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हमने जिस जया को गंवा दिया है, वो कौन थीं?

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit:
जया सबसे पहले सत्यजित राय की फ़िल्म ‘महानगर’ में दिखाई दी थीं। तब वो तेरह बरस की किशोरी भर थीं। उनके पिता तरुण कुमार भादुड़ी प्रोबाशी बांग्ला समुदाय के थे और सत्यजित को जानते थे। मैंने वह फ़िल्म देखी है। उसमें जया ने अपनी छोटी-सी भूमिका को वैसी ही सहज उत्फुल्लता से निभाया है, जैसा हमने बाद के सालों में ‘गुड्‌डी’ और ‘मिली’ में देखा था। कैमरा जैसे जया के लिए कोई अस्तित्व ही नहीं रखता था। वह उन्हें डराता न था। वह उसके साथ उसी तरह सहज थीं, जैसे संपेरों के बच्चे सांपों को खिलौनों की तरह बरतते हैं। स्क्रीन पर उनके आते ही दृश्य उजला हो जाता था। आप बरबस मुस्करा उठते थे। जया के पास शुरू से ही यह स्क्रीन प्रज़ेंस थी।

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हिंदी फ़िल्मों में जया जब ‘गुड्‌डी’ (1971) के रूप में अवतरित हुईं तो वो ‘महानगर’ की अपनी उस किशोरी छवि से अधिक दूर नहीं थीं। किंतु इसी फ़िल्म की अवधि में वे जैसे किशोरी से युवती बन चली थीं, फ़िल्म का अंत होते-होते वे परिपक्व हो चुकी थीं। “बोले रे पपीहरा” गाने वाली नवयौवना। इकहत्तर के उसी साल ‘उपहार’ भी आई। उन्होंने इस फ़िल्म में वही भूमिका निभाई, जो इसके बांग्ला स्वरूप में ओपर्णा सेन ने निभाई थी। एक बार फिर अल्हड़ किशोरी से परिपक्व परिणीता तक की भूमिका।

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1972 के साल में जया की एक-एक कर ग्यारह फ़िल्में आईं और उनमें से अधिकतर सफल रहीं। कहना ना होगा कि तब जया सहसा हिंदी सिनेमा के परिदृश्य पर छा गई थीं। उन्हें ‘गर्ल नेक्स्ट डोर’ कहकर पुकारा गया। ये वही दिन थे, जब राजेश खन्ना ‘बॉय नेक्स्ट डोर’ कहलाते थे। लड़कियां अगर किसी लड़के को अपनी मम्मी से मिलवाने चाय पर लेकर जाएं तो वो राजेश खन्ना जैसा ही होगा, तब यह कहा जाता। और लड़के अगर अपने मन में किसी चंचल, सजल, किंतु सहसा संजीदा हो जाने वाली लड़की की कल्पना करते, तो उनके ज़ेहन में जया का चेहरा उभरता। ऐसी कल्पनाएं करने वाले युवाओं में तब एक नाम अमिताभ का भी था, जो जया पर मुग्ध हो चुके थे। ‘आनंद’ में राजेश खन्ना के साथ रोल पाकर और ‘गुड्‌डी’ में जया भादुड़ी के साथ कुछ पल बिताकर तब उस लम्बे-पतले नवयुवक ने स्वयं को भाग्यशाली ही समझा था।

