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बचपन का वह 15 अगस्त आजादी का दिन तनिक अधिक आजादी वाला क्यो होता था?

- सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

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Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
बचपन की ओर मुड़ कर देखता हूँ तो दिखता है, पन्द्रह अगस्त के दिन स्कूल के कार्यक्रम से निकल कर दो रुपये टिकट वाले वीडियो हॉल में फ़िल्म देखने के लिए दौड़ता लड़का! तिरंगा, कर्मा, हिंदुस्तान की कसम, कोहराम… विचारधारा की समझ नहीं थी, सो सिनेमा को तर्क की कसौटी पर कसने की जिद्द भी नहीं थी। बस प्रलय नाथ गुंडास्वामी के मिसाइलों का फ्यूज कंडक्टर निकाल लेते राजकुमार को देख कर ही मन आनन्द से भर जाता था। वे बातें अब भले बकवास लगें, पर तब उन्ही का मूल्य था।
पन्द्रह अगस्त आजादी का दिन था, तो उस दिन तनिक अधिक आजादी होती थी। उस दिन साइकल तनिक अधिक चलाया जा सकता था, स्कूल से घर आने के सामान्य रास्ते को छोड़ कर ‘उसके’ गाँव की ओर से भी निकल सकते थे। उस दिन घर देर से आने पर भी कोई टोकता न था।
उस दिन सबकी जेब भरी होती थी, भले दो रुपये ही हों। हाँ भाई साहब! जेब का भरना धन का नहीं, मन का विषय है। मन उमंग से भरा हुआ हो तो दो रुपये की पकौड़ी से भी पार्टी हो जाती है। एक ही पाण्डेय जी के होटल में हमने किसी दोस्त की दो रुपये वाली पार्टी भी मनाई है और दस रुपये वाली भी, पर मजाल कि दोनों के आनन्द में पैसे भर का भी अंतर रहा हो। दस रुपये से अधिक की तो हमारे सर्कल में कोई नहीं ही सोच सकता था।
दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है, पर जहाँ से मैं देखता हूँ वहाँ से कुछ बदला हुआ नहीं दिखता। देश का मूल चरित्र नहीं बदलता, सभ्यताओं की प्रकृति नहीं बदलती, बचपन का रङ्ग नहीं बदलता।
कुछ बदला नहीं इन बीस पच्चीस सालों में! सब कुछ वैसा ही है, जस का तस… अंतर बस इतना है कि अब लड़के साइकल से फर्राटे नहीं काटते, उनके पास बाइक आ गयी है। पॉकेटमनी कम मिलने और उपलब्धता न होने के कारण हमारी साइकिलों में झंडे नहीं बांधे जाते थे, अब के लड़के मोटरसाइकिल में झंडा बांध कर रैली निकाल लेते हैं। आज एक साथ बीस-पच्चीस लड़कों को मोटरसाइकिल से नारेबाजी करते देख कर मन ही मन कहा, “सब समझ रहा हूँ यारों… उड़ लो, उड़ लो..”
स्वतंत्रता दिवस इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस दिन बचपन के माथे पर थोप दिया गया महत्वकांक्षाओं का भारी बोझ कुछ देर के लिए उतर जाता है। दिन भर के लिए ही सही, बच्चे भूल जाते हैं कि बाप डॉक्टर-इंजीनियर बनाने के लिए डंडा लेकर पीछे पड़ा है।
राष्ट्रभक्ति हमारे लिए प्रूफ करने की चीज नहीं। हमारी सभ्यता चौबीसों घण्टे जिनका नाम जपती है न, उन्होंने ही एक दिन वन में अपने छोटे भाई से भावुक हो कर कहा था, “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी…” मातृभूमि की बड़ी याद आती है लक्ष्मण! वह मिल जाय तो हजार स्वर्ग ठुकरा दूँ…” तो जिन्हें राम याद हों, उन्हें राष्ट्र को याद नहीं करना पड़ता। जबतक रोम रोम में राम हैं, तब तक रग रग में राष्ट्र है।

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साभार:सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार है)
गोपालगंज, बिहार।

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