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क्या “पठान” का बहिष्कार भगवा रंग के पार जाकर भी नहीं रुकने वाला?

-विशाल झा की कलम से-

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Positive India:Vishal Jha:
विवादित फिल्म पठान के गीत में न केवल भगवा रंग के मोनोकिनी का इस्तेमाल हुआ है, बल्कि अन्य भी रंग हैं। लेकिन भगवा वाली छोटी सी क्लिप को काटकर सोशल मीडिया पर संपूर्ण फिल्म के बहिष्कार का रास्ता तैयार किया गया है। स्वयं बहिष्कार करने वाले भी जानते हैं कि फिल्म के बहिष्कार का यह कारण पर्याप्त नहीं। निश्चित तौर पर इतनी छोटी बातों को लेकर एक बड़ा बहिष्कार देशभर में सफल भी नहीं हो सकता। इसके बावजूद पठान का बहिष्कार जिस प्रकार लगातार सफल होता दिख रहा है, मतलब साफ है यह बहिष्कार भगवा रंग के पार जाकर भी नहीं रुकने वाला।

मैं इस बात से सहमत नहीं कि गीत को लेकर जिस प्रकार से विवाद किया जा रहा, फिल्म का उल्टे प्रचार बढ़ रहा है। मुझे पूरा विश्वास है अब वो वक्त गया जब कंट्रोवर्सी किसी फिल्म के प्रचार प्रसार का जरिया हुआ करता था। लेकिन आलिया की फिल्म सड़क से लेकर लाल सिंह चड्ढा तक दाऊद गिरोह के जितने भी फिल्म आए, सब पर देशभर में पब्लिक डिसकोर्स हुआ, विरोध प्रतिरोध हुआ, और फिल्मों को उनके औकात व अंजाम तक पहुंचाया गया।

शाहरुख खान की फिल्म पठान को लेकर ये देश लंबे समय से प्रतीक्षा कर रहा है। फिल्म को देखने के लिए नहीं, बल्कि बहिष्कार के लिए। बॉलीवुड के दाऊद नक्सस को नष्ट करने की बात जब भी की जाती है, उसमें सुपरस्टार के रूप में तीन चार नाम खान मार्केट से सामने आते हैं। क्योंकि ऐसा लगता है अगर ये नाम निपटा दिए गए, तो माना जाएगा दाऊद नेक्सस वाले बॉलीवुड इंडस्ट्री निपट गई। सैफ अली खान और आमिर खान इन दोनों को तो एक प्रकार से इस देश में प्रमाणिक तौर पर फिल्मों के जरिए बहिष्कार कर दिया है। बड़ी दिलचस्प बात है कि अब तीसरे सबसे बड़े सुपरस्टार शाहरुख खान की बारी है। पठान के जरिए शाहरुख खान के निपटते ही बॉलीवुड का तीन चौथाई टॉक्सिक इकोसिस्टम निश्चित तौर पर ढ़ह गया माना जाएगा। सलमान खान ने अपनी फिल्मों को साल भर के लिए टाला हुआ है, अर्थात उसके जरिए बॉलीवुड को अंतिम आहुति दी जाएगी।

शाहरुख खान की अदाकारी को लेकर न केवल गैर-राष्ट्रवादी गिरोह में बल्कि कुछ राष्ट्रवादी लोगों के मन में भी एक अलग तरह का एहसास एक अलग तरह की कसक है। जो विचारधारा के मारे मजबूर होकर फिल्म के विरोध में तो हैं, लेकिन रंग वाली छिछली विरोध की आलोचना करते हुए पॉलिटिकली करेक्ट होते नजर आ रहे हैं। नुसरत फतेह अली खान के गीत तो मुझे भी अच्छे लगते हैं, लेकिन मैंने अपने हृदय से नुसरत के प्रति कमजोरी को निश्चित तौर पर दूर कर लिया है। क्योंकि मुझे लगता है आत्मस्वाभिमान मनोरंजन से ऊपर की चीज है। नुसरत का गीत ‘काफिरों को ना घर में बिठाओ’ हम नहीं सुन सकते। हमारे देश में स्वयं एक पर एक हीरे हैं। अगर ना भी होते तो हम कोई बेसुरा गीत सुन लेना स्वीकार करते।

फिल्म का बहिष्कार करते हुए हमें ‘पठान(Pathaan) के महिमामंडन’ को केंद्र में रखकर बहिष्कार करना चाहिए। सामाजिक और वैधानिक रूप से हमें विमर्श में इस बात को लाना चाहिए कि पठान जो असल चरित्र में होता है, लेकिन किस प्रकार उसे फिल्म में महिमामंडन किया जा रहा, जिस महिमामंडन को यह देश स्वीकार नहीं कर सकता। कोलकाता फिल्म फेस्टिवल कांड बॉलीवुड नेक्सस की हताशा को एक बार फिर सामने ला दिया है। कम से कम इतना तो अवश्य कि फिल्म जगत दो प्रकार के राजनीतिक हिस्सों में बटा हुआ स्पष्ट हो गया है। एक तरफ जिसके लिए स्वयं राष्ट्रवादी खेमा से पूरा देश और वैश्विक नेता नरेंद्र मोदी अभिव्यक्ति की आजादी पर अपनी बात रखते हैं। वहीं दूसरी तरफ रोहिंग्या, मुगल और पठान किंतु हासिये की राजनीति करने वाली ममता बनर्जी समर्थन करती हैं। इसलिए देश किसके साथ है तय करना काफी आसान है।

साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार है)

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