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लव जिहाद में फँसाई गयी लड़की के परिवार ने उसके जीते जी पिंडदान क्यो कर दिया ?

-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

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Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
कल परसो से यह कार्ड वायरल हो रहा है। लभ जिहाद में फँसाई गयी लड़की के परिवार ने उसके जीते जी पिंडदान कर उसे मृत मान लिया। एक सभ्य शहरी परिवार की पढ़ी-लिखी लड़की अपने अच्छे और सुखद भविष्य को लात मार कर किसी असभ्य के प्रपंच में फँस जाय और उससे विवाह कर ले, और उसके बाद उस लड़के का परिवार सार्वजनिक रूप से लड़की के माता पिता का मजाक उड़ाए तो एक पराजित परिवार यही करेगा।
यह सामान्य परिवार इससे अधिक कुछ कर भी नहीं सकता। यदि करना चाहे तो वे लोग ही अपराधी घोषित हो जाएंगे। राजनीति, पत्रकारिता, न्यायपालिका, बुद्धिजीवी वर्ग, सभी लड़के के पक्ष में उतर जाएंगे और लाखों रुपये लेने वाले वकील मुफ्त में लड़के की ओर से लड़ने लगेंगे। तो यह सामान्य परिवार पिंडदान कर के ही मुक्ति पा लेना चाहता है।
मैं परिवार के निर्णय की आलोचना नहीं कर सकता, उनके दुख को केवल वही समझ सकते हैं। पर यह भी सच है कि यह अंतिम निर्णय नहीं है। यह इस बीमारी का इलाज नहीं है, बल्कि क्षणिक आत्मसन्तोष के लिए उठाया गया जज्बाती कदम भर है। बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती।
यह निर्णय बताता है कि परिवार लड़की को ही एकमात्र दोषी मान रहा है, जबकि ऐसा है नहीं। आप माने न मानें, यह निर्णय उस लड़के और उसके परिवार को बिल्कुल बरी कर देता है। वे सहजता से ही एक लड़की को फंसाने, उसका अश्लील वीडियो बनाने, उसे ब्लैकमेल करने और उसका धर्मपरिवर्तन कराने जैसे जघन्य अपराध से मुक्त हो जाते हैं। और इस तरह आगे भी हजारों लड़कियों के जीवन को नरक बनाने का मार्ग खुल जाता है।
अगर आप में तनिक भी बुद्धि है तो आपको मानना होगा कि लड़की फँसाई गयी है। वह दलदल में इतनी गहराई तक धंस चुकी है कि अब न अपना भविष्य देख पा रही है, न अपने परिवार का…
एक नई उम्र की लड़की के पीछे यदि कोई लड़का पूरी प्लानिंग के साथ लगे और इसमें उसका पूरा परिवार उसका साथ दे, तो उस लड़की का जाल में फँस जाना कोई आश्चर्जनक घटना नहीं है। वह भी तब, जब शहरों में ‘प्रेम’ टीन एज का आवश्यक कार्य हो गया है। जब आपने प्रेम करने की खुली छूट दे दी, तो कोई न कोई उसे प्रेम के नाम पर उड़ा ही ले जाएगा।
यदि कोई अठारह-बीस वर्ष की लड़की यदि ऐसे षड्यंत्रों को नहीं समझती तो यह उसकी अज्ञानता है, किंतु उसे अपने समय की सबसे बड़ी बीमारी को लेकर जागरूक नहीं कर सकने का अपराध किसके ऊपर जाता है?
यदि कोई लड़की कहती है कि ‘मेरा वाला ऐसा नहीं है’, तो यकीन कीजिये उसके मुँह से उसका परिवार बोल रहा है। उसने यह सेक्युलरिज्म अपने परिवार से ही सीखा होगा। यह उसके परिवार की ही जिम्मेवारी थी कि उसे समय से पहले यह दृढ़तापूर्वक याद करा दिया जाता कि ‘सब एक से ही होते हैं’।
जाल में फँसी चिड़िया को ही अपराधी बता कर आप शिकारी की मदद करते हैं। और यह कहीं न कहीं शिकार से भी बड़ा अपराध है। क्या आप चाहते हैं कि अपराधी साफ बच कर निकल जाय? क्या आप चाहते हैं कि वह अपने समाज के और लड़कों की प्रेरणा बनें और आपकी और बेटियां फँसाई जांय? नहीं न! तो विमर्श के केंद्र में अपराधी को रखिये, पीड़ित को नहीं…
और हाँ! ‘परत’ के तीन वर्ष बाद अब मुझे दृढ़ विश्वास है कि फँसाने का सबसे प्रचलित तरीका वही है जो उसमें लिखा है मैंने। यह केस भी वैसा ही है।

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साभार:सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार है)
गोपालगंज, बिहार।

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