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विवेकानंद के माँसाहार पर बहस छिड़ी हुई है। विवाद की शुरुआत इस्कॉन के द्वारा अपने एक कथावाचक अमोघ लीला दास को एक माह के लिए निलंबित करने से हुई। इसका कारण बताया गया कि अमोघ लीला दास ने विवेकानंद का अपमान किया है। पर यह अपमान क्या है? अमोघ लीला दास ने बहुत ही तार्किक बातें कही थीं और उन्होंने विवेकानंद की चिंतन-प्रक्रिया में निहित दोषों को उजागर किया था। उन्होंने यह भी कहा कि “एक साधु के रूप में मैं स्वामी विवेकानंद का बहुत आदर करता हूँ और अगर वो अभी यहाँ उपस्थित होते तो मैं उनको दण्डवत प्रणाम करता। किंतु उनकी कुछ बातें स्वीकार्य नहीं हैं। हम अंधा होकर किसी को स्वीकार नहीं कर लेंगे।” प्रश्न यह है कि किसी के विचारों से सहमत नहीं होना उसका अपमान कैसे हो गया? भारत-देश में आजकल यह महामारी बहुत फैल गई है। यहाँ बात-बात पर अपमान हो जाते हैं और आस्थाओं को ठेस लग जाती हैं। तिस पर मैं कहूँगा कि ऐसा कोई भी विचार, व्यक्ति, विभूति या विग्रह नहीं है, जिसकी आलोचना नहीं की जा सकती हो। कोई भी-यानी कि कोई भी- जिसमें ईश्वर, देवता, गुरु, अवतार, मसीहा, साधु, राजा सब सम्मिलित हैं- एक सुचिंतित आलोचना से परे नहीं हो सकता है।
अमोघ लीला दास इस्कॉन का एक बहुत लोकप्रिय युवा चेहरा हैं। वे मॉडर्न शैली में कथावाचन करते हैं। प्रसंगवश, ये वही अमोघ लीला दास हैं, जिनके इस कथन को फ़िल्म ‘आदिपुरुष’ में मनोज मुंतशिर ने उड़ा लिया था कि “तेल किसका, कपड़ा किसका, जली किसकी?” वे इस्कॉन-द्वारका के वाइस-प्रेसिडेंट हैं और बड़ी मीठी शैली में भक्तों से दान-दक्षिणा की माँग करते हैं कि सुदामा-सेवक बनें, हमें लक्ष्मी की आवश्यकता है, भगवान का मंदिर आप नहीं बनाएँगे तो कौन बनाएगा आदि-इत्यादि। विवेकानंद के माँसभक्षण के बारे में उनसे किसी ने प्रश्न पूछा था कि स्वामीजी मछली खाते थे तो क्या वो दिव्य पुरुष नहीं थे? इस पर अमोघ लीला दास ने विवेकानंद के बारे में तीन बातें कहीं, जो विचारणीय हैं।
पहली बात, उन्होंने कहा, क्या कोई सिद्ध पुरुष किसी जानवर को मारकर खा सकता है? नहीं खा सकता है, क्योंकि सिद्ध पुरुष के हृदय में करुणा होती है। दूसरी बात, विवेकानंद कहते थे बैंगन तुलसी से श्रेष्ठ है क्योंकि तुलसी से पेट नहीं भरता, बैंगन से भरता है। इस बात में कोई तुक नहीं है, क्योंकि तुलसी एक तो औषधि है, दूसरे वह उपास्य वस्तु है, वह पेट भरने का साधन नहीं है तो बैंगन से उसकी तुलना क्यों की जावे? तीसरी बात, विवेकानंद का कथन है कि फ़ुटबॉल खेलना गीता पढ़ने से बेहतर है। इसकी भी कोई तुक नहीं है। फ़ुटबॉल खेलने से शरीर मज़बूत बनता है और टीम-भावना आती है तो तीन घंटे फ़ुटबॉल खेलो, फिर आधा घंटा गीता पढ़ लो। दोनों में कोई विरोध नहीं है। पर एक को दूसरे से श्रेष्ठ बताने की क्या तुक है?
