www.positiveindia.net.in
Horizontal Banner 1

जैन समुदाय वन्दनीय क्यो है ?

-सुशोभित की कलम से-

Ad 1

Positive India:Sushobhit:
जैन समुदाय इसलिए वन्दनीय है, क्योंकि यह दुनिया का इकलौता ऐसा समुदाय है जिसमें माँसभक्षण का स्पष्ट निषेध है। कोई और भी हों तो कृपया मेरी भूल दुरुस्त करें, पर मुझे याद नहीं आता। बौद्धों और ब्राह्मणों ने भी अहिंसा और जीवदया की बात कही है, लेकिन माँसभक्षण का स्पष्ट निषेध नहीं किया है। किया होता तो आज इतने पैमाने पर हिंदू और बौद्ध माँस नहीं खा रहे होते। कलिकाल के प्रभाव में अब कुछ जैनी भी माँस खाने लगे हैं, उन्हें मैं घोर पथभ्रष्ट और धर्मविमुख ही कहूँगा। फिर भी 90 प्रतिशत से अधिक जैनी शुद्ध शाकाहारी हैं।

Gatiman Ad Inside News Ad

बौद्धों के प्रभाव वाला दक्षिण-पूर्व एशिया आज घोर माँसभक्षी हो गया है। महायानियों में तो प्राय: नहीं, पर थेरवादियों में माँसभक्षण की अनुमति है और बुद्ध की मृत्यु भी शूकर-मार्दव से होना बताई है। एक स्पष्ट निर्देश के अभाव में ही आज आम्बेडकरी नवबौद्ध भी नि:संकोच जीवहत्या का पाप करते हैं। वहीं पशुबलि और प्राणीवध के इतिहास वाले हिंदू बहुसंख्यक भारत में भी आज 80 प्रतिशत लोग माँस भकोस रहे हैं। अतीत में भारत में शाकाहार का जो भी, जितना भी प्रभाव रहा था, उसके पीछे भी जैनियों और श्रमणों का ही प्रभाव बताया जाता है।

Naryana Health Ad

जैनियों में भी, अहिंसा के तत्व की स्थापना सबसे बलपूर्वक भगवान महावीर ने की थी। उनसे पूर्व भी अहिंसा की परम्परा जैनियों में थी, पर इतनी प्रबल नहीं थी। तीर्थंकर नेमिनाथ श्रीकृष्ण के सम्बंधी बतलाए गए हैं। ऋग्वेद में उनका उल्लेख अरिष्टनेमि नाम से है, साथ ही तीर्थंकर ऋषभदेव का भी नामोल्लेख है। कथा है कि नेमिनाथ प्रचंड योद्धा थे, पर विवाह में वध के लिए लाए गए पशुओं को देखकर उन्हें उद्बोध हुआ था। पर महावीर से पूर्व तीर्थंकरों के द्वारा युद्ध लड़ने और वध करने के वर्णन मिलते हैं।

महावीर से ही इस धारा में ऐसा स्पष्ट अंतर क्यों आया? क्योंकि वे श्रमण-परम्परा के शिखर और जिन-परम्परा में सबसे वरेण्य, प्रखर और सूक्ष्मग्राही थे। महावीर की अहिंसा के पीछे एक विशिष्ट कारण था। रजनीश ने एक बार बताया था कि महावीर ने एक अनूठा प्रयोग किया था, जो मनुष्यता के इतिहास में किसी और ने नहीं किया। उन्होंने जीवन के समस्त तलों तक सत्य की अनुभूति को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया था, यानी केवल मनुष्यों ही नहीं, बल्कि वृक्षों, पशुओं, पक्षियों, देवताओं तक भी उन्होंने अपनी वाणी पहुँचाने का यत्न किया। इसी क्रम में महावीर ने पशुओं के लोक से तादात्म्य स्थापित कर लिया था और उनकी सघन पीड़ा का अनुभव किया था। यही कारण है कि जब महावीर अहिंसा की बात करते थे तो निरा नैतिक उपदेश नहीं दे रहे होते थे, वे उस तल पर तादात्म्य स्थापित करने के बाद वैसा कहते थे। उनकी समानुभूति इतनी सघन थी कि वे पशुओं की वेदना को स्वयं अनुभूत करने लगे थे, जिसके बाद प्राणियों के साथ सूक्ष्म स्तर पर हिंसा भी उनके लिए असम्भव हो गई थी।

रजनीश- जो स्वयं जन्म से तारणपंथी जैन थे- के शब्दों में- “महावीर ने मनुष्य से नीचे का जो मूक जगत है, उससे जो तादात्म्य किया है और उसकी जो पीड़ा अनुभव की है, वह इतनी सघन है कि अब उसे और पीड़ा देने की कल्पना भी असम्भव है। इतनी असम्भव वह किसी के लिए भी नहीं रही है कभी भी, जितनी महावीर के लिए हो गई थी। महावीर की दृष्टि यह है कि जहाँ हम कभी थे (यानी हम पिछले जन्मों में स्वयं पशु थे) और जहाँ से हम पार हो गए हैं, उस जगत के प्रति भी हमारा एक अनिवार्य कर्तव्य है। और मेरी समझ यह है कि महावीर ने जितने पशुओं की चेतना को विकसित किया है, इतना इस जगत में किसी दूसरे व्यक्ति ने कभी नहीं किया।”

माँसाहार को जीवनशैली या भोजन की पसंद का विषय समझने वाले माँसभक्षियों को अनुमान नहीं है कि मनुष्यों के नीचे जो पशुओं का लोक है, वहाँ कितना सघन विषाद इस अनाचार के कारण निर्मित हो गया है, और मनुष्य उसकी कलंक-छाया से बच नहीं सकता है। दूसरे, माँसभक्षण का त्याग नैतिक उपदेश या क़ानूनी बाध्यता नहीं, बल्कि समानुभूति से ही सम्भव है, जो चेतना के उन्नयन की यात्रा में स्वत: घटित होती है। जिस प्राणी को बंधक बनाकर रखा गया है, जिसके बच्चों को उसकी आँखों के सामने मारा जा रहा है, जिसकी गर्दन काटी जा रही है, जिसकी खाल उतारी जा रही है- उसके स्थान पर अगर आप या आपके प्रियजन होते तो?

इस भाव को अपने भीतर इतना गहरे उतार दें कि माँसभक्षण नामक महापाप स्वप्न में भी करना सम्भव नहीं रह जावे!

Horizontal Banner 3
Leave A Reply

Your email address will not be published.