यौन वार्ता- सेक्स वीक-टेंडर एज प्रोहिबिटेड पोस्ट क्यों है?
-विशाल झा की कलम से-
Positive India:Vishal Jha:
बिना गंभीर चिंतन वाले क्षणिक विचार के दो परिणाम संभव हैं या तो यह नये अन्वेषणों का आधार बनेगा अथवा विकृति उत्पन्न करेगा। कभी-कभी यह विकृति समाज-दर-समाज को अपनी चपेट में ले लेता है। यौन शिक्षा के नाम पर अमेरिका के एक अंडर ग्रेजुएट येल कॉलेज में एरिक रूबेंस नाम के एक एपिडेमियोलॉजिस्ट, बोस्टन का असिस्टेंट प्रोफेसर के प्रयास से पहली बार 2002 में यौन वार्ता आयोजित हुआ। यह वार्ता ‘सेक्स वीक’ के रूप में आकार लिया।
ऐसे प्रोग्राम्स को मैगजीन का रूप देकर 25000 प्रतियां अमेरिका भर में 18 प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में बांटे गए। परिणाम हुआ कि आज अमेरिका के शिकागो, मिशीगन, मैरीलैंड, हार्वर्ड समेत तकरीबन 13 विश्वविद्यालय इस ‘सेक्स वीक’ के गिरफ्त में आ चुके हैं। इसका कुप्रभाव इतना भयानक हो गया कि छोटे-छोटे बच्चों के स्कूल में भी अल्टरनेटिव लाइफस्टाइल के नाम पर विकृति जगाने का कूचक्र शुरू हो गया। इसकी गंभीरता को देखते हुए वर्जिनियां के एक स्कूल फेयरफैक्स काउंटी पब्लिक स्कूल ने अपने पुस्तकालय से उन दो किताबों को हटा दिया जिससे वयस्क पुरुष और टेंडर एज बालकों के बीच यौनिक अंतःक्रिया को रोका जा सके।
किंतु विश्वविद्यालय के स्तर पर जकड़न कितनी मजबूत हो चुकी है सोचना भी दुष्कर है। इस साल 8 नवंबर को हार्वर्ड विश्वविद्यालय में ‘सेक्स वीक’ मनाया गया। वह विश्वविद्यालय जो कभी अपने शैक्षणिक पहचान लिए विश्व में शीर्षतम स्थान हासिल रखता था। वहां यौन शिक्षा के नाम पर उत्पन्न विकृति का नतीजा देखिए, ऐसे 19 कार्यक्रम तय किए गए, जिसमें कुछ कार्यक्रम के नाम हैं :
लेट्स टॉक अबाउट पॉर्न बैबी,
व्हाट व्हाट इन द बट्ट : एनल सेक्स 101,
आई किड यू नॉट : हिट मी बेबी वन मोर टाइम,
माय आईडेंटिटी : एलजीबीटीक्यू इंटिमेसी,
ए स्टूडेंट पैनल आॉन डेटिंग एंड हुक्स अप इन कॉलेज,
ड्रैग क्वीन स्टोरी आवर,
रॉबिन फ्रॉम गुड वाइब्रेशन,
इगर्स कैन बी चियर्स आदि।
ड्रैग क्वीन स्टोरी आवर क्या है? एक प्रोग्राम है जो बच्चों को इंटरटेनमेंट के माध्यम से जेंडर डायवर्सिटी को स्टीरियोटाइप्स के रूप में प्रस्तुत करता है। फिर उसे एलजीबीटी अप्रोच के लिए तैयार करता है। एलजीबीटी के रूप में उसे अपनी पहचान साधने को प्रोवोक करता है। ‘सेक्स वीक’ मुख्यतः यौन शिक्षा के नाम पर एलजीबीटी थीम को ही स्पॉन्सर करता है। इसका एक हिस्सा हुक्स-अप कल्चर विकसित करना भी है।
हमारे जेएनयू ने भारत में इस विकृति को स्पॉन्सर किया। तब पहली बार जेएनयू में 2013 में एलजीबीटी का बखेड़ा खड़ा हुआ, जब गौरव घोष नाम के एक घोषित समलैंगिक लड़के ने स्टूडेंट इलेक्शन के लिए अपनी उम्मीदवारी घोषित की। एसएफआई ने इसको सपोर्ट किया। सतरंगी के साथ अपना लाल रंग का झंडा खड़ा कर दिया। एसएफआई अर्थात वामपंथियों का स्टूडेंट विंग। अब तो 2013 से जेएनयू कैंपस में एलजीबीटी समुदाय के आंदोलन से लेकर यह मामला दिल्ली के हाई कोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। निर्णायक रूप से देखें तो 2018 में सबसे पहले इसे सुप्रीम कोर्ट ने लगभग 150 साल से चली आ रही समाज संगत कानून की धारा 377 को कॉलोनियल एरा कानून के नाम पर डिक्रिमिनलाइज किया। 2019 में पूर्णतया निरस्त।
एक विमर्श यह भी हुआ कि कानून समाज की अगुवाई नहीं कर सकता। फिर इस विमर्श से सचेत होकर षड्यंत्रकारियों ने सामाजिक उपकरणों से लड़ने के लिए भी तमाम हथकंडे अपनाने शुरू किए। न्यायालय तो बाएं दाएं देखते हुए गिरफ्त में आ ही चुका है। अब आंदोलन और जबरिया विमर्श से समाज को संक्रमित करने की कोशिश की जा रही है। यौन शिक्षा के नाम पर भारत में भी एलिट से एलिट प्लेटफार्म पर जबरिया विमर्श किया जा रहा है। इसके बाद समाज को सबसे संवेदनशील रूप में प्रभावित करने का काम फिल्म इंडस्ट्री करता है। यह फिल्म इंडस्ट्री भी मानव समाज को एलजीबीटी के रूप में विकृत कर देने के लिए जमीन तैयार करता है। हालिया उदाहरण लीजिए। टाइगर और आलिया की फिल्म स्टूडेंट ऑफ द ईयर की रीमेक का गाना – “खुद को समझ के लक्की मुझसे हुकअप तू कर लेना”। गीतकार इसका राकेश कुमार है। खालिस्तान स्पॉन्सर्ड आम आदमी पार्टी का बेशर्म समर्थक।
मानव समाज के लिए अपने बच्चों को ऐसे संक्रामक हथकण्डो से बचाना एक गंभीर चुनौती है। जिसने कानून और संविधान को तो पहले ही अपने चपेट में ले लिया है, अब समाज की बारी है।
साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार हैं)