चन्द्रयान में भारतीयों की अत्यंत रुचि को देखकर दुनिया चकित क्यों है?
-सुशोभित की कलम से-
Positive India:Sushobhit:
कार्ल सैगन ने पृथ्वी के धरातल को अंतरिक्ष के महासमुद्र का किनारा कहा था- द शोर्स ऑफ़ द कॉस्मिक ओशन! इस तट से हमने- यानी मनुष्यों ने- फिर बहुत सारी नौकाएँ समुद्र में उतारी हैं। समय-समय पर ये नौकाएँ किन्हीं द्वीपों-उपद्वीपों पर जा लगी हैं, कुछ गुहांधकार में तैरती ही चली जा रही हैं। इस समूचे उद्यम का सार एक ही है- इस बेबूझ और बेमाप सृष्टि को पहले से बेहतर जानना और अपने अस्तित्व के बारे में एक समझ बनाना कि हम यहाँ कैसे आए, क्यों आए, क्या हम यहाँ अकेले हैं, ये दुनिया कैसे बनी, कैसे चल रही है, कैसे शुरू हुई, कैसे ख़त्म होगी? ये तमाम प्रश्नवाचक चिह्न विज्ञान के संसार के अलंकार हैं। इसकी यात्रा “हम नहीं जानते” से शुरू होती है और “हम प्रमाणभूत को ही सत्य मानेंगे” पर जारी रहती है। यहाँ पर सत्य स्वयं को संशोधित करता रहता है, जैसे-जैसे ज्ञान का दायरा बढ़ता है। यह धर्म की उस आदिम, अंधकारपूर्ण दुनिया से बहुत विपरीत है, जो कहती है हमने पहले ही सबकुछ जान लिया!
कितने अंतरिक्षयान कितनी यात्राओं पर गए हैं- कोई गणना ही नहीं है। चन्द्रमा पर सोवियत लोगों ने 1966 में ही अपना यान उतार दिया था- लूना9… जिसके तीन साल बाद अमरीकियों ने वहाँ मनुष्यों के पाँवों की छाप बना दी। उसके बाद तो अपोलो मानो पिकनिक के अंदाज़ में चन्द्रमा पर जाता रहा, कुल 17 मिशन भेजे गए, जिन्होंने 12 आदमियों को चाँद पर उतारा, उनमें से कुछ ने वहाँ पर रोवर भी चलाए। इस बात को भी अब पचास साल हो गए हैं। क्या आपको पता है, मनुष्य शुक्र ग्रह पर अंतरिक्षयान उतार चुके हैं, वह भी 1970 में? वह सोवियत लोगों का वेनेरा मिशन था। मार्स पर तो डेढ़ दर्जन मिशन भेजे जा चुके हैं। 1976 में वाइकिंग मिशन ने मंगल ग्रह से रंगीन तस्वीरें जारी करना शुरू कर दिया था। एक प्रोब प्लूटो की तफ़्तीश कर आया है, एक सैटर्न तो दूसरा मर्कुरी का मुआयना करके उनमें दफ़न हो गया है, एक सैटर्न के चन्द्रमा टाइटन पर उतर गया है, इतना ही नहीं एक धूमकेतु पर भी लैंडिंग की जा चुकी है! वोयजर मिशन सौरमण्डल से बाहर चला गया है। यह ज्ञान के शोध की अनवरत यात्रा है।
पिछले दो सालों में दो बड़े स्पेस-मिशन भेजे गए- पहला मार्स पर पर्सिवरेंस रोवर, जो लाल ग्रह पर अभी तक भेजी गई सबसे परिष्कृत यांत्रिकी है। दूसरा जेम्स वेब टेलीस्कोप, जो कि अंतरिक्ष में मौजूद सबसे बड़ी ऑंख है और अरबों वर्षों के फ़ासले पर देखती है। जब ये दोनों मिशन भेजे गए तो इन्हें देश-दुनिया में उत्साह से रिपोर्ट किया गया, पर भारतीयों ने इनमें अपेक्षित रुचि नहीं दिखाई। उपरोक्त तमाम मिशनों में से भी अगर अपोलो-11 को छोड़ दें तो भारतवासियों की प्रतिक्रिया सब पर उदासीन ही रही है। अंतरिक्ष-विज्ञान हमारी प्राथमिकताओं के दायरे में नहीं है, इससे हमारी कुण्डलिनी नहीं जगती। भारतवासियों की रुचि ले-देकर छह ही विषयों में है- धर्म और राष्ट्र, क्रिकेट और सिनेमा, राजनीति और सेक्स।
