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दुनिया बहुत बड़ी है, अपने दिमाग़ को खोलो, उसको बेमाप विस्तार दो।

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit:
हिन्दी के एक युवा पाठक और युवा छात्र के रूप में मैंने बहुत पहले ही यह समझ लिया था कि हिन्दी की दुनिया बहुत छोटी है और मुझे इस कूप का मण्डूक नहीं बनना है। मुझे केवल कविता, उपन्यास, कहानी, आत्मकथा नहीं पढ़ना है। संसार में सोचने-विचारने के बहुत सारे विषय हैं। मुझे केवल समाजवाद, साम्प्रदायिकता, स्त्रीवाद, पितृसत्ता, सामाजिक न्याय पर लिखना-पढ़ना-सोचना नहीं है। दुनिया बड़ी है। लेकिन हिन्दी की दुनिया सीमित है। मैंने अपनी युवावस्था में ही बहुत सचेत होकर यह निर्णय ले लिया कि न तो मेरा हिन्दी के साहित्य-समाज से कोई सरोकार रहेगा, न उसका मुझसे। मुझे दुनिया के हर विचार, हर दृष्टि, हर परम्परा को जानना-समझना है।

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मैंने अजीबो-ग़रीब चीज़ें पढ़ी हैं, जिन्हें हिन्दी का पाठक शायद ही कभी पढ़ता है या जिन पर हिन्दी का लेखक शायद ही कभी बात करता है। मैंने संगीतकार मोत्सार्ट की बायोग्राफ़ी पढ़ी (लेखक : पिएरो मेलोग्रानी)। जब आप वह किताब पढ़ते हैं तो आप न केवल वेस्टर्न क्लासिकल संगीत, बल्कि मोनार्की, आर्चबिशप्स की हायरेर्की और सबसे बढ़कर फ्रीमैसन-सोसायटी के बारे में भी जानते हैं, जिन्हें आधुनिक इलुमिनाती का जनक कहा जाता है। मोत्सार्ट फ्रीमैसन थे। मैंने आइज़ैक न्यूटन की बायोग्राफ़ी पढ़ी है (लेखक : पीटर एक्रॉयड)। एक दूसरी ही दुनिया की खिड़की वह किताब आपके लिए खोल देती है,​ जिसमें केवल फिजिक्स ही नहीं है, अल्केमी भी है, माँ और पुत्र के सम्बंधों का सघन मनोविज्ञान भी है, मेटाफिजिक्स है, न्याय-प्रणाली है। मैंने नात्सी जर्मनी का सुदीर्घ इतिहास पढ़ा है (लेखक : विलियम शीरेर)। दुनिया के हर व्यक्ति को वह किताब पढ़नी चाहिए, कोई फिल्म या उपन्यास उससे अधिक रोमांचक नहीं हो सकता। मैंने कार्ल सैगन का कॉसमॉस पढ़ा। सोवियत संघ में प्रकाशित कार्ल मार्क्स की राजनैतिक जीवनी पढ़ी। भोपाल की बेगमों के वृत्तान्त पढ़े (लेखक : शहरयार ख़ान)। यूरोपियन उपन्यासों में भी ऐसे-ऐसे पढ़े, जिन्हें भारत में शायद ही किसी ने पढ़ा होगा। जैसे, इमरे कर्तेष का डोजिएर के., मिलान कुंदेरा का फेस्टिवल ऑफ इनसिग्नीफिकेंस या पैट्रिक मोदयानो का आउट ऑफ़ द डार्क। चे ग्वारा की मोटरसाइकिल डायरीज़ पढ़ी। डिएगो माराडोना की आत्मकथा! नसीरुद्दीन शाह की ऑटोबायो! पालि साहित्य का इतिहास (लेखक : राहुल सांकृत्यायन) पढ़ा। अद्वैत-वेदान्त परम्परा का विवेकचूड़ामणि पढ़ा। उपनिषद् पढ़े।

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हिन्दी के सामान्य लेखक-पाठक को इनमें से बहुतेरों से कोई सरोकार नहीं। एक बार मैं भोपाल में हिन्दी के एक बहुत प्रसिद्ध कवि से बात कर रहा था। भारत की विचार-परम्परा पर चर्चा हो रही थी। बुद्ध, गांधी, आम्बडेकर, कबीर- सबकी बात हुई। जैसे ही मैंने आचार्य शंकर का नाम लिया, कवि का चेहरा विकृत हो गया, मानो बिच्छू ने डंक मार दिया हो। बोले, शंकर? यानी शंकराचार्य? मेरे लिए उनका कोई अस्तित्व नहीं। लेकिन हिन्दी के इतने बड़े कवि के लिए आचार्य शंकर का कोई अस्तित्व क्यों नहीं? अद्वैत-वेदान्त से उसे कोई लेना-देना क्यों नहीं? हिन्दी के लेखक को लगता है कि अद्वैत-वेदान्त यानी हिन्दू धर्म और हिन्दू धर्म यानी नरेन्द्र मोदी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी, साम्प्रदायिकता। यह हिन्दी का हीन बौद्धिक-संसार है!

मुझे इसका हिस्सा नहीं बनना था, इसलिए मेरा अध्ययन भले व्यापक न हो, किन्तु वैविध्यपूर्ण रहा। मेरा लेखन भी उसी दिशा में गया है। मैंने रजनीश पर किताब लिखी, जिसमें अध्यात्म के साथ ही मनोविज्ञान भी कम नहीं है, नाटकीयता से भरपूर जीवन-गाथा है। फ़ुटबॉल पर किताब लिखी! फिल्मी-गीतों पर किताब लिखी। बांग्ला सिनेमा के पुरोधा सत्यजित राय पर किताब लिखी। लोकप्रिय-विज्ञान पर किताब लिखी। वीगनिज़्म पर​ किताब लिखी। हिन्दी का लेखक या तो स्वयं माँसभक्षी होता है, या अगर शाकाहारी भी होता है तो माँसभक्षण के विरोध में कुछ बोलने का नैतिक-साहस उसमें नहीं होता। कि कहीं फलाने मियाँ नाराज़ न हो जाए, ढिकाने शेख़ को बुरा न लग जाए। हिन्दी के लेखक को बताया जाए कि माँसभक्षण नैतिक-अपराध, क्रूरता, हिंसा तो है ही, यह ग्लोबल-वॉर्मिंग का उत्प्रेरक भी है, क्लाइमेट चेंज कर रहा है, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन करता है, तो वह चुप्पी साध लेगा। हिन्दी के लेखक को इस सबसे कोई सरोकार नहीं। उसका दायरा दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श, मुसलमान-विमर्श- बस यहीं तक सीमित है।

मैंने बहुत युवा उम्र में ही तय कर लिया था कि मुझको इस कुएँ का मेंढक नहीं बनना!

इस वक़्त मेरी मेज़ पर दो किताबें हैं- व्हाय वी स्लीप (लेखक : मैथ्यू वॉकर)। इसका सम्बंध न्यूरोसाइंस से है, क्योंकि नींद और स्वप्न उसी का विषय हैं। दूसरी पुस्तक है- द​ भिलसा टोप्स (लेखक : अलेग्ज़ांडर कनिंघम)। इसका सम्बंध आर्कियोलॉजी से तो ही है, भारत में बौद्ध धर्म के प्रसार, अशोक, मौर्य साम्राज्य से भी है। मेरी इतिहास में गहरी रुचि है। मनोविज्ञान में है। क्वांटम-भौतिकी में है। दर्शन में है। दुनिया के हर विषय में मेरी दिलचस्पी है, उसके प्रति कौतूहल है। मुझे रेत की मछली और रेत-समाधि पढ़कर फ़ेसबुक पर उसका रिव्यू डालने तक ही ख़ुद को सीमित नहीं करना है। और मैं अपने पाठकों से भी यही कहूँगा कि दुनिया बहुत बड़ी है, अपने दिमाग़ को खोलो, उसको बेमाप विस्तार दो। हिन्दी की छोटी-सी दुनिया में ख़ुद को सीमित मत कर लो। यह तो मुख्यतया कुंठा, हीनता, स्पर्धा और राजनीति का संसार है। इससे बाहर आकर खुली हवा में साँस लो!

Sushobhit

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