सफल स्त्रियों को परम्परागत परिधान में देखकर औसत भारतीय-मन भावविह्वल क्यों हो जाता है ?
-सुशोभित की कलम से-
Positive India:Sushobhit:
प्रसिद्ध या सफल स्त्रियों को परम्परागत परिधान में देखकर औसत भारतीय-मन जिस तरह से भावविह्वल हो जाता है, उसके पीछे क्या रहस्य है? यह निरंतर हो रहा है और सोशल मीडिया के दौर में तो इससे एक लहर-सी बन जाती है। वह बात ट्रेंडिंग हो जाती है। हमारे आसपास, सब तरफ़ साड़ी या सलवार-कमीज़ पहने स्त्रियाँ मौजूद हैं- आप चाहें तो साधारण स्त्रियाँ शब्द का इस्तेमाल कर सकते हैं, हालाँकि यह श्रेणीकरण अवांछित है। किंतु इसी परिधान को जब भारतवासी किसी सफल, प्रसिद्ध, विशेषकर विदेश में जा बसी स्त्री को पहने देखते हैं तो वे विमुग्ध हो जाते हैं। क्यों?
अव्वल तो यही कि इससे उन्हें एक किस्म का वैलिडेशन मिलता है कि देखो, इतनी सफल स्त्री ने हमारी संस्कृति के परिधान को पहना, और इस तरह से हमारी परम्परा को मान्यता प्रदान की। कहना न होगा कि इस विचार में एक अत्यंत हीन-भावना (भारत-देश की मूलभूत ग्रंथि) निहित है कि जो परिधान यत्र-तत्र-सर्वत्र स्त्रियों के द्वारा पहना जाता हो, उसे वैलिडेशन प्रसिद्ध स्त्रियों के पहनने पर ही मिलता हो। इसरो ने चन्द्रयान भेजा, भारतीयों की नज़र (या गिद्धदृष्टि?) वहाँ कार्यरत स्त्रियों के पहनावे पर जा टिकी। गर्व से फूल गए कि देखो, साइंटिस्ट हैं पर साड़ी पहनती हैं। उत्सव के दिन साड़ी पहनने की परम्परा है और मून-लैंडिंग का दिन अगर उन लोगों के लिए एक पर्व की तरह हो तो आश्चर्य नहीं। हो सकता है, वे दैनन्दिन ही साड़ी नहीं पहनती हों या पहनती हों, पर इससे क्या? रवींद्र जडेजा की पत्नी तो एक क़दम आगे बढ़ीं। उन्होंने न केवल साड़ी पहनी, बल्कि पतिदेव के पैर भी छू लिए। भारतीय-मन गदगद हो गया। इस भारतीय-मन का रहस्य क्या है, जो दुनिया-जहान की हज़ार चीज़ें छोड़कर इसकी नज़रें इन बातों पर जा टिकती है। उसे इससे क्यों सुख मिलता है?
ब्रिटिश प्रधानमंत्री की पत्नी ने सलवार-सूट पहना। पर सलवार तो मुग़ल शैली का परिधान है, पलाज़्ज़ो इतालवी है। साड़ी के स्वरूप में भी सदियों में बहुत बदलाव आया है। सिंधु सभ्यता की साड़ी आज के जैसी नहीं थी- उत्तरीय, अंतरीय, स्तनपट्टा का मेल थी। शरीर का ऊपरी हिस्सा बहुत आच्छादित नहीं रहता था। बंगाल में नीवी-बंधन प्रचलित था। सिर पर पल्लू लिया जाता था पर ब्लाउज़ नहीं पहना जाता था। राजा रवि वर्मा के अनेक पौराणिक-चित्रों में भारतीय स्त्रियों को बिना ब्लाउज़ के प्रदर्शित किया गया है। वह कौन-सा भारतीय सांस्कृतिक परिधान था? ठाकुरबाड़ी, जोड़ासांको की ज्ञानेंद्रनंदिनी देवी ने इसे बदला और ब्रह्मिका साड़ी प्रचलित की, जिसमें सिर खुला रहता था, पल्लू बायें कंधे पर लिया जाता था और पूरी आस्तीन का ब्लाउज़ पहना जाता था। इस अत्यंत शालीन परिधान को भी उस ज़माने में आपत्तिजनक समझा गया था!
वास्तव में, घूंघट या अवगुंठन भारतीय परम्परा में मूल रूप से नहीं था। आज भी दक्षिण भारत की महिलाएँ घूंघट नहीं करती हैं। उत्तर भारत की महिलाओं ने मुस्लिम आक्रांताओं के यौन आक्रमण से स्वयं को बचाने के लिए विवशतापूर्वक ख़ुद को छुपाने के जतन से वैसा किया था, इस बारे में थ्योरियाँ प्रचलित हैं। भास ने प्रतिमानाटक में लिखा कि स्त्रियाँ अगर अवगुंठन के बिना भी दिखाई दें तो इससे उन्हें दोष नहीं लगता। प्रियदर्शिका में श्रीहर्ष ने कहा कि कुमारिकाओं के लिए अवगुंठन अनिवार्य नहीं। तीसरी सदी के ललितविस्तर सूत्र में यशोधरा ने कहा है कि जिनके विचारों पर ही कोई आवरण नहीं, वे अगर सहस्त्र अवगुंठनों में भी इस पृथ्वी पर चलेंगे तो नग्न ही कहलाएँगे! कालिदास और जयदेव ने स्त्री के अनावृत्त शरीर का जैसा लोलुप और उत्तेजक वर्णन किया है, उसकी कोई तुलना विश्व-साहित्य में नहीं। क्या उन कविगण की प्रेरणाएँ भारतीय नहीं थीं? दबी-छुपी स्त्री ही भारतीय होती है?
मेरा निरंतर यह ऑब्ज़र्वेशन रहा है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मूल में निहित अनेक कारणों में से एक प्रमुख कारण यौनकुंठा है। भारतीय-मन अगर स्त्री के शरीर को वस्त्रों से आच्छादित देखकर भावविह्वल होता है तो इसका एक कारण यह भी है कि उनके मतानुसार ये कथित परम्परागत परिधान स्त्री को ‘डी-सेक्शुअलाइज़’ करते हैं और इससे वे सहज अनुभव करते हैं। तब वो कौन-सी चीज़ है, जो उन्हें बेचैन करती है? भारतीय-मन अगर स्त्री में माता, बिटिया, बहिन और भौजी के ही दर्शन करने को व्याकुल है, उसके अन्य रूपों को वह दबे-छुपे ही, एकांत या अंधेरे में निहारता है सार्वजनिक रूप से नहीं, तो आप ही बताइये ऐसा क्यों है?
साभार:सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार हैं)