इसलिए मैं चकित होता हूँ चन्द्रयान में भारतीयों की अत्यंत रुचि को देखकर, क्योंकि जानता हूँ कि रुचि का आधार विज्ञान नहीं है। रुचि का आधार राष्ट्र-गौरव है। यह अभियान घमंड करने का एक और मौक़ा दे सकता है। यह हताश होने की गुंजाइश भी सँजोये हुये है। पर दोनों ही के मूल में वैज्ञानिक चेतना नहीं है, उलटे वैज्ञानिक चेतना के प्रति तो एक सार्वभौमिक उपेक्षा और निंदाभाव भारतीय भावभूमि में पैठा है। क्योंकि सभी प्रश्नों के उत्तर तो पहले ही विश्वगुरु के ग्रंथों में मौजूद हैं, उस पर तुर्रा यह है कि पश्चिम ने ही भारतीयों का ज्ञान चुराया हुआ है। अब अचानक पश्चिमी रीति से बनाकर भेजे गए अंतरिक्षयान में ज्ञान की ऐसी कौन-सी सम्भावना निहित हुई है, जिसे आर्यभट, वराहमिहिर और भास्कराचार्य ने पहले ही नहीं जान लिया था?
इसी में भारत की दुविधा निहित है- अपने ज्ञान पर दर्प, और साथ ही पश्चिमी ज्ञान-परम्परा के प्रति हीनता-बोध से जन्मी ललक। पश्चिम की वैज्ञानिक क्रांति के समस्त उपकरणों का नि:संकोच उपभोग करके भी मन ही मन इस ग़ुमान को पाले रखना कि हम उनसे अधिक जानते हैं। आप पूछ सकते हैं कि भारतीय खगोलविदों ने सहस्रों वर्ष पूर्व ही जो जान लिया, चन्द्रयान उस ज्ञान में क्या नया इज़ाफ़ा कर देगा? और अगर करेगा तो क्या यह इस तथ्य की स्वीकृति नहीं होगी कि पश्चिमी खगोल-भौतिकी के दीर्घ वितान में यह भारत का नया, नन्हा और किंचित हाशिये का योगदान भर है? उसकी सुंदरता उसकी लघुता में निहित है। तिस पर भी पूरे देश को गर्व हो तो?
वैज्ञानिक चेतना- जो प्रश्न करती है, संशय करती है, परीक्षणों के आधार पर निर्णय लेती है, अपने ज्ञान को अद्यतन बनाने को तत्पर रहती है और विनम्रता से भरी होती है- वह भारत की मिथकीय-पौराणिक-भावभूमि से अभी कोसों दूर है। इसरो का अगर कोई योगदान है तो वह एक विज्ञान-विरोधी देश में विज्ञान के लिए अपने को सर्वस्व झोंक देने का है। और अगर उसकी कोई नाकामी है तो वो यह है कि उसके इन लघु-प्रयासों को भी भारत के लोग, उसकी सरकार और उसका प्रचार-तंत्र राष्ट्रवाद की ओछी आँख से देखने-दिखाने को तत्पर हैं।
जबकि विज्ञान का मूल-चरित्र कॉस्मोपोलिटन होता है- किसी देश नहीं बल्कि पूरी पृथ्वी को ही मातृभूमि स्वीकारने का भाव। क्योंकि पृथ्वी ही देश है। ऐसा कोई देश नहीं है, जो पृथ्वी के नष्ट होने पर भी बच रहेगा। पर राष्ट्रवाद की सँकरी दृष्टि से आप सफलताओं के अधीर उत्सव मना सकेंगे, जन-जन में वैज्ञानिक-चेतना तो बुद्धि के परिमार्जन से ही जन्मेगी।
साभार:सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार है)