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आंदोलन के टेंट में किसान जमकर राज कुंद्रा क्यों करते हैं ?

-विशाल झा की कलम से किसान आन्दोलन का विश्लेषण-

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Positive India:Vishal Jha:
डू पॉलिटिक्स की रिपोर्ट कहती है आंदोलन के टेंट में किसान नग्न पड़े रहते हैं। जमकर राज कुंद्रा करते हैं।

अदानी ग्रुप का उद्योग जो कि लुधियाना में लॉजिस्टिक पार्क के रूप में था का बंद हो जाना लेकिन एक अलग ही कहानी कहता है। स्पष्ट बताता है कि कथित किसान आंदोलन में केवल राज कुंद्रा ना देखें। याद करें भारत का वह दौर जब कभी कानपुर का जेके ग्रुप अपनी वैश्विक ख्याति लिए हुए हुआ करता था। जुग्गीलाल कमलापति सिंघानिया का उद्योग ग्रुप।

तब कानपुर को ईस्ट का मैनचेस्टर कहा जाता था। आजादी से पहले ही कामरेडों को कानपुर में तलाश थी सैद्धांतिक लड़ाई की भूमि। सूती वस्त्र के विभिन्न उद्योगों के श्रमिकों को मालिक और मजदूर में अंतर का झांसा पढ़ाकर तैयार किया गया 80 दिनों का सूती वस्त्र उद्योग श्रमिक हड़ताल। ऐसे शुरू हुआ कानपुर में 50 के अर्द्ध दशक में यूनियनबाजी। तकरीबन दशकों चला।

कानपुर के उद्योग जगत को घुटने टेकवाकर एसएम बनर्जी तकरीबन 4 बार सांसद बने। 1957 से 1977 तक। उद्योग जगत वर्षों तक संघर्ष करता रहा। श्रमिकों को काम चोरी की घुटी पिलाया गया। नारा गढ़ा गया “काम के घंटे 4 करो, बेकारी को दूर करो”। बताया गया कि 8 घंटे मेहनत मजदूर करते हैं और गाड़ी से चलते हैं मालिक।

उद्योग जगत अंतिम सांसे गिनने लगा। गुजरात के अहमदाबाद और सूरत शिफ्ट होने लगे उद्योग धंधे। कानपुर की सड़कों से यूनिफॉर्म में कार्य करने जाते हुए श्रमिक गायब हो गए। स्कूलों में पढ़ते उनके बच्चे कबाड़ बीनने लगे। 8 घंटा यूनिफार्म में कार्य करने वाला श्रमिक 12 घंटे रिक्शा चलाने को मजबूर हो गया। सेल्समैन, मैनेजर, क्लर्क का कार्य करने वालों पर बेरोजगारी और डिप्रेशन का संकट छा गया।

कम्युनिज्म की अफीम अपना नशा पूरी तरह दिखा चुका था। कानपुर के आर्थिक जगत की इस शैय्या पर चढ़कर सुभाषिनी अली कानपुर की सांसद बनी, 1989 में। जवानी का पहला पड़ाव अपने एक इश्क मुजफ्फर अली फिल्मकार के नाम फना कर चुकी थीं। सुभाषिनी सहगल से सुभाषिनी अली बनी थी। भाजपा के जगतवीर सिंह ने 1991 में इनको शिकस्त दी। लेकिन कानपुर अपना मेनचेस्टर ऑफ़ ईस्ट का तमगा खो चुका था।

आज भी लोग मानते हैं सरकारी नौकरी से बढ़िया उस समय लोग जेके ग्रुप में प्राइवेट जॉब करना पसंद करते थे। इंश्योरेंस और पेंशन के साथ अपना प्रदेश भी ना छोड़ना पड़े तो क्यों ना कोई ऐसे रोजगार से जुड़ना चाहेगा। बंगाल में इन्हीं धरनाबाजों ने नारा दिया, “दिते होबे दिते होबे, चोलबे ना चोलबे ना”। आज तक बंगाल के श्रमिक बिहार उत्तर प्रदेश होते हुए गुजरात और महाराष्ट्र को पलायन करते हैं।

आज भी लड़ाई वही है। बस लड़ने वाले बदल गए हैं। तरीके बदल गए हैं। परिणाम वही आ रहा है। उद्योग धंधा बंद हो रहा है। 1000 से ऊपर परिवार सीधे-सीधे रोजगार के संकट का शिकार हो गए अदानी ग्रुप के लॉजिस्टिक पार्क बंद होने से। इस उद्योग के गेट पर किसान आंदोलनकारी बैठ जाते थे। कर्मचारी तक को भी अंदर नहीं जाने दे रहे थे। पंद्रह हजार से चार लाख तक का वेतन प्राप्त करने वाले इस उद्योग में कार्य करते थे। सबसे ज्यादा किसान लाभान्वित हो रहे थे इस उद्योग से। जिसे किसान के नाम पर ही एक आंदोलन ने निगल लिया है।

साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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