नववधुएं इतनी निष्कवच क्यों होती हैं? क्या इसलिए कि वे सबसे सुंदर होती हैं?
-सुशोभित की कलम से-
Positive India:Sushobhit:
ऋत्विक घटक की फ़िल्म ‘तिताश एक्टी नोदीर नाम’ में नववधू को नौका से दस्यु अपहृत कर लेते हैं।
वह फ़िल्म देखते समय मुझे लगातार इस बात का खटका लग रहा था कि नववधू के साथ कोई दुर्दैव अवश्य होगा। अनिष्ट के वे संकेत फ़िल्म की संरचना में ही न्यस्त थे। ठीक वैसे ही, जैसे सत्यजित राय की ‘अपुर संसार’ में जब आप पहले-पहल नववधू को देखते हैं तो जान जाते हैं अब कोई विपदा होगी। और ऐसा ही होता है।
नववधुएं इतनी निष्कवच क्यों होती हैं? क्या इसलिए कि वे सबसे सुंदर होती हैं?
जो भी सुंदर होगा, खेत रहेगा, नष्ट हो जायेगा, यह सृष्टि का अकाट्य नियम है। जो भी सुंदर होगा, निष्कवच होगा।
नववधुओं के अदम्य आकर्षण से मैं कभी स्वयं को डिगा नहीं पाता। मेरे पैर उखड़ जाते हैं। मैंने कभी किसी अन्य मनुष्य को इतना कोमल, इतना सुंदर, इतना सशंक, इतना कम्पायमान, इतना निष्कवच नहीं देखा, जैसी वधुएं होती हैं- कामना और विछोह, स्वप्न और संशय, जीवन और मृत्यु को एक साथ जीती हुईं!
कमलेश्वर की एक कहानी है, जिसमें लोक-समाज की सेवा-टहल में स्वयं को खटा देने वाला एक वैरागी अपनी नवविवाहित भौजी को लिवाने जाता है और रेलगाड़ी में उसकी चूड़ियों की आवाज़ सुनकर बेचैन हो जाता है। जीवन के अंतिम क्षण तक उसको वह निष्कवच कर देने स्मृति मथती रहती है। उसका स्वयं का तो कभी परिणय नहीं हो सका था!
मथुरा मोहन नौटंकी कम्पनी की हीराबाई तो पतुरिया है, वधू कहां है? किंतु फणीश्वरनाथ रेणु का हिरामन उसे अपनी बैलगाड़ी में ऐसे ही ले जाता है, जैसे किसी नववधू का गौना कराकर ला रहा हो- “लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया!” गांव-जवार के बच्चे गौने का गीत गाने लगते हैं। हिरामन के मन में कोमल भावना का ज्वार मचल उठता है। हिरामन की स्वयं की दुल्हनिया कहां थी? किंतु उस एक क्षण में वह अपनी कामना के सुदूर क्षितिज को जी लेता है।
कहानी समाप्त होते ना होते हिरामन की वह ‘दुल्हनिया’ भी दुर्दैव की चपेट में आ ही जाती है। उस पर हिरामन का अधिकार-बोध छिन्न-भिन्न हो ही रहता है। इसका कोई विकल्प नहीं।
पुरानी फ़िल्मों में अकसर ऐसे दृश्य आते थे कि डाकुओं ने डोली लूट ली है और नववधू को उठा ले गए हैं। वे प्रसंग विपद् के चरम को लक्ष्य करते थे। कि जिसे तिर्यक दृष्टि से देखना भी पाप हो, उस सुकन्या कुमारिका को डोले से उठा ले जाना?
किंतु जिस वधू का डोला नहीं लूटा गया, वह भी अपने ठिकाने पहुंचते-पहुंचते वेध्य ना हो जावेगी, अवमानित ना होगी, इसको लेकर भी निश्चयपूर्वक कौन कह सकता है?
मुझे एक दूरस्थ संध्या याद आती है।
मैं छोटी लाइन की रेलगाड़ी में बैठा था। एक गांव के आउटर पर लम्बी क्रॉसिंग लगी। मैं खिड़की से बाहर देखने लगा। ग्राम-सीमान्त पर पीपल के नीचे कोई कुलदेवता विराजे थे। देखा- सद्यप्रणयी नवविवाहित वर और वधू आशीष लेने वहां पहुंचे हैं। दूल्हे ने देवता को साष्टांग नमन किया। सकुचाई-सी वधू ने घूंघट के भीतर से ही हाथ जोड़े। गांव की निष्कम्प संध्या में उसकी चूड़ियां गूंज उठीं। मैं चुपचाप खिड़की से देखता रहा।
और एक संध्या- जब विदाई का आर्तनाद एक अन्य गांव के क्षितिज में व्याप गया था। वधू ने लाल जोड़ा पहना था। सिर पर मौर बांधा था। होंठों पर लाली लगाई थी, किंतु घूंघट में उसकी आंखें छुप गई थीं। केवल रुदन सुनाई देता था, अश्रु दिखाई नहीं देते थे!
दूल्हा उसके समक्ष निष्प्रभ हो गया था। हर वर अपनी वधू के समक्ष निष्प्रभ हो जाता है। किंकर्तव्यविमूढ़ और संज्ञाशून्य। चंद्रमा जैसे किसी और के आलोक से दीपता है, वैसे ही वधू की कांति से वर का मुखमंडल शोभायमान होता है। किंतु मण्डप में कभी कोई वर ठीक-ठीक रूप में वधू के अनुकूल मालूम नहीं होता। हो नहीं सकता!
वधुएं निष्कलुष सौंदर्य की निर्भार दीपशिखा की तरह होती हैं। उतनी ही वेध्य और निष्कवच। उतनी ही आकर्षक, हमारे हृदय के शलभ को अपनी ओर खींचतीं।
दोपहर को बासन मांजतीं, आंगन बुहारतीं, कुर्ते पर बटन टांकतीं, यात्रीबस में धक्के खातीं, दफ़्तर की फ़ाइलों में अंक लिखतीं, तरकारियों के लिए सौदा-सुलुफ़ करतीं और बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करतीं जैसी सभी कुमारियां होती हैं, स्त्रियां होती हैं, प्रौढ़ाएं होती हैं, उन्हें ही एक दिन नववधू बनना होता है, वे ही एक बार नववधू बन चुकी होती हैं। किंतु एक निरे मानुषी-बिम्ब के भीतर राग-शोक के काव्य का वह रूपक कैसे सम्भव हो पाता है, मैं समझ नहीं सकता। अनिष्ट की आशंका से अवश्य मेरा कलेजा हर बार कांप उठता है।
नववधुएं इतनी सुंदर क्यों होती हैं?
नववधुएं इतनी निष्कवच क्यों होती हैं?
अपनी प्रेयसी को किसी अन्य की वधू की तरह देखना इतने अवसाद से भर देने वाला क्यूँ होता है?
यह संसार इतना विचित्र क्यों है? यह हृदय इतने घावों से क्यों भरा?
कौन जाने इनके उत्तर जीवन में मिलें या नहीं!
साभार:Sushobhit