Positive India: Sushobhit:
हर व्यक्ति के जीवन और हर देश के इतिहास में एक क्षण ऐसा आता है, जब उसे कहना पड़ता है कि- “आगे जो होगा देखा जाएगा, पर इन हालात को अब हम और बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे!”
व्यक्ति के जीवन में यह क्षण तब आता है, जब वह अपने घर या शहर को छोड़ने का निर्णय लेता है, कोई नई नौकरी करता है या मौजूदा नौकरी बदलता है, या किसी सम्बंध में जाने या किसी सम्बंध से अलगाव करने का मन बनाता है। तब उसके सामने यह स्पष्ट नहीं होता कि आगे क्या होगा। शायद अभी जो है, उससे बुरा ही हो। फिर भी वह वो फ़ैसला लेता है, क्योंकि मौजूदा हालात के लिए उसकी सहनशक्ति चुक गई होती है।
देश के इतिहास में- विशेषकर संसदीय-लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में- यह क्षण तब आता है, जब चुनाव होते हैं और जनता सरकार बदलने का निर्णय लेती है। यह एक निगेटिव-वोट होता है। पॉज़िटिव-वोट किसी को चुनने के लिए दिया जाता है, निगेटिव-वोट किसी को हटाने के लिए। निगेटिव-वोट में सरकार बदलने पर ज़ोर रहता है। आगे क्या होगा, उसकी ज़्यादा फिक्र नहीं होती। जनता सोचती है कि जो होगा, देखा जाएगा। अगर हालात और बदतर हुए तो लोकतंत्र के इन्हीं उपकरणों और संविधान की इन्हीं संस्थाओं की मदद से उन्हें भी बदलने की कोशिश करेंगे। लेकिन बदलेंगे ज़रूर। यथास्थिति को माईबाप मानकर नहीं बैठ जाएंगे।
1977 में देश की जनता ने इंदिरा जी के विरुद्ध निगेटिव-वोट दिया था। तब जनता को इस बात की चिंता नहीं थी कि राज नारायण प्रधानमंत्री बनेंगे, या चरण सिंह, या मोरारजी देसाई या अटल जी। इंदिरा जी को कुर्सी से हटाना था, सबक़ सिखाना था, उनके अहंकार को धरातल पर लाना था। मतदाताओं ने वैसा किया। तीन साल बाद फिर उन्हीं इंदिरा जी को धूम-धाम से चुनकर ले आए। जनता जानती है कि मज़बूत नेता का देश के शासन में क्या महत्त्व होता है, स्थायी सरकार और पूर्ण बहुमत के क्या मायने हैं। लेकिन जनता स्वयं को मूर्ख समझे जाने की क़ीमत पर इनको नहीं स्वीकार कर सकती।
इस बार के चुनावों में भी जनता ने निगेटिव-वोट दिया है। कौन प्रधानमंत्री बनेगा, इसकी परवाह नहीं है। लेकिन किसको एक बार फिर पूर्ण बहुमत से प्रधानमंत्री नहीं बनने देना है, इस पर जनता का ज़्यादा ज़ोर रहा है। जनता ने अपना फ़ैसला सुना दिया है। जनादेश मुखर और स्पष्ट है!
पिछले दिनों में केंद्र की सत्ता ने जिन तौर-तरीक़ों का परिचय दिया और चुनाव-अभियान के दौरान सत्ता के अग्रदूतों ने जिस तरह की भाषा-शैली, आचार-विचार, गति-मति दिखाई, उसके बाद उन्हें सत्ता में रहने का नैतिक अधिकार नहीं रह गया है। उन्होंने जो बातें बोलीं, वो सामान्य नहीं थीं और सभ्य-समाज में स्वीकार नहीं की जा सकती हैं। हो सकता है, वो फिर से सरकार बना लें। लेकिन जनता ने उन्हें नकारा है, यह बात अब इतिहास में दर्ज़ हो चुकी है। अभिमानी का मान-मर्दन किया जा चुका है। उसे क्षेत्रीय-क्षत्रपों की चिरौरी करने को मोहताज़ बना दिया गया है। विपक्ष की आवाज़ को बुलंद कर दिया गया है। जनता ने अपना काम कर दिया। यह ऐतिहासिक जनादेश है!
अब आप राष्ट्रीय सुरक्षा और बहुमत वाली मज़बूत सरकार का रोना रोते रहिए। ज़्यादा पुरानी बात नहीं है, जब फिरंगी भी भारतीयों से यही कहा करते थे कि तुम तो जातियों, क्षेत्रों, भाषाओं में विभाजित हो, तुम एक देश थोड़े ना हो तुम तो रियासतों का संकलन हो, हम तुमको यूनिफ़ाई करते हैं, हमने तुम्हारे यहाँ इंस्टिट्यूशंस बनाए, प्रणालियाँ दीं, इंफ्रास्ट्रक्चर बनाया, रेल चलाईं। हमीं को अपना राजा मानते रहो। जनता ने इससे इनकार कर दिया। कहा, चाहे जिसके राज में रह लेंगे, लेकिन तुम्हारे राज में नहीं रहेंगे। अपनी सरकार बनाएँगे, जैसे-तैसे देश चलाएँगे, लेकिन तुम्हारी छत्रछाया में नहीं रहेंगे।
उसका नाम आज़ादी की लड़ाई था!
यह भी आज़ादी की लड़ाई है!
कोई देशद्रोही ही इससे विपरीत सोच सकता है!
वो कह रहे हैं हिन्दुओं ने ही हिन्दुओं के शासक को परास्त करके उसकी पीठ में छुरा घोंप दिया। वो नहीं जानते कि हिन्दू केवल सवर्ण, वैष्णव, मूर्तिपूजक, अवतारवादी ही नहीं होते, हिन्दू दलित, आदिवासी, निषाद, किरात, शैव, द्रविड़, अनीश्वरवादी भी होते हैं। और भारत केवल हिन्दुओं का ही नहीं, मुसलमानों, यहूदियों, ईसाइयों, जैनियों, बौद्धों, पारसियों, सिखों का भी देश है।
यह सवर्ण हिन्दू वर्चस्ववाद, बहुंख्यकवाद ही तो झगड़े की जड़ है, उसी के खिलाफ़ तो जनता ने फ़ैसला सुनाया है। और जो फ़ैसला सुनाया है, वो दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ़ है। कोई अंधा ही इसे नहीं समझने की भूल कर सकता है!
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