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समय के साथ हमने तरक़्क़ी की हो या नहीं, कूड़ा करने की कला में अवश्य महारत हासिल कर ली है। स्वच्छ भारत आंदोलन के स्वर्णिम दौर में हम कूड़ाप्रधान देश बन रहे हैं। याद रहे, कूड़ा बुहारने भर से आप स्वच्छ नहीं हो जाते हैं, जो कूड़ा आपने किया है वह बुहारने के बाद कहाँ जाता है, यह सोचना भी आपकी जिम्मेदारी है। साइबर जंक से तो आज अंतरिक्ष भी भर गया है, समुद्र-तल में भी करकट है। पर हम अपने आसपास की ही बात करें, इतना दूर न जाएँ।
फ़ूड-पैकेट्स या पार्सल : वर्तमान दौर की उपलब्धि! यह क्या होती है? ऑफिस में महत्वपूर्ण बैठक है, कोई विशेष परियोजना है, या बाहर से डेलीगेट्स आए हैं। उनसे कहा गया है कि आप जल्दी आ जाएँ, भोजन की चिंता न करें। मीटिंग में लंच इनक्लूडेड है। बाज़ दफ़े यह एक फ़ूड-पैकेट होता है, जो समीप की ही किसी होटल से बुलवाया जाता है। बीसियों पैकेट्स एक साथ। ये पैकेट्स क्या हैं? गत्ते का डिब्बा जिसमें प्लास्टिक की थाली है, उसमें सेक्शंस बने हैं। रोटियाँ तो सिल्वर फ़ॉइल में हैं, लेकिन दाल, सब्ज़ी, रायता, चावल, सलाद- सब अलग-अलग प्लास्टिक की थैलियों में! मेहमान का मुँह मीठा कराना ज़रूरी है, इसलिए प्लास्टिक की एक डिबिया में मिठाई है। यहाँ तक कि अचार का सैशे भी है, भले उसे कोई खोले भी ना। एक व्यक्ति भोजन करता है, कुछ खाया कुछ छोड़ देता है, पीछे रह जाता है कूड़े का ढेर। इसी भोजन को अगर कोई घर या किसी रेस्तराँ में खाए तो एक थाली और दो कटोरियों का उपयोग हो, जिन्हें भोजन के बाद धो लिया जावे और एक रेशा प्लास्टिक का उपयोग न हो। यही किस्सा फ़ूड-पार्सल का है, जो अब अत्यंत लोकप्रिय हो चुके हैं। मैं पूछता हूँ जब प्लास्टिक का चलन न था, तब लोग बाहर से भोजन घर में कैसे लेकर आते थे? घर से ही स्टील के डिब्बे लेकर नहीं जाते थे? पर अभी के लोगों को यह शोभनीय नहीं लगता।
सब जीवन में किसी धन्नासेठ की तरह व्यवहार करते हैं, जबकि जीवन के समक्ष एक छोटे, विनयी श्रमिक की तरह व्यवहार होना चाहिए।
हम प्लास्टिक-प्रेमी जीव बन चुके हैं। दूध प्लास्टिक में आता है। किताबें प्लास्टिक में आती हैं। मैंने अपने एक प्रकाशक से आग्रह किया था कि कृपया मेरी पुस्तकों को बाजार में इंडीविजुअल पोली-पैक में न भेजें, गत्ते या काग़ज़ के पैक का ही उपयोग करें। सब्ज़ी-भाजी का आलम तो यह है कि घर के नीचे खड़े सब्ज़ी वाले से भी प्लास्टिक की थैलियों में ही सामान लिया जाता है। जबकि डलिया या झोला लेकर नीचे चले जाएँ तो नाक न कट जावेगी। घर आकर वो पन्नियाँ फेंक दी जाती हैं। हमें लगता है हमने प्लास्टिक को डस्टबिन में डाल दिया, कूड़े वाला आकर उसे ले गया तो सफ़ाई हो गई। लेकिन कूड़े वाला उसे कहाँ पर जाकर डम्प करेगा और उनका बायोडिग्रेडेशन कैसे होगा, यह हमारी चिंता का विषय नहीं है।
अपनी नित्य-सन्ध्या की पैदल यात्रा के दौरान सड़कों पर बिखरी पन्नियाँ बीनकर उन्हें डस्टबिन के हवाले करना मेरा रोज़ का नियम बन गया है। मुझे सड़क से पन्नियाँ बीनते शर्म नहीं आती, उसे फेंकने वाले को आना चाहिए। कार में सवार आदमी को लगता है गाड़ी से बाहर की दुनिया एक बड़ा सा कूड़ेदान है। कई दफ़े ऐसा हुआ कि किसी ने कार से कुछ खाकर रैपर फेंक दिया है, मैंने उसे उठाकर उसे डस्टबिन में डाला है। इससे वे लज्जित हो गए हैं। शायद आइंदा से ऐसा न करें। किंतु बहुतेरे इस पर नाराज़ भी हो जाते हैं कि तुम हमें साफ़-सफ़ाई सिखाने की जुर्रत करते हो? सड़क पर पीक थूकने से इनकार करने पर एक व्यक्ति तो हाल में लड़ने-मारने पर उतारू हो गया।
मैं तो इसी आधार पर सबकी राष्ट्रभक्ति को जज करता हूँ। मैं स्वयं राष्ट्रवादी नहीं हूँ, पर जिम्मेदार नागरिक ज़रूर हूँ। अगर आप तिरंगा न फहरावेंगे, राष्ट्रगान के समय रीढ़ तानकर उठ न खड़े होंगे और सभागार को वंदे मातरम् से न गुँजा देंगे तो मैं आपसे शिक़ायत न करूँगा, पर कूड़ा करेंगे, अपव्यय करेंगे, भोजन जूठा छोड़ेंगे तो इसको अवश्य राष्ट्रद्रोह समझूँगा। देश प्रतीकों से नहीं कृत्यों से बनता है, व्यक्ति के स्तर पर लिए गए छोटे-छोटे नैतिक-निर्णयों से राष्ट्र-निर्माण होता है। गांधीवादी जीवनशैली मिनिमलिस्टिक है। न्यूनतावादी, मितव्ययी और किफ़ायती है। आवश्यकता से अधिक उपयोग और अपव्यय न करें तो देश की धरती हर मनुज के लिए पर्याप्त भोजन-कपड़ा उत्पन्न करने में सक्षम है। यह चरित्र-निर्माण की भी कुँजी है।
कुकुर भी जिस स्थान पर बैठता है, उसे पूँछ से बुहार देता है। फिर मनुज ही कूड़े का कुबेर क्यों बन बैठा है?
साभार: सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार हैं)