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हमास – इजरायल युद्ध को लेकर भारतीय मुसलमानों की दुविधा बड़ी विचित्र क्यों है?

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit:
भारतीय मुसलमानों की दुविधा बड़ी विचित्र है। इज़रायल से उन्हें यह शिक़वा है कि उसने ‘उनकी’ मुक़द्दस धरती पर कब्ज़ा कर लिया, जिसे उनको लौटाया जाए। लेकिन अयोध्या, ज्ञानवापी, मथुरा के प्रश्न पर उनकी यह राय उलट जाती है। माजरा क्या है?

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अयोध्या का मामला तो अचरज में डाल देने वाला है। अभी तलक वहाँ मंदिर बनकर पूर्ण नहीं हुआ, श्रीरामजन्मभूमि है और हिन्दू बहुसंख्या वाले भारत में है। यह भूमि अगर पाकिस्तान या बांग्लादेश में रह गई होती तो क़यामत के रोज़ तक वहाँ इंसाफ़ नहीं हो सकता था। तो क्या औरों की मुक़द्दस धरती पवित्र नहीं है, उन्हें उनके लिए नहीं लड़ने दोगे, ख़ुद ही लड़ोगे?

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श्रीरामजन्मभूमि मामले में सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इसमें समस्त वाद-संवाद और तर्क-वितर्क वर्ष 1990 तक पूर्ण हो चुका था। उसमें कुछ नया जोड़ने की गुंजाइश नहीं रह गई थी। समाधान की राह में मनोवैज्ञानिक बाधाएँ भर थीं। राजनैतिक इच्छाशक्ति का प्रश्न था। दशकों तक मगजपच्ची हुई, दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों यथा अरुण शौरी, राम स्वरूप, सीता राम गोयल, हर्ष नारायण, आभास कुमार चटर्जी, कोएनराड एल्ष्ट आदि ने धारदार तर्क सामने रखे, कारसेवा हुई, ढाँचा गिराया गया, पुरातात्वि​क और ऐतिहासिक सर्वेक्षण हुए, अदालत को हस्तक्षेप करके फ़ैसला देना पड़ा। जबकि बाबरी मस्जिद के मुअज़्ज़िन ही सालोंसाल बाबरी को “मस्जिद-ए-जन्मस्थान” कहकर सम्बोधित करते रहे थे। लेकिन मुसलमानों ने अपनी तरफ़ से एक इंच ज़मीन नहीं छोड़ी, कोई और चारा न देखकर पीछे हटे पर मन में आज भी मलाल है। जबकि मथुरा और काशी तो अभी बाक़ी है।

ज्ञानवापी पर वो चाहते हैं कि यथास्थिति क़ायम रहे। प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट 1991 की तमाम दफ़ाएँ ज़ुबान पर रखी हैं। फिर यरूशलम में भी अगर यथास्थिति क़ायम रहे तो क्या हर्ज़ है?

हिन्दुस्तान में यह तर्क है कि अतीत को भूल जाओ और इज़रायल में यह तर्क है कि अतीत को कभी भूलने न देंगे, यह कैसे चलेगा, बिरादर?

ग़ैरत और ईमान होते तो ख़ुद ही आगे बढ़कर ये तमाम मुक़द्दस ज़मीनें हिंदुओं के लिए छोड़ देते, फिर सिर उठाकर फ़लस्तीन की अल-अक़सा के लिए झंडा बुलंद करते। पर “चित भी मेरी पट भी मेरी और अंटा मेरे बाप का” वाली मिसाल है। फिल्म ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ में राजा अवस्थी का वह क्या संवाद था- “ओरिजिनल भी यही रखेंगे, डुप्लिकेट भी यही!”