अमोघ लीला दास ने क्या ग़लत कहा? उनकी इन तीनों ही बातों से मैं पूर्णतया सहमत हूँ। उन्होंने तार्किक दृष्टि सामने रखी। पर विवाद तुलसी और गीता वाली बात पर नहीं, माँसाहार वाली बात पर हुआ। आश्चर्य है कि एक व्यक्ति बोल रहा है दिव्य पुरुष के हृदय में करुणा होती है और वह जानवर को मारकर नहीं खा सकता, इस पर भी विवाद हो रहा है। इससे अधिक न्यायोचित बात संसार में दूसरी कौन-सी हो सकती है, बंधुवर?
बंगाल में इस्कॉन का बड़ा आधार है और जब बंगालियों ने शोर मचाया कि विवेकानंद का अपमान हो गया तो इस्कॉन ने बेचारे अमोघ लीला दास को एक माह के लिए निलंबित करके न केवल हुड़दंगियों का हौसला बढ़ाया, बल्कि सच बोलने के साहस की भी क्षति की। वो ये भी भूल गए कि स्वयं इस्कॉन के संस्थापक प्रभुपाद अतीत में विवेकानंद पर प्रश्न उठा चुके थे। क्या विवेकानंद आलोचनाओं और असहमतियों से परे जा चुके हैं कि उनकी किसी बात पर प्रश्न नहीं किया जा सकता? वास्तव में विवेकानंद के अनेक ऐसे विचार हैं, जिन पर प्रश्न किया जाना चाहिए। मसलन उनका यह कहना कि वेदान्त मस्तिष्क है और इस्लाम शरीर है, वेदान्ती बुद्धि और इस्लामी शरीर की मदद से ही अराजकता और आपसी संघर्ष से हम बाहर निकल सकेंगे। यह एक और बेतुकी बात है। इस्लामी शरीर क्या होता है और अगर मस्तिष्क वेदान्ती होगा तो क्या शरीर इस्लामी बन सकता है?
विवेकानंद भोजन-रसिक थे, वह तो मैंने अपनी किताब ‘सुनो बकुल’ में वर्णन किया ही है। उस लेख का आधार मणिशंकर मुखर्जी (शंकर) द्वारा विवेकानंद पर लिखी पुस्तक है। किंतु विवेकानंद दुर्दम्य माँसभक्षी भी थे और अपने शिष्यों को भी माँसभक्षण के लिए उकसाते थे। वे मानते थे कि माँस खाने से शरीर बलिष्ठ बनता है (कहीं यही तो वह ‘इस्लामी शरीर’ नहीं है, जिसकी ओर वे संकेत करते थे?)। उस पर मेरा कहना यह है कि हो सकता है, माँसाहार पौष्टिक हो। लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि माँस एक जीवित प्राणी की हत्या करके प्राप्त किया जाता है। माँस-उत्पादन के लिए जीवित प्राणियों के साथ जिस व्यापक पैमाने पर क्रूरता की जाती है, अगर शोषण के उस सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जावे तो मनुष्यजाति का समूचा नैतिक आधार ही ध्वस्त हो जावेगा। तब तो बलिष्ठ को अपने हित में दुर्बल का संहार कर देना चाहिए की नात्सीवादी विचारधारा स्थापित हो जावेगी। यानी माँसभक्षण का प्रश्न भोजन और पोषण का नहीं है, नैतिकता और न्याय का है। यह सम्भव ही नहीं है कि आप नैतिकता और न्याय को ताक पर रखे बिना किसी जीवित प्राणी का क़त्ल कर सकें।
विवेकानंद ने कहा है कि एक समय जो गोमाँस नहीं खाता था, वह श्रेष्ठ हिंदू नहीं माना जाता था। उन्होंने कहा कि ब्राह्मण गोमाँस खाते थे और अतिथि के स्वागत के लिए बछड़े का वध किया जाता था। एक बार उनके एक शिष्य ने पूछा कि महाराज, आजकल धर्म की ओर उन्मुख होने पर लोग माँस-मछली का त्याग कर देते हैं, इसे पाप माना जाता है, यह भाव कहाँ से आया? विवेकानंद ने उत्तर दिया, “यह मत कहाँ से आया, यह जानने से तुम्हें क्या लाभ? परंतु यह मत देश का सर्वनाश कर रहा है। देखो ना, पूर्वबंग के लोग बहुत मछली और माँस खाते हैं, कछुआ खाते हैं, इसलिए पश्चिम बंगाल के लोगों की तुलना में अधिक स्वस्थ हैं। पूर्वबंग के लोग तो अम्ल रोग जानते ही नहीं।” इस पर शिष्य ने कहा, सच में हमारे देश में अम्ल रोग का नाम किसी ने नहीं सुना, हम तो वहाँ दोनों समय माछ-भात खाते थे। इस पर विवेकानंद बोले, “ख़ूब खाया कर, घास-पात खाने वाले पेटरोगी बाबाजी लोगों के दल से देश भर गया है!” अंत में शिष्य ने जिज्ञासा की, परन्तु महाराज, माँस-मछली से तो रजोगुण की वृद्धि होती है। इस पर विवेकानंद बोले, “इस समय देश को प्रबल रजोगुण की ताण्डव-उद्दीपना ही चाहिए। लोगों को माँस-मछली खिलाकर उद्यमशील बनाना होगा!”
विवेकानंद के इन उथले विचारों से भला कौन प्रबुद्ध सहमत हो सकेगा? जब विवेकानंद ऐसा बोल रहे थे, तब वे अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि (क्योंकि बंगाल के बहुसंख्यजन सामिष भोजन करते हैं) के वशीभूत होकर तो वचन कर ही रहे थे, एक सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक संघर्ष उनका बौद्धों, जैनियों और वैष्णवों से भी था, जिसकी वे अभिव्यक्ति कर रहे थे। रजनीश ने कहा है कि विवेकानंद बहुत मेधावी और ऊर्जावान व्यक्ति थे, पर वे समाधि को प्राप्त नहीं हुए थे, सम्बुद्ध और स्थितप्रज्ञ नहीं थे। रामकृष्ण परमहंस ने एक संदेशवाहक की तरह उनका उपयोग किया था। सत्य क्या है, यह तो साधुपुरुष ही जानें, और अलबत्ता बहुत सारी आध्यात्मिक परम्पराओं ने माँस से परहेज़ नहीं किया है- जैसे कि वामाचारी तांत्रिक, जो पंचमकार (मद्य; माँस; मत्स्य; मुद्रा और मैथुन) को त्याज्य नहीं समझते थे और माँसभक्षण को खेचरी मुद्रा से जोड़ते थे- फिर भी एक श्रेष्ठ मानदण्ड यही है कि चेतना की ऊर्ध्वगति के लिए हिंसा का निषेध और जीवदया का अंगीकार अनिवार्य है। यह वो वन्दनीय श्रमण-मूल्य है, जिससे प्रभावित होकर कालान्तर में भारत में जैनियों, बौद्धों, वैष्णवों और ब्राह्मणों में शाकाहार की एक स्वस्थ-परम्परा विकसित हुई। शाकाहार का शारीरिक दुर्बलता और मानसिक शिथिलता से कोई सम्बंध नहीं है। आज संसार के हर क्षेत्र में आपको वैसे लोग मिलेंगे, जो शाकाहारी और वीगन होकर भी सफल हुए हैं और पूर्णतया स्वस्थ हैं। और अगर नहीं भी हों तो नैतिक रूप से तो श्रेष्ठ हैं ही।
विवेकानंद तो क्या, साक्षात् ईश्वर भी आकर कहें कि माँसभक्षण करो तो इस आदेश के उल्लंघन से संकोच नहीं करना चाहिए!
साभार:सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार है)