जया स्वाभाविक अभिनय की एक ऐसी सम्पदा के साथ फ़िल्मों के परदे पर आई थीं, जो उनसे पहले देखा नहीं गया था। हर स्थापित अभिनेत्री ने लय में आने में कई वर्षों का समय लिया था, पर जया पहले दृश्य से ही सहज थीं। उनके चेहरे पर अद्‌भुत सरलता और ताज़गी थी। वे नाक में नथ पहनतीं और ऐसा मालूम होता जैसे उनकी मुस्कराहट का प्रतिबिम्ब उसमें सितारे की तरह दमक उठता था। यह एक अनूठी मुस्कराहट थी- झेंपभरी होने के बावजूद प्रफुल्लित और आकाश जैसे खुलेपन वाली। जया अकसर एक या दो चोटियां बांधकर परदे पर आतीं। वे लगभग हमेशा एक सादी-सी साड़ी पहनतीं। ‘जवानी दीवानी’ का अपवाद छोड़ दें तो उनके चेहरे पर बहुधा कोई मेकअप नहीं होता। किंतु वे अपने सहज अभिनय से रिझा लेती थीं। ‘बावर्ची’ में जब वो “चाय गरम” की पुकार लगाकर सीढ़ियां चढ़तीं और फिसलनभरे फ़र्श पर रपट जातीं तो हम दिल थाम लेते। वैसी जीवंत और वास्तविक अभिनेत्री हिंदी सिनेमा में पहले नहीं आई थी। उनके प्रति कोमल भावनाएं रखना इतना कठिन नहीं था। वे असम्भव मालूम नहीं होती थीं।

‘बावर्ची’, ‘परिचय’, ‘शोर’, ‘पिया का घर’, ‘कोरा काग़ज़’- एक-एक कर ये सुंदर फ़िल्में उन्होंने कीं। उनका फ़िल्मों का चयन अलहदा और साहसी था। वो यहां मसाला सिनेमा करने नहीं आई थीं। ‘बावर्ची’ में उन्होंने एक नृत्य प्रस्तुति भी दी। निष्णात नृत्यांगना नहीं होने के बावजूद उन्हें विजयी घोषित किया गया और सभी ने इसे सही माना, क्योंकि सभी उन्हें जीतते देखना चाहते थे। ‘परिचय’ में वो “धानी-सी दीदी” की परिकल्पना के रूप में साकार हुईं। ‘अनामिका’ में बर्फ़ के गोले उछालती यह लड़की जब लोगों से इल्तिजा करती कि उसके ‘दिलदार’ को न मारा जाए, तो दर्शकों का कलेजा कोमलता से मचल उठता। वे यह परिभाषित नहीं कर पाते कि इस खिलंदड़ लड़की को उन्हें किस श्रेणी में रखना चाहिए। वह कभी भी आपकी पीठ पर चिकोटी काटकर खिलखिला सकती थीं। अगले ही पल वह साड़ी के पल्लू से आंख पोंछती दिखलाई देती। उनमें ग्लैमर नहीं था, किंतु सादा कपड़ों में भी वह इतनी लुभावनी मालूम होतीं। ‘कोशिश’ में मूक-बधिर होने के बावजूद वे कभी करुणा की पात्र नहीं लगीं। जब भी उन्हें देखा, उन पर प्यार ही आया।

एक उम्दा कलाकार जब परदे पर आता है, तो अपने होने के सभी रहस्यों को बड़ी मिठास से उजागर करता है। दर्शक और सितारे के बीच का नाता उसी मिठास से बनता है। जया ने अपने दर्शकों से वैसा ही नाता बना लिया था।

‘मिली’ में उन्होंने धीरे-धीरे मरती हुई लड़की की भूमिका को जीवन्त कर दिया था। ‘अभिमान’ में एक ऐसी गायिका की, जिसकी श्रेष्ठता ने उसके साथी को हीनताबोध से भर दिया था। जब उनके चेहरे पर अवसाद घिरता तो सहसा वह उम्र से बीस साल अधिक मालूम होने लगतीं। ‘शोले’ में उन्होंने विधवा की भूमिका निभाई। दर्शक असहज होकर देखते रहे। अमिताभ उनके लिए चांदनी रात में माउथ ऑर्गन बजाते और वो कंदीलें जलातीं। फिर सहसा एक फ़्लैशबैक का दृश्य उपस्थित होता और हम जया को संजीव कुमार की बैलगाड़ी के पीछे देहाती लड़कियों की तरह दौड़ते देखते। एक पल में हम अपनी जया को पहचान जाते। और तब इस तसल्ली से भर जाते कि हमने उन्हें अभी तक खोया नहीं था।

