Positive India:Vir Bahadur Singh:
केरल से लौटते हुए ढेर सारी यादें साथ साथ लगी चली आई हैं।कुछेक तमिलनाडु और कन्याकुमारी की भी।केरल के लोग वे परंपरागत नाम्बुदिरि ब्राह्मणों के परिवार के हों या अन्य स्थानीय ब्राह्मण समाजों के बहुलांश में शाकाहारी हैं और अपनी धर्मिक परंपराओं को विधिवत जीते हैं।ब्राह्मणेतर जातियों के लोग भी कम धर्मप्राण नहीं हैं पर वे अपने खान पान और सामाजिक दृष्टिकोण में बेहद उदार और अन्यों के जीवन विश्वासों के प्रति सम्मान और स्वीकार्य का भाव रखते हैं।उस रात जब मैं डा.सुचित्त जी के साथ कन्याकुमारी से लौट रहा था चढ़ती हुई रात के उस वासंती वातावरण में ढेर सारे धर्मप्राण आस्थावान अपने अपने देवताओं के पूजन और अर्चन की धर्मयात्रा करते अभीष्ट पूजास्थलों की ओर गाते बजाते चले जा रहे थे।कुछेक यात्री बेहद
मौन भी थे।वे जिन्होंने अपने सिरों पर कलश जैसा कुछ लिए हुए थे वे सबके बीचो बीच अत्यंत शांत भाव से चले जा रहे थे।मेरा ध्यान बार बार इसकी ओर इसलिए जा रहा था कि गाड़ी की स्पीड वाधित हो रही थी और सड़क जाम हो रही थी।मैंने तब डा.सुचित्त जी से जानना चाहा कि ये ही लोग हैं जिनके वोट की ताकत पाकर यहाँ का वामपंथ विजयी होता है तो उन्होंने और बाद में डा.जयचन्द्रन जी ने भी स्पष्ट किया कि आम समर्थकों और कार्यकर्ता जनों के लिए यह पूरी स्वतंत्रता है कि वे अपने सामाजिक जीवन का निर्धारण कैसे करें। इसकी एक झलक मैंने तब देखी जब त्रिवेंद्रम शहर के ठीक बीचोबीच एक अपेक्षाकृत लंबा पर बेहद शांत जुलूस दिखा।निगाह दौड़ाई तो सबसे आगे एक रथनुमा वाहन पर कोई शख़्स हनुमान जी का रूप धारण किए बैठा थाऔर उसके पीछे के रथ पर दो और राम और लक्ष्मण के रूप में विराज रहे थे।शेष आबादी उन्हें अपने आराध्य के रूप में लिए एकदम मौन होकर अनुगतभाव से चली जा रही थी।सड़क के सारे वाहनों की गति स्वत:धीमी हो चली थी पर कोई एक भी यह कहने को आगे नहीं आया कि वे सबअपनी शोभायात्रा को एक किनारे से ले जाएँ। मैंने याद किया कि बंगाल की वामपंथी सरकार के काल में भी स्थिति यही थी।वहाँ तो बल्कि मैंने एक बंगाली के मुख से एक यह किस्सा भी सुना जो भूलता ही नहीं।
किस्सा यह कि जब एक बंगाली आस्तिक ने अपने एक परिचित वामपंथी मंत्री से पूछा कि आप तो वामपंथी हो फिर दुर्गापूजा और कालीपूजा के आयोजनों में क्यों जाते हो?तो उसने जवाब में कहा—अरे मैं ब्राह्मण घर में पैदा हुआ, सारे संस्कार वहीं से ग्रहण किए तो क्या वे सारे संस्कार एकदम से भूल जाऊँगा।संस्कार से तो मैं ब्राह्मण ही हूँ न।वामपंथ को मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार राजनीतिक विचारधारा के रूप में ग्रहण किया है।इसमें दुर्गा या काली व्याघात कहाँ डालती हैं।तब मैं अपने संस्कारों को क्यों भूल जाऊँ?केरल का लोकजीवन भी बहुत कुछ बंगाल जैसा ही है इसीलिए।बेहद उदार ,ग्रहणशीलऔर समावेशी।भौगोलिकता में भी बहुत सारी समानताएँ हैं –जैसे नारियल,मछली और भात।केला भी दोनों को खूब पसंद है।यह जरूर है कि वहां के बड़े होटलों में बीफ परोसे जाने का इतना आम चलन शायद न हो।
केरल में मुसलमान आबादी भी खूब हैऔर बड़ी बड़ी भव्य मस्जिदों की मीनारें भी खूब ऊँची।नमाज की अदायगी भी विधिवत। यों विश्वविद्यालय परिसर मे यह तो पता नहीं ही लगता तब भी कुछेक छात्राएं वहाँ भी अपना अधिकांश तन बदन ढँक कर आती जाती हैं।हिन्दी विभाग की वह छात्रा जिसका नाम सुनयना है जो रोज मेरे व्याख्यानों में इसी रूप मेनआकर बैठती रही।आखिरी दिन –जो मेरी विदाई का दिन था -उसने भी मेरे साथ अपनी तस्वीरें खिंचवाई फिर भी पूरा चेहरा तब भी उसने कहाँ खोला।मेरे आग्रह पर भी नहीं।पर है यह संख्या उँगलियों पर गिनी जाने वाली।एक और भारत इसी पारंपरिक भारत के बीच से बगैर किसी हो हल्ले के धीरे धीरे जन्म ले रहा है।
ईसाई लोग भी केरल में खूब हैं और डा.सुचित्त की मानूँ तो यह संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। इसका क्या कारण हो सकता है तो जवाब वही आता है कि जो दलितऔर निपीड़ित हिन्दू हैं उनकी परवाह खाता पीता हिन्दू समाज लगभग नहीं ही करता।तब जहांँ से भी उन्हें मदद या सहानुभूति मिलती है वे उधर चले जाते और स्वयं को अधिक बेहतर महसूस करते हैं।
2 मार्च का वह पूरा दिन जो मेरी विदाई के लिए समर्पित था,समस्त हिन्दी विभाग अपने रंग बिरंगी परिधानों में ऐसी छटा बिखेर रहा था जैसे समूचा बसंत अपने समूचे वैभव के साथ उतर आया हो।एक ओर वह भीष्म साहनी की विख्यात कहानी चीफ की दावत का खूबसूरत नाट्य रूपांतरण और दूसरी ओर उत्तर और दक्षिण की समस्त नृत्य शैलियों का वह चमत्कारी कोलाज मुझे चकित करता रहा जिसका समापन भारत माता के तिरंगे ध्वज के साथ हुआ यह संदेश देते हुए कि हमारी विविधता में स्थानीयता का वैभव है तो हमारी राष्ट्रीयता में एकता का गौरवपूर्ण संदेश।
साभार: वीर बहादुर सिंह-(ये लेखक के अपने विचार है)