इज़रायल में झगड़ा यह है कि वो ज़मीन पहले हमारी थी, यहूदी वहाँ आकर बस गए। हम लड़कर वापस लेंगे। तब दुनिया के तमाम मुल्कों के लोगों ने यह कहकर कि पहले हम यहाँ रहते थे, अपनी-अपनी ज़मीनें रॉकेट-मिसाइलों से छीनना शुरू कर दी, तब क्या करोगे? यूरोप, अमरीका और हिन्दुस्तान ने यह ठान लिया तो? पाँचों बड़े मज़हबों- हिंदू, बौद्ध, ईसाइयत, यहूदी, इस्लाम में इस्लाम सबसे नया है। सबसे पहले हम आए वाली मिसाल में तो फिर ये कहीं के न रहेंगे। हर जगह जहाँ ये जाकर बसे, वहाँ पहले कोई न कोई बसा ही था, इस्लाम का समूचा इतिहास ही दूसरे मुल्कों में जाकर फैल जाने का है। अगर उन्होंने खदेड़ने का मन बना लिया तो?

जबकि यहूदी तो कहते ही हैं कि इज़रायल हमारा ही मादरे-वतन है। दान और बीरशेवा के बीच, हमाथ के प्रवेशद्वार से लेकर ईजिप्त की नदी तक, जिसके पड़ोस में वो सिनाई का पहाड़ है, जहाँ पर हज़रत मूसा ने दस उपदेश दिए थे, यरूशलम जिसकी राजधानी है, वही इज़रायल की धरती!

इज़रायल और जूदा का साम्राज्य इस्लाम की तख़लीक़ से कहीं पहले, कम-अज़-कम छह सौ साल पहले वहाँ मौजूद था कि नहीं? ईजिप्त में जहाँ यहूदियों का पवित्र सिनाई का पहाड़ मौजूद है, वह तक़रीबन वही इलाक़ा है या नहीं, जिसे इस्लाम में लेवेंट कहा जाता है? आज अरब मुल्कों में जहाँ-तहाँ “इत्बा अल यहूद” (यहूदियों का क़त्ल कर डालो) का नारा बुलंद होता रहता है, जबकि सातवीं सदी से पहले तक मध्यपूर्व के बाशिंदे यहूदियों के साथ मिलजुलकर रहते थे या नहीं? पाँचवीं सदी में तो दहू नुवास नामक अरब के सुल्तान ने यहूदी धर्म अपना लिया था। ख़ुद मदीना का मुक़द्दस शहर यहूदियों ने बसाया था या नहीं, पहले यह यथरीब कहलाता था या नहीं? फिर वहाँ पर यहूदियों का क़त्लेआम हुआ या नहीं? यहूदियों के क़ुरयाज़ा क़ुनबे को पूरे का पूरा हलाक़ कर दिया गया या नहीं, क़यून्क़ा और नादिर क़ुनबे को अरब से बाहर खदेड़ा गया या नहीं?

जो व्यक्ति जहाँ का मूल निवासी है, वो वहीं पर रहेगा की दलील आज की तारीख़ में जो देगा, वह तो फँस जाएगा। एक जगह मिलेगी तो दस जगहें उसको छोड़ना पड़ेंगी।

टू-स्टेट थ्योरी क़बूल कर लो- जैसे हिन्दुस्तान-पाकिस्तान में क़बूल की है- और शांतिपूर्व सहअस्तित्व का पालन करो, इसमें क्या बाधा है? हमास और हिज़बुल्ला से कह दो कि​ हथियार फेंक दें। उसके बाद भी अगर इज़रायल ज़ुल्म करता है तो क़सम ख़ुदा ​की हम सब खुलकर उसकी मुख़ालिफ़त करेंगे और तुम्हारा साथ देंगे। पर अगर तुम गाज़ा पट्टी से इज़रायल पर मिसाइलें दाग़ोगे तो वो तुमको बख़्शने वाला नहीं है।

होना तो यह चाहिए कि फ़लस्तीन के लोग जो हुआ सो हुआ कहकर अपने यहूदी भाइयों के साथ गंगा-जमुनी की तर्ज़ पर मिल-जुलकर रहें। ये भी अब्राहमिक हैं और वो भी अब्राहमिक हैं, ज़्यादा फ़र्क़ है भी नहीं। पर लड़ोगे तो ताक़तवर ही जीतेगा। प्रेम से रहोगे तो दुनिया बाँहें फैलाकर स्वागत करेगी। सीधी-सी बात है, समझ जाओ!

साभार: सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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