क्या पता डिसकवरी आफ़ इंडिया की तरह कभी कोई डिसकवरी आफ़ लतीफ़ा गांधी भी लिखे
-दयानंद पांडेय की कलम से-
Positive India: Dayanand Pandey:
पंडित जवाहरलाल नेहरु ने क्या शानदार किताब लिखी है डिसकवरी आफ़ इंडिया। जिस ने नहीं पढ़ी , उसे खोज कर पढ़ना चाहिए। श्याम बेनेगल ने भारत एक खोज नाम से शानदार सीरियल भी बनाया है , इस किताब के आधार पर। पंडित नेहरु अमीर बाप के बेटे भले थे पर ज़मीन से जुड़े व्यक्ति थे। उन के पितामह चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे ब्रिटिश गवर्नमेंट में। कोई कहता है चपरासी थे , कोई चौकीदार बताता है । लोहिया चपरासी बताते थे । कहते थे , भारत में एक चपरासी का पोता भी प्रधान मंत्री बन सकता है। एक बार किसी ने लोहिया को टोका कि क्यों आप इस तरह नेहरु को बेइज्जत करते रहते हैं। लोहिया बोले , मैं किसी की बेइज्जती नहीं करता यह कह कर। मैं तो भारत के लोकतंत्र की ताकत और खासियत का बखान करता हूं यह कह कर कि एक चपरासी का पोता भी यहां प्रधान मंत्री बन सकता है।
नेहरु के साथ बतौर निजी सचिव रह कर इंदिरा गांधी ने भी ज़मीनी सचाई सीखी और जानी । राजनीति और प्रशासन के गुण सीखे । और नेहरु से भी ज़्यादा ताकतवर और प्रभावी बन कर राजनीति में जानी गईं। वैसे तो बहुतेरी घटनाएं है पर इंदिरा गांधी के साथ की दो घटनाएं यहां गौर तलब हैं । एक बार एक फिल्म समारोह में ख्वाज़ा अहमद अब्बास आए तो नेहरु ने उस समारोह में उन से शाम को अपने घर पर चाय पर बुलाया। अब्बास ने कहा कि मैं अपनी टीम के साथ आया हूं सो अपनी टीम के साथ आना चाहूंगा। नेहरु ने उन से कहा कि ठीक है फिर इंदिरा से बात कर लीजिएगा । इंदिरा उन दिनों नेहरु की निजी सचिव भी थीं। अब्बास उसी समारोह में इंदिरा से मिले और नेहरु द्वारा शाम को चाय पर नेहरु द्वारा बुलाने और खुद टीम के साथ आने की बात बताई। इंदिरा गांधी ने अब्बास से कहा कि अगर आप अकेले चाय पर आ सकते हों तो ज़रूर आएं , पर टीम के साथ नहीं। अब्बास ने कारण जानना चाहा तो इंदिरा गांधी ने उन्हें बताया कि असल में हम घर का खर्च पापा को मिलने वाले रायल्टी से चलाते हैं , सरकारी खर्च पर नहीं। सो सात-आठ लोगों को चाय पिलाने का खर्च नहीं उठा सकते। अब्बास नेहरु के घर चाय पर नहीं गए।
दूसरी घटना 1977 की है। जनता पार्टी जीतने और सरकार बनाने के बाद दिल्ली के रामलीला मैदान में विजय दिवस मना रही थी। मोरार जी देसाई के नेतृत्व में । जयप्रकाश नारायण को भी उस विजय दिवस में बुलाया गया था । लेकिन जयप्रकाश नारायण विजय दिवस की रैली में जाने के बजाय ठीक उसी समय इंदिरा गांधी से मिलने उन के घर गए। बेटी इंदिरा गांधी का हाल-चाल लेने। वह चिंतित थे और इंदिरा से पूछ रहे थे कि अब तुम्हारा कामकाज कैसे चलेगा ? घर का खर्च कैसे चलेगा ? इंदिरा ने बताया कि घर खर्च की चिंता नहीं है , पापू की किताबों की रायल्टी इतनी आ जाती है कि घर खर्च तो आराम से चल जाएगा। चिंता मेरी यह है कि अब मैं करुंगी क्या। टाइम कैसे बीतेगा । जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा से कहा कि तुम फिर से जनता के बीच जाओ। लोगों से मिलो जुलो और मेहनत करो। इंदिरा ने जयप्रकाश नारायण की बात मान ली , वह जयप्रकाश नारायण , जिस ने इंदिरा की सत्ता को उखाड़ फेंका था। और इंदिरा ने जयप्रकाश नारायण की सलाह पर , फिर से जनता के बीच जाना शुरु किया । छ महीने बाद ही आज़मगढ़ का उपचुनाव जीत लिया कांग्रेस की मोहसिना किदवई ने। और ढाई साल में ही इंदिरा गांधी आम चुनाव जीत कर फिर प्रधान मंत्री बन गईं।