लेकिन, आख़िरकार, हमने उन्हें खो ही दिया। नक्षत्र की तरह उभरी यह अभिनेत्री फिर धीरे-से बुझ गई। जैसे राजेश खन्ना एक धूमकेतु की तरह उभरकर बिसर गए थे। इन दोनों के पराभव का निमित्त एक ही व्यक्ति बना, वही जो एक समय में इनकी चमक से सम्मोहित था। किंतु यह कहना पूरी तरह सही नहीं होगा कि अमिताभ ने राजेश खन्ना और जया भादुड़ी के कैरियर का अंत किया। जया और राजेश जिस कोमलता को परदे पर प्रदर्शित करने आए थे, उसकी उम्र ही इतनी थी। उसे अधिक दिन जीवित नहीं रहना था। सुंदरता कभी दीर्घायु नहीं होती!

अभी चंद रोज़ पहले जया बच्चन (भादुड़ी नहीं) भोपाल आई थीं। हमेशा की तरह नाराज़ और उद्विग्न, जैसी वे इन दिनों होती हैं। पिछले दिनों राज्यसभा में उन्हें बोलते सुना। क्या यह वही जया हैं? एकबारगी विश्वास नहीं होता। हमें विश्वास करने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए। समय हमारे भीतर से गुज़रकर हमें खंख कर देता है। एक नाम और चेहरे का तारतम्य ही शेष रह जाता है। आपको क्या लगता है, जो राजेश खन्ना दो हज़ार बारह में मरे, वे वही थे, जो उन्नीस सौ बहत्तर में जीवित थे? क्या आज अमिताभ वही हैं, जो ‘आनंद’ के संवेदनशील नौजवान थे?

जया भी अब वह नहीं हैं। किंतु हमें अधिक का लोभ करना भी नहीं चाहिए। सत्तर के दशक के आरम्भ में कुछ बहुत सुंदर, कोमल, निश्छल फ़िल्में हमारे हिस्से में आई थीं। जया और राजेश खन्ना ने उनके एक बड़े हिस्से को आच्छादित कर लिया था। अगर परदे पर निभाया गया किरदार ही सच होता हो, तो हम कह सकते हैं कि जया और राजेश की जोड़ी सम्पूर्ण थी, और अमिताभ रेखा के लिए बने थे। किंतु परदे पर जो दिखता है, वह पूरा सच नहीं होता। वह एक छलना है। हम छलनाओं के संसार को जानते हैं, वही हमारा सुख भी है। जया ने जब अमिताभ से प्रेम किया और निभाया, तब वे बड़ी सितारा थीं और अमिताभ संघर्ष कर रहे एक नाकाम अभिनेता थे। तब एक जया ही ऐसी अग्रणी अभिनेत्री थीं, जो उनके साथ फ़िल्में करने को राज़ी होती थीं। किसी ने नहीं सोचा था कि कालान्तर में यही अमिताभ इतने सफल होंगे, ऊंचे कद के तो वे थे ही पर उनकी लम्बी परछाई किसी के जीवन का ग्रहण बन जायेगी। अमिताभ से अधिक प्रबुद्ध और प्रतिभाशाली होने के बावजूद जया ने आधी सदी उनकी परछाई में बिताई है, इसे उन पर कोई भी टिप्पणी करते समय याद रखा जाना चाहिए!

लेकिन आज भी जब हम ‘मिली’, ‘कोशिश’, ‘बावर्ची’, ‘परिचय’ जैसी फ़िल्में देखते हैं, तो एक कसक के साथ याद करते हैं कि हमने जिस जया को गंवा दिया है, वो कौन थीं। और फिर अगले ही पल हम हारकर मुस्कराते हैं, कि यही क्या कम है कि फ़रवरी की धूप की तरह मरते इस जीवन में वह सब हमें कुछ पलों के लिए सही, हासिल तो हुआ!

Courtesy:Sushobhit-(The views expressed solely belong to the writer only)

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