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जीवित रहते दुर्भाग्यशाली और जीवन के बाद सौभाग्यशाली होने की अजीब विडंबना मुक्तिबोध ने क्यों झेली?

-जय प्रकाश की पुस्तक ' मैं अधूरी दीर्घ कविता ' से

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Positive India:Jai Prakash:
दुर्भाग्य ने मुक्तिबोध का पीछा अंत तक नहीं छोड़ा। वह भोपाल के हमीदिया अस्पताल और दिल्ली के एम्स में करीब छह महीने तक भर्ती रहे। बचाने की तमाम कोशिशें डाक्टरों ने की मगर वे बच नहीं पाए।

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11 सितंबर 1964 की रात उनकी दिल्ली में मृत्यु हुई और उसी सुबह नागपुर में उनके पिता माधवराव मुक्तिबोध की मृत्यु भी हुई थी। मुक्तिबोध के पास केवल उनकी पत्नी शांता जी और बड़े बेटे रमेश मुक्तिबोध और बाकी -शमशेर आदि साहित्यिक मित्र और प्रशंसक थे।उनके भाई आदि सब रिश्तेदार तब नागपुर में थे या जा रहे थे, जहां उनके पिता की सुबह मृत्यु हो चुकी थी।

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उनकी दो पुस्तकें उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुईं।जिस महीने उनकी मृत्यु हुई, उसी महीने भारतीय ज्ञानपीठ से उनका पहला कविता संग्रह ‘ चांद का मुंह टेढ़ा’ आया। अपने निबंधों की पुस्तक ‘ नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’ 1963 में ही तैयार करके मुक्तिबोध ने प्रकाशक को दे दी थी, वह भी विश्व भारती प्रकाशन, नागपुर से उनकी मृत्यु के बाद ही छप कर आई। उनकी सबसे चर्चित कविता ‘अंधेरे में’ भी ‘कल्पना ‘ के नवंबर अंक में प्रकाशित हुई। इससे पहले उनके कविता संग्रह के प्रकाशन की हर कोशिश, किसी न किसी वजह से असफल हुई।उनके एक उपन्यास के कुछ फर्में छप चुके थे मगर प्रकाशक के बेटे को वह ऊबाऊ लगा तो वह भी अधबीच में रह गया।उसकी पांडुलिपि का कुछ पता नहीं चला।

उनकी उपेक्षा का एक लंबा सिलसिला रहा।’ धर्मयुग’ ने उनकी केवल एक कविता ‘पहली पंक्ति न बन पाई ‘ छपी थी, उसके बाद मृत्यु तक कोई कविता नहीं छपी। ‘कल्पना ‘ में उनकी कविता तब प्रकाशित हुई, जब जीवन के अंतिम चरण में वह राजनांदगांव आ चुके थे। ज्ञानोदय, धर्मयुग, आजकल, कल्पना जैसे पारिश्रमिक देनेवाली नियमित पत्रिकाओं के दरवाजे उनके लिए बंद रहे, जबकि उन्हें जीवन में इस तरह के समर्थन की तब बहुत जरूरत थी।उनके जीवन में उनकी केवल एक पुस्तक, पाठ्य पुस्तक के रूप में छपी ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’।वह दक्षिणपंथियों के कुचक्र का शिकार हुई। उसे मध्य प्रदेश की सरकार ने पाठ्य-पुस्तक के रूप में स्वीकृत देने के बाद उस पर प्रतिबंध लगाने का आंदोलन सा दक्षिणपंथियों ने छोड़ दिया,जिसमें कांग्रेस के गोविंददास जैसे प्रभावशाली सांसद तक शामिल थे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक शाकीर अली ने भी इस कुचक्र का साथ दिया,बाद में जरूर उन्हें इसका अफसोस रहा।इस आंदोलन ने उन्हें आर्थिक रूप से ही नहीं, मानसिक रूप से भी तोड़ दिया।

मुक्तिबोध की कीर्ति पताका उनकी मृत्यु के बाद ऐसी फहरी,ऐसी ऊंचाई तक पहुंची कि उसकी दूसरी कोई मिसाल मिलना कठिन है। दिल्ली के सभी छोटे बड़े साहित्यकार उनका हालचाल लेने अस्पताल आए।उनकी अंतिम यात्रा में दिल्ली का कोई प्रमुख -अप्रमुख साहित्यकार ऐसा नहीं था,जो सम्मिलित नहीं हुआ‌। तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की ओर से श्रद्धांजलि स्वरूप पुष्प गुच्छ भेजा गया।राम मनोहर लोहिया स्वयं आए।और फिर तो मुक्तिबोध की कीर्ति के आगे सुस्थापित और ‘तार सप्तक ‘ को संभव करनेवाले अज्ञेय की कीर्ति भी कुछ वर्षों तक धूमिल पड़ गई।आज साठ साल बाद भी मुक्तिबोध प्रासंगिक हैं।

जीवित रहते दुर्भाग्यशाली और जीवन के बाद सौभाग्यशाली होने की अजीब विडंबना मुक्तिबोध ने झेली।

एक अच्छी और विस्तृत जीवनी के लिए जयप्रकाश जी को बधाई।अथक परिश्रम से लिखी गई यह जीवनी जैसे उनके जीवन को साकार कर देती है।

साभार :जय प्रकाश (उनकी पुस्तक मुक्तिबोध की जीवनी ‘ मैं अधूरी दीर्घ कविता’से।

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