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अम्बानी की अति विलासितापूर्ण शादी देखकर मुझे अपने विवाह की याद क्यों आ रही है?

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit-:
अम्बानी की अति विलासितापूर्ण शादी देखकर मुझे अपने विवाह की याद आ रही है। उसे मैंने गांधीवादी शैली में चंद हज़ार रुपयों में सम्पन्न कर लिया था! यही कोई ३० हज़ार का खर्च हुआ होगा!

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ये साल २०१० की बात है और तब मैं एक वेब कम्पनी में नौकरी करता था। इसके लिए मैं उज्जैन से इन्दौर नियमित रूप से यात्रा करता था और रोज़ ४ से ५ घंटे रेलगाड़ी में बिताता था। ८ घंटे की नौकरी थी। ७००० रुपया महीना वेतन था। इतने परिश्रम से कमाए धन को उड़ाने का मेरा कोई इरादा नहीं था। क्योंकि मुझे विवाह अपने ही धन से करना था, मेरे पिता मेरे लिए कोई बड़ी दौलत या जायदाद नहीं छोड़ गए थे।

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मैंने तय किया कि मैं अपनी ओर से कोई प्रीतिभोज नहीं दूंगा, अपनी कमाई से लोगों को खिलाने में मेरी कोई रुचि नहीं! लोग क्या कहेंगे या सोचेंगे, इस भय से मैं सदैव मुक्त रहा हूं। उलटे लोग मेरे बारे में कुछ बुरा कहें या सोचें, इसमें मुझे अधिक आनन्द आता है! स्वर्ण आभूषण को मैं रुपयों की बरबादी समझता हूं क्योंकि वो अत्यन्त महंगे होते हैं और उनकी कोई उपयोगिता नहीं है। एक बार पहने जाने के बाद वो फिर पहने कम ही जाते हैं और उन्हें बेचा भी नहीं जाता, वो घर में पड़े रहते हैं और चोरी हो जाने का भय अलग उत्पन्न करते हैं। मैंने वधू के लिए कृत्रिम स्वर्ण के गहने लेने का निर्णय लिया। सूट मेरा ससुराल वालों ने सिलवा दिया था। शेरवानी मैं किराए पर ले आया। जूते ज़रूर मैंने नए खरीदे। विदाई के लिए एक कार बुक की। विवाह का सबसे बड़ा व्यय बैंड-बाजे का था क्योंकि ससुराल वाले अड़ गए कि बारात लेकर आना ही होगा। तो बहुत मन मारकर उन शोरगुल करने वालों को धन दिया! ऐन विवाह के दिन तक सारी छोटी-मोटी खरीदारी मैंने स्वयं ही की। विवाह के दिन मैंने साधारण हजामत बनवाई और फेशियल से इनकार कर दिया। कहा, मैं २६ बरस का सजीला नौजवान हूं, ऐसे ही खूबसूरत दिखाई देता हूं!

किन्तु विवाह को भी मैंने अपने लिए पुस्तकें प्राप्त करने का अवसर अवश्य बना लिया था! मैंने विवाह से पूर्व अपने सभी मित्रों को बाकायदा फोन करके कहा कि खाली हाथ तो तुम आओगे नहीं, कुछ न कुछ तो लाओगे ही! तो एक काम करो, फलां दुकान पर फलां किताब मिल रही है वह भेंट में ले आओ! उस समय अमेजन, फ्लिपकार्ट आदि नहीं हुआ करते थे। इस तरह विवाह के दिन मुझे कोई एक दर्जन नई पुस्तकें प्राप्त हो गईं और उससे मुझे बड़ी प्रसन्नता मिली। भेंट में मिली वो पुस्तकें मेरे पास आज भी हैं। भेंट में पुस्तकें लेने में मुझे कभी कोई संकोच नहीं रहा!

महात्मा गांधी से मैंने मितव्ययिता का पाठ सीखा है। जीवन बहुत कम साधनों में चल जाता है, बेकार के व्यय की आवश्यकता नहीं है। और दूसरों को दिखाने के लिए किए जाने वाले खर्च की तो हरगिज़ नहीं! जीवन में कुछ करना हो तो दूसरों को महत्त्व देना छोड़ देना चाहिए। महंगे आयोजनों में बहुत संसाधनों की भी बरबादी होती है, विशेषकर भोजन का अपव्यय होता है जो कि महापाप है। संघर्षों से निखरे अपने जीवन में मैंने सदैव किफायती शैली और बचत की नीति अपनाई। यही कारण है कि आज मध्यप्रदेश की राजधानी में ज़मीन खरीदकर एक दोमंजिला भवन बना लिया है। धन का यह ऐसा स्थायी और दीर्घकालीन निवेश है, जिसका फिर भी कोई अर्थ है!

Writer:Sushobhit-(The views expressed solely belong to the writer only)

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