लेकिन इंदिरा गांधी ने अपने बच्चों को ज़मीन से जुड़ने पर ध्यान नहीं दिया। मुंह में चांदी का चम्मच ले कर पैदा हुए राजीव गांधी और संजय गांधी गगन विहारी बन गए। राजीव तो शुरू में पायलट बन कर खुश थे। राजनीति में उन की दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन संजय गांधी की राजनीति में न सिर्फ़ दिलचस्पी थी बल्कि एक समय वह सुपर प्राइम मिनिस्टर बन कर उपस्थित थे। मनमानी , बदमिजाजी और अय्याशी के उन के बहुतेरे किस्से हैं। कुछ झूठे , कुछ सच्चे। इंदिरा गांधी को थप्पड़ मारने तक के। यह इमरजेंसी के दिनों की बात है। इमरजेंसी के बीस सूत्रीय कार्यक्रमों के साथ ही संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रमों की बहार के दिन थे। नसबंदी की ज्यादतियों के साथ ही संजय गांधी द्वारा गुड़ बोओ , गन्ना बोओ , पेड़ बोओ के दिन थे । उन के जीवन में अंबिका सोनी , रुखसाना सुल्ताना और मेनका गांधी के दिन थे। 1977 के चुनाव में हार के बाद भी वह नहीं सुधरे । दुबारा सत्ता में लौटने के बाद तो संजय गांधी करेला और नीम चढ़ा बन चले थे। लेकिन एक हवाई दुर्घटना में उन का दुर्भाग्यपूर्ण निधन हो गया। उन की ज़िद , उन की सनक , बदमिजाजी और अय्यासियों की कहानी लेकिन अभी भी शेष है।
इंदिरा गांधी को संभालने और सहारा देने के लिए अब राजीव गांधी पायलट की नौकरी छोड़ कर राजनीति में आ गए। अभी वह राजनीति का ककहरा सीख ही रहे थे कि इंदिरा गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या हो गई। राजीव गांधी बड़ा पेड़ गिरने के बाद धरती हिलाते हुए प्रधान मंत्री बने। हिंदू-सिख दंगे उन्हें उन के धरती हिलाऊ बयान के परिणाम में सौगात में मिले। राजीव गांधी अपने छोटे भाई संजय की तरह बदमिजाज तो नहीं थे पर उन की अय्याशियों और भ्रष्टाचार के बेशुमार किस्से हैं। इतने कि उन दिनों राजीव गांधी के नाम पर उन दिनों नानवेज लतीफ़े भी ख़ूब बने और चले। अरुण सिंह से उन की ख़ास किसिम की दोस्ती और राजीव शुक्ला पर उन की ख़ास मेहरबानियों और राजीव शुक्ला की छप्पर फाड़ सफलता के किस्से तो आज भी सामने हैं। बोफ़ोर्स का दाग़ उन पर बहुत गहरा है। हां , संजय गांधी का गुड़ बोओ , गन्ना बोओ , पेड़ बोओ की विरासत भी राजीव गांधी ने संभाली। किस्से बहुत हैं पर यहां अभी दो ही का ज़िक्र कर रहा हूं।
1989 का चुनाव प्रचार राजीव गांधी ने अयोध्या से शुरू किया। कहा कि यहां एक नैमिषारण जी भी हुए , बहुत बड़े ऋषि थे। अब उन को कोई यह बताने वाला नहीं था कि नैमिषारण सीतापुर में एक जगह है , कोई ऋषि नहीं।
राजीव गांधी की एक अदा थी कि वह आफ़ बीट बहुत होते थे। एक बार राजस्थान दौरे पर थे। सुरक्षा का तामझाम छोड़ कर वह अचानक एक गांव के खलिहान में पहुंच गए। खलिहान में पहुंच कर वह किसानों से बतियाने लगे। खलिहान में दो तरह की मिर्च रखी हुई थी। एक तरफ हरी , दूसरी तरफ लाल। राजीव गांधी ने किसानों से पूछा कि लाल मिर्च के ज़्यादा पैसे मिलते हैं कि हरी मिर्च के ? किसानों ने बताया कि लाल मिर्च के। छूटते ही राजीव गांधी ने पूछा फिर आप लोग हरी मिर्च बोते ही क्यों हो ? लाल मिर्च ही बोया करो। किसान उन्हें समझाते ही रहे कि हरी मिर्च ही बाद में सूख कर लाल मिर्च बनती है। लेकिन राजीव गांधी उन किसानों की कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थे। बस यही रट लगाए रहे कि लाल मिर्च ही बोओ , हरी नहीं। क्यों कि हम चाहते हैं कि आप को ज़्यादा से ज़्यादा लाभ मिले।
राजीव गांधी और संजय गांधी तो मुंह में चांदी का चम्मच ले कर पैदा हुए थे। लेकिन राहुल गांधी मुंह में सोने का चम्मच ले कर पैदा हुए। वह सोने का चम्मच अभी उन के मुंह से निकला नहीं है। बाक़ी सोनिया गांधी के पुत्र मोह ने उन्हें बुरी तरह बिगाड़ दिया। राहुल न सिर्फ़ बदमिजाज , सनकी , बड़बोले बन गए बल्कि नशेड़ी भी बन गए। अमरीका में एक बार स्पेनिश महिला मित्र के साथ हेरोइन के एक पैकेट और एक लाख साठ हज़ार डालर के साथ बोस्टन में लोगन एयरपोर्ट पर पकड़े गए। सोनिया के हाथ-पैर जोड़ने पर उदारमना अटल बिहारी वाजपेयी ने बिना किसी शोर शराबे के किसी तरह राहुल गांधी को अमरीका की एफ बी आई से छुड़वाया। राहुल की ऐसी अय्याशियों की अनगिन कहानियां हैं। उन की विदेश यात्राओं का ज़िक्र कीजिए , लोग समझ जाते हैं कि अय्याशी यात्रा। इस फेर में राहुल गांधी ने अपना जीवन तो नष्ट किया ही , एक शानदार पार्टी कांग्रेस को भी नष्ट कर बैठे। पूरी तरह तबाह कर बैठे कांग्रेस को। आलू की फैक्ट्री लगाने , ट्रक और ट्रैक्टर में पेट्रोल डालने जैसी मूर्खता भरे बयान , चौकीदार चोर है जैसा फर्जी नारा लगा कर कांग्रेस की कब्र खोद बैठे हैं। सर्जिकल स्ट्राइक , एयर स्ट्राइक पर सुबूत मांग-मांग कर कांग्रेस को ताबूत में लिटा चुके हैं। अपने नित नए मूर्खता भरे बयान और अंदाज़ से लतीफ़ा बन कर देश में उपस्थित हैं राहुल गांधी। भारतीय राजनीति में ऐसा विदूषक कोई और नहीं मिल सकता।
एक समय भारतीय राजनीति में राजनारायण भी अपनी बातों से बहुत हंसाते थे । लालू यादव भी अपने हंसाने की बातों के लिए जाने जाते हैं । अटल जी भी कई बार अपनी गंभीर बातों से हंसा-हंसा देते थे। लेकिन राहुल गांधी तो स्वयं लतीफ़ा बन कर उपस्थित हैं। राहुल गांधी का नाम लेने मात्र से लोग हंस पड़ते हैं। ऐसे बुद्धिहीन , निकम्मे और नशेड़ी नेता भारत में राहुल गांधी इकलौते हैं। संसद में सोने वाले , बदजुबानी करने वाले , झूठ बोलने वाले बहुतेरे नेता हैं। लेकिन सोने , भूकंप लाने की बात करने और ज़बरदस्ती गले लिपट कर आंख मारने वाले राहुल गांधी इकलौते हैं। अभी आज चौकीदार चोर है पर राहुल गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में भले अपनी गलती मांग कर माफ़ी मांग ली है लेकिन यह नारा लगाना नहीं छोड़ा है। आज की चुनावी सभाओं में माफ़ी मांगने के बावजूद लगा रहे हैं। चुनावी ज़रूरत और लत दोनों ही की विवशता है उन की यह। वैसे भी अभी उन को अपने लतीफ़ा गांधी होने के प्रमाण के कई और किस्से भारतीय राजनीति को उपलब्ध करवाने हैं। पप्पू गांधी अब शायद बीती हुई बात है। उन की नागरिकता , डिग्री आदि की बातें उन के इस लतीफा गांधी की छवि के आगे पता नहीं लगतीं। लोग भूल जाते हैं। जनेऊ पहन कर दत्तात्रेय गोत्र बता कर इस पारसी व्यक्ति का मंदिर-मंदिर घूमना भी अब लोग लतीफ़े के रुप में ही याद करते हैं। अलग बात है कि मीडिया वाले इसे उन का साफ्ट हिंदुत्व बताते हैं।
संसद में एक और हंसोड़ नेता थे पीलू मोदी। 1950 में उत्तर प्रदेश के गवर्नर रहे होमी मोदी के पुत्र पीलू मोदी भी पारसी थे । मुंबई से थे। इंदिरा गांधी को बातों बातों में लाइन मारने से बाज नहीं आते थे। कहते थे तुम टेम्परेरी पी एम लेकिन मैं परमानेंट पी एम। संसद में एक बार इंदिरा को अख़बार में छपी पहेली सुलझाते हुए उन्हें सार्वजनिक रूप से टोक दिया। स्पीकर से पूछा , क्या पीएम संसद में अखबारी पहेली हल कर सकता है? नीलम संजीव रेड्डी स्पीकर थे और इंदिरा को ऐसा करने से रोक दिया। इंदिरा ने उन्हें स्लिप भेजी , तुम को कैसे पता चला ? – पी एम । पीलू ने उन्हें स्लिप भेजी , मेरे जासूस हर तरफ हैं – पी एम । प्रेस गैलरी में बैठे एक पत्रकार ने उन्हें इशारे से यह बताया था। पीलू मोदी राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी से गोधरा से सांसद थे। बाद में चौधरी चरण सिंह की पार्टी में आ गए। इमरजेंसी में जेल भी गए। जनता पार्टी का उन को अध्यक्ष बनाने की बात भी हुई थी। पर उन की शराब बीच में आ गई और चंद्रशेखर अध्यक्ष बने। अलग बात है चंद्रशेखर भी शराब पीते थे पर पीलू बदनाम थे। 1978 में राज्यसभा में आए ।
खैर , पीलू मोदी से नाराज हो कर एक बार इंदिरा गांधी ने उन पर सी आई एजेंट होने का आरोप लगा दिया । इंदिरा गांधी की उन दिनों आदत थी कि अपने हर फेल्योर पर वह विदेशी हाथ खोजते हुए सी आई ए तक पहुंच जाती थीं । कहती थीं , सी आई ए का हाथ है । तो पीलू मोदी इंदिरा गांधी के आरोप से आहत हो कर अपने गले में , आई एम सी आई ए एजेंट , की तख्ती गले में लटका कर संसद के सेट्रल हाल में पहुंच गए । इंदिरा गांधी का मुंह अपने आप बंद हो गया। लेकिन इंदिरा गांधी को क्या पता था कि एक समय उन का ही अपना पोता राहुल गांधी भरी संसद में कहेगा कि हां , मैं पप्पू हूं ! अगर ख़ुदा न खास्ता राहुल गांधी इस बार लोकसभा फिर पहुंच गए , [ पूरी उम्मीद है पहुंचने की ] तो तय मानिए अभी तो एक आंख मारी थी , अगली बार दोनों आंख मार कर बताएंगे कि हां , मैं लतीफ़ा गांधी हूं !
और लोग हंसेंगे। लेकिन राहुल गांधी के चमचों की फ़ौज , इस बात पर ताली बजा कर झूम-झूम जाएगी ।
क्या पता जैसे कभी नेहरु ने डिसकवरी आफ़ इंडिया लिखी थी वैसे ही कभी कोई डिसकवरी आफ़ लतीफ़ा गांधी भी लिखे। कौन जाने राहुल गांधी ख़ुद लिखें। अपने परनाना नेहरु की पुस्तक लेखन की विरासत संभालते हुए। अगर ईमानदारी से लिखेंगे तो डिसकवरी आफ़ इंडिया की तरह बेस्ट सेलर भी बनेगी उन की यह किताब ।फ़िलहाल तो चुनाव के चक्कर में ही सही , अपने परनाना का गोत्र दत्तात्रेय संभाले हुए हैