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वर्ल्ड फोटोग्राफी डे : चित्रकला और छायांकन का वही सम्बंध है, जो रंगमंच और सिनेमा का है!

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit:
चित्रकला और रंगमंच प्राचीन कलाएं हैं। छायांकन और सिनेमा आधुनिक कलाएं हैं। और चित्रकला और रंगमंच के सम्मुख स्वयं को एक कलारूप सिद्ध करने में छायांकन और सिनेमा को लम्बा संघर्ष करना पड़ा है।

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ज़्यादा पुरानी बात नहीं है, आज से पचास साल पहले तक यूरोप में फ़िल्म समीक्षक किसी भी फ़िल्म को निरस्त करते समय इस आशय की टिप्पणी किया करते थे कि “यह फ़िल्म इस बात का सबूत है कि सिनेमा क्यों रंगमंच से हमेशा पीछे रहेगा।” और फ़ोटोग्राफ़ी भी एक कला हो सकती है, इस बात को मनवाने के लिए छायाचित्रकारों ने लम्बा संघर्ष किया है।

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प्लेटो ने कहा था- “कला यथार्थ से दोहरा विचलन है।” कला वही है, जिसमें यथार्थ विरूप होता हो। रंगमंच में मंच पर सचमुच के पेड़ नहीं होते, सचमुच का चंद्रमा नहीं होता, सचमुच के हाथी-घोड़े भी नहीं होते, सभी कुछ शैलीकृत होता है, स्टायलाइज़्ड और मैनिपुलेटिव होता है, किंतु यही तो कला है। चित्रकला में जब विन्सेंट वैनगॉग ऑवेर का गिरजा बनाते हैं तो पत्थर की वह ठोस इमारत जलधार की तरह लहरिल रूप ग्रहण कर लेती है और दोपहर को दिखाई देने वाला सूर्य रात को दिखाई देने वाले चंद्रमा की तरह चित्रित किया जाता है। यह वास्तविकता से विचलन की प्रविधियां हैं।

तब इसका क्या करें कि फ़ोटोग्राफ़ी यथार्थ को जस का तस प्रस्तुत कर देती है? वह ‘आंखन देखी’ का छायांकन है। एक साक्ष्य है, प्रमाण है, वस्तुस्थिति का इतिवृत्त है। ‘कॉट ऑन द कैमेरा’ कहकर किसी भी घटना को सत्यापित किया जाता है। ये ही तस्वीरें जब चलायमान हो जाती हैं तो सिनेमा बन जाती हैं, ‘मोशन पिक्चर्स’, चलचित्र। अगर कला यथार्थ से विचलन है तो भला यथार्थ का प्रतिबिम्ब रचने वाले छायांकन और सिनेमा को कला कैसे माना जा सकता है?

बहुत समय लगा समालोचकों को यह बात समझने में कि किसी छायाचित्र या सिनेमा की रील में दर्ज़ वस्तुसत्य भी अगर कला के मानदंडों को पूर्ण करता है तो वह कलारूप ही है, क्योंकि उस माध्यम में कीलित होते ही वह वास्तविकता से तो विचलन कर ही गया है।

जब बीसवीं सदी शुरू ही हुई थी, फ़ोटोग्राफ़ी अब भी एक नई शै, नया शग़ल और नया शिगूफ़ा था, तब चित्रकला की तुलना में छायांकन को दोयम दर्जे का समझा जाता था। अति तो यह थी कि फ़ोटोग्राफ़्स के रिव्यू वग़ैरह भी तब चित्रकार लोग ही किया करते थे, फिर चाहे उन्हें उसकी तकनीकी समझ भले ना हो। वे चित्रकला के ही मानदंडों पर छायाचित्रों का निर्णय करते थे, जबकि ‘कम्पोज़िशन’ का जो महत्व छायांकन में है, वह चित्रकला में नहीं है। चित्रकार अपने वितान स्वयं रचता है, फ़ोटोग्राफ़र को जो दृश्य पहले ही उपस्थित है, उसमें अपने लिए एक ‘कम्पोज़िशन’ खोजना पड़ती है, और अगर वह सफलतापूर्वक वैसा कर सके, तो जो सामने आती है, वह कलाकृति ही है।

आज आर्ट गैलेरीज़ में तस्वीरों की प्रदर्शनियां लगती हैं और लोग उन्हें निहारते हैं, किंतु किसी को अनुमान भी नहीं है कि छायाचित्रों को कलादीर्घाओं में प्रवेश पाने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ा है।

सिनेमा और थिएटर की ग्रामर अलग-अलग है, इसे अगर आइज़ेंस्ताइन के ‘मोंताज’ ने सबसे पहले बताया था तो इसकी थ्योरी रॉबेर ब्रेसां ने अपनी किताब ‘नोट्स ऑन द सिनेमैटोग्राफ़र’ में दी थी। फ़ोटोग्राफ़ी के लिए ठीक यह काम अल्फ्रेड श्टाइगलाइट्ज़ (1864-1946) ने किया।

कैसे? ‘कैमरा वर्क’ नाम की एक लेजेंडरी मैग्ज़ीन छापकर, जो कि ‘आर्ट ऑफ़ फ़ोटोग्राफ़ी’ पर केंद्रित अपनी तरह का पहला फ़ोटो जर्नल था।

अल्फ्रेड श्टाइगलाइट्ज़ का पूर्वग्रह स्पष्ट था। वे ‘स्टिल फ़ोटोग्राफ़ी’ में महान कलारूपों की सम्भावनाएं देखते थे। ‘फ़ोटोग्रैवियर’ प्रणाली, जिसमें तस्वीरें धोकर डेवलप की जाती थीं, में निहित आर्ट फ़ॉर्म का दोहन करने के लिए वे तत्पर थे। इसी के लिए उन्होंने एक ‘फ़ोटो सेसेशन’ मूवमेंट चलाया। फिर 1903 में ‘कैमरा वर्क’ नामक जर्नल छापना शुरू किया, जिसमें वे उस वक़्त के आला दर्जे के फ़ोटोग्राफ़रों की तस्वीरें छापते थे और फ़ोटोग्राफ़ी की तकनीकी बारीक़ियों पर स्वयं लेख भी लिखते थे।

यह मज़ेदार है, 1903 में ही वॉकर इवान्स का भी जन्म हुआ था। अमेरिकी फ़ोटोग्राफ़ी के इतिहास में श्टाइगलाइट्ज़-इवान्स द्वैत मशहूर है। श्टाइगलाइट्ज़ का आग्रह सेपिया टोन वाले धुंधले, रहस्यमयी और ‘ग्रैनी’ छायाचित्रों पर अधिक था। श्टाइगलाइट्ज़ का न्यूयॉर्क धुंध में डूबा हुआ एक एनिग्मैटिक लैंडस्केप है, उसका अपना एक मूड है, इमेजेस में निहित लिरिसिज़्म है। वहीं इवान्स का ज़ोर स्पष्ट, मोनोक्रोम, वृत्तचित्रात्मक छायांकन पर अधिक था।

आज इतने सालों बाद हम देख सकते हैं कि श्टाइगलाइट्ज़ की अपील में निरंतर इज़ाफ़ा होता चला गया है, क्योंकि उनकी कला में नॉस्टेल्जिया का वह लहज़ा है- व्यतीत का वह भावभीना रूपांकन- जिसके लिए पोस्ट मॉर्डन हाई डेफ़िनेशन दुनिया की आंखें हमेशा तरसती रहती हैं।

‘एमैच्योर फ़ोटोग्राफ़ी’ में एक रोमांस निहित होता है और श्टाइगलाइट्ज़ के फ़ोटोग्राफ़िक पूर्वग्रह से बेहतर इसे आज तक किसी और ने नहीं बताया है।

सूज़ैन सोंटैग ने फ़ोटोग्राफ़ी को यथार्थ को अपदस्‍थ कर देने वाली कला-नीति कहा है, जैफ़ डायर ने ‘एक अनवरत क्षण’ कहकर उन्‍हें अपूर्व आश्‍चर्यदृष्टि से देखा है, ग्‍युंटर ग्रास को कैमरे का लेंस ईश्‍वर की आंख के समकक्ष जान पड़ा, रोलां बार्थ ने तो कह दिया कि छायाचित्रकार मृत्यु के दूत हैं!

अल्फ्रेड श्टाइगलाइट्ज़ आज जीवित होता तो यह देखकर उसे अत्यंत संतोष होता कि फ़ोटोग्राफ़ी पर दुनिया के बड़े-बड़े आर्ट क्रिटिक्स क़लम चला रहे हैं। कि अब उसे सर्वमान्य रूप से एक कलारूप स्वीकार कर लिया गया है, मोबाइल फ़ोन में कैमरा आ जाने से छायांकन का जो जनतांत्रिकीकरण हुआ है, उससे उत्पन्न भौंडे विरूपों के मलबे के बावजूद!

विश्व फ़ोटोग्राफ़ी दिवस पर फ़ोटोग्राफ़ी विषय पर लिखे गए इस लेख में एक बार भी ऑनरी कार्तिएर ब्रेसां का उल्लेख नहीं हो पाया- वह व्यक्ति जिसने मुझे फ़ोटोग्राफ़ी को समझने के लिए प्रेरित करने में केंद्रीय भूमिका निभाई- इसके लिए मैं खेद व्यक्त करता हूं, यह कहते हुए कि “ऑनरी, देखो तुम्हारा नाम इस लेख में आख़िरकार आ ही गया!”

पूरा पढ़ जाने के लिए शुक्रिया। 😊

साभार:सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार है)

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