने असमय मरकर उसे यतीम कर दिया। मां ने प्रेम का आंचल ही समेट लिया। बीवी आई ही क्यों-क्या उसे बात बात, क्षण क्षण, पगपग पर पराजित करने? दोस्तों, सलाहकारों ने षड़यंत्रकारियों का मुखौटा ओढ़ लिया। प्रेम करने, अभिव्यक्त करने का साहस नहीं। काल तक ने पहले से पराजित आदमी को ही पराजित किया! उसे अपने पूर्वजों पर गौरव, नगर से प्रेम तथा युवी पीढ़ी से बेहद लगाव था। ऐसा अधिकतर राज-पुरुषों का चरित्र नहीं होता। जिनका होता है वे आज भी जन मान्यताओं के स्थायी संवाहक बने हुए हैं। यह कोई महत्वाकांक्षी राजपुरुष की कथा नहीं है। यह तो उसकी त्रासदी की काव्यात्मकता है जो महन्त दिग्विजयदास को किंवदन्तियों के नायक का रुतबा देती है। राजा राजनांदगांव के विकास के लिए प्रतिबद्ध था। वह अक्सर कहा करता था कि वह यहाँ शिक्षा के प्रसार के लिए एक शानदार काॅलेज खोलना चाहता है। उसके लिए वह तमाम राजे रजवाड़ों से झोली फैलाकर भरपूर आर्थिक सहायता जुटा लाने में परहेज भी नहीं करेगा। आज दिग्विजय काॅलेज उसके स्मारक के रूप में बहु प्रचारित भले हो, वह असल में राजनांदगांव में उच्च शिक्षा का रोपा गया बिरवा है जो इक्कीसवीं सदी के वटवृक्ष के रूप में फलेगा फूलेगा।
साभार:कनक तिवारी (फेसबुक)