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आज सबसे खराब दौर में कांग्रेस क्यो है?

-दिवाकर मुक्तिबोध की कलम से-

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Positive India:Diwakar Muktibodh:
बड़ी दिक्कत में है कांग्रेस। 137 साल पुरानी पार्टी और उसका नेतृत्व कभी इतना असहाय, इतना निराश नजर नहीं आया था जितना इन दिनों दिखाई दे रहा है। हालांकि उस दौर में भी पार्टी ने अनेक आंतरिक संकटों का सामना किया था, तरह तरह की चुनौतियां झेलीं थीं, दर्जनों असंतुष्ट बड़े नेता पार्टी छोड़कर चले गए , इनमें से कुछ ने अपनी-अपनी कांग्रेस बना लीं लेकिन कांग्रेस की आत्मा अपने मूल शरीर में कायम रही। अब यही आत्मा मृतप्राय शरीर की दारूण स्थिति देखकर छटपटा रही है और खुद को बेहद असहाय महसूस कर रही है। ऐसी स्थिति में क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भारत को कांग्रेस मुक्त देखने का सपना बहुत जल्दी साकार होने वाला है ? अधिक से अधिक दो वर्ष ? दरअसल आगामी 19 अक्टूबर तक स्पष्ट हो जाएगा कि गांधी परिवार की कमान किस नेता के हाथ में आएगी तथा नया नेतृत्व अगले दो सालों में यानी 2024 के लोकसभा चुनाव में कुछ बेहतर कर पाएगा? या सीटों की संख्या लिहाज से संगठन इतना नीचे आ जाएगा कि बाद के वर्षों में हताशा व अविश्वास की परिणति आंतरिक संघर्ष के रूप में होगी जिसे रोक पाना नामुमकिन होगा और पार्टी खंड-खंड हो जाएगी?

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यकीनन इस विषय पर अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी जिस तरह जी तोड़ प्रयास कर रहे हैं, उसे देखते हुए उम्मीद बंधती है कि देर सबेर कांग्रेस पुनः उठ खड़ी होगी और एक नयी कांग्रेस युवा कांग्रेस सामने आएगी जो पार्टी के बीते वैभव को लौटाएगी। पर जाहिर है इसमें काफी समय लगेगा। हालांकि कांग्रेस संगठन की मौजूदा हालत को देखते हुए अभी तो यही कहा जा सकता है कि कोई चमत्कार ही उसे अपने पैरों पर पुनः मजबूती के साथ खड़ा कर सकता है। फिलहाल किसी चमत्कार की संभावना दिखती नहीं है खासकर ऐसे समय जब गांधी परिवार के नेतृत्व पर कथित वफादारों का विश्वास उठ चुका है और वे उसे चुनौती देने व अवज्ञा करने में हिचक नहीं रहे हैं। ताजा मामला राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का है जो कल तक अध्यक्ष सोनिया गांधी के अत्यंत निकट माने जाते थे पर अब बगावत की कतार में नजर आ रहे हैं। हालांकि राजस्थान के हालिये घटनाक्रम पर खेद व्यक्त करते हुए उन्होंने सोनिया गांधी से माफी मांग ली और इसे सार्वजनिक भी किया है फिर भी उनकी निष्ठा पर प्रश्न चिन्ह तो लग ही गया है। राजनीतिक तौर पर उन्होंने अपना नुकसान भी किया है। अपने कृत्य पर उन्हें खेद होगा और दुराव से उपजी टीस भी।

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बहरहाल कांग्रेस को कांग्रेस ही हराती-पिटती व नीचे गिराती है, यह काफी पुराना जुमला है , राजनीति के गलियारों में बहुचर्चित है और शतप्रतिशत सत्य भी है जिसके दर्जनों उदाहरण हैं। बूढ़े अपनी गद्दियां छोडना नहीं चाहते तथा युवा नेताओं में इतनी ताकत नहीं है कि वे बहुमत जुटाकर उन्हें चलता कर सकें। सचिन पायलट ने दो वर्ष पूर्व भाजपा के प्लेटफार्म पर ऐसी कोशिश की थी पर वे गहलोत समर्थक विधायकों का समर्थन हासिल नहीं कर पाए। उन्हें मुंह की खानी पडी। उनकी साजिश बेनकाब हो गई। बूढ़े गहलोत इसीलिए शेर बने हुए हैं क्योंकि उन्होंने विधायकों की डोर इतनी मजबूती से थाम रखी है कि उसे हिला पाना पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के लिए भी संभव नहीं है। इसीलिए उन्हें कम से कम अगले विधानसभा चुनाव तक बर्दाश्त करना उसकी मजबूरी है। राज्य के चुनाव वर्ष 2023 के अंत में होने हैं।

राजस्थान में जो कुछ हुआ या हो रहा है ,उसके लिए मूलतः केंद्रीय नेतृत्व ही जिम्मेदार है। नेतृत्व इस कदर कमजोर , दिशाहीन व अव्यवहारिक हो गया है कि उसके प्रति आस्था, निष्ठा, वफादारी के तत्व गौण हो गए हैं जिसका किसी जमाने में चुम्बकीय आकर्षण था जो कांग्रेसजनों को पार्टी व एक दूसरे से जोड़ता था, सम्मान करता था। इसी संदर्भ में यह सोचने की बात है कि पार्टी व गांधी परिवार के प्रति घोर निष्ठावान अशोक गहलोत को अप्रत्यक्ष रूप से अपने वफादारों के जरिए हाईकमान के निर्देश की अवहेलना करने की जरूरत क्यों पड़ी ? खासकर ऐसे समय जब पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर हैं और नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है। कायदे से लोकतांत्रिक तरीक़े से होने वाले इस चुनाव के संदर्भ में गांधी परिवार को हस्तक्षेप करने की कतई जरूरत नहीं थीं। नैतिकता कहती है कि पसंदगी व नापसंदगी भी जाहिर करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। चुनाव में जो भी जीतेगा व अंततः सभी को स्वीकार्य होगा , गांधी परिवार को भी। लेकिन यह वर्चस्व का सवाल है, पार्टी को अप्रत्यक्ष रूप से चलाने का सवाल है जो कोई भी नेतृत्व छोडना नहीं चाहेगा। सोनिया गांधी परिवार भी उनमें से एक है। पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष सीताराम केसरी को निचोड़कर राजनीति के कूड़ेदान में फेंकने की घटना को कौन भूल सकता है? इस बार भी यही स्थिति नजर आ रही है। दलित नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष के चुनाव में मैदान में उतार दिया गया है। अशोक गहलोत के बाद वे पारिवारिक वफादारी व पसंदगी में दूसरे क्रम पर है। उनका अध्यक्ष बनना तय है हालांकि जी -23 ग्रुप के शशि थरूर जरूर मैदान में है पर लगता है समय रहते वे अपना नामांकन वापस ले ले लेंगे। यानी खड़गे 19 अक्टूबर को विधिवत निर्विरोध निर्वाचित घोषित किए जाएंगे। पार्टी की कमान उनके हाथ में आ जाएगी पर मर्जी गांधी परिवार की चलेगी। दरअसल अध्यक्ष कोई भी बन जाए लेकिन इस परिवार को पार्टी से कोई अलग नहीं कर सकता। कोई भी नहीं, कतई नहीं।

खैर , अशोक गहलोत घटनाक्रम में केंद्रीय नेतृत्व ने अपनी ऐसी छीछालेदर कर ली जिसके बारे में कल्पना नहीं की जा सकती थी। राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए गांधी परिवार की पहली पसंद रहे अशोक गहलोत राजस्थान की कुर्सी छोडने तैयार नहीं थे। अपने उत्तराधिकारी के रूप में सचिन पायलट उन्हें मंजूर नहीं थे । उनका इच्छा थी उनका कोई खास समर्थक ही उनका पद संभाले। गहलोत की राजनीतिक हैसियत और अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए
उनकी यह मान ली जानी चाहिए थी। क्योंकि यह बात शीशे की तरह साफ है और नेतृत्व भी इसे जानता है कि सचिन पायलट के पास विधायकों का संख्या बल नहीं है। कांग्रेस की आंतरिक राजनीति में किसी दौर की वह बात हवा हो चुकी है जब केंद्रीय नेतृत्व के इशारे पर अल्प समर्थक को मुख्यमंत्री की गद्दी सौंप दी जाती थी। उस दौर में नेतृत्व में इतनी ताकत रहती थी कि कोई विधायक उसकी मर्जी के खिलाफ जा नहीं सकता था। पर अब वह स्थिति नहीं है। नेतृत्व बहुत कमजोर हो चुका है। आंख मूंदकर आदेश मानने का जज्बा खत्म हो चुका है। लिहाजा अशोक गहलोत के मामले में जो किरकिरी होनी थी , वह हुई पर उससे दोहरा नुकसान भी हुआ। एक तो गहलोत के प्रति उसका विश्वास खंडित हुआ, दूसरा एक और असंतुष्ट पैदा हो गया जो परिस्थितिवश किसी भी समय अपनी अलग राह पकड़ सकता है जिसके अनेक उदाहरण हैं। ताजा उदाहरण गुलाम नबी आजाद का है जिन्होंने जम्मू कश्मीर में अपनी राजनीतिक पार्टी बना ली है। गुलाम नबी भी पार्टी के कद्दावर नेता थे और गांधी परिवार के करीबी भी।

अब यह देखा जाना बाकी है कि राजस्थान की फांस किस तरह निकलेगी। इस मामले में केंद्रीय नेतृत्व की भूमिका क्या रहेगी। अशोक गहलोत रहेंगे या जाएंगे। रहेंगे तो किस हैसियत में । मुख्यमंत्री से इतर कोई भूमिका उन्हें स्वीकार्य होगी ? इस गुत्थी को सुलझाना आसान नहीं है। राज्य विधानसभा के चुनाव करीब है। लिहाजा अशोक गहलोत को नाराज करने का खतरा हाई कमान मोल नहीं ले सकता। यानी संभावना पूरी है कि गहलोत ही मुख्यमंत्री का चेहरा होंगे और उन्हीं के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाएगा।

फिर भी यह राजनीति है। कुछ भी अप्रत्याशित हो सकता है।

साभार-दिवाकर मुक्तिबोध-(ये लेखक के अपने विचार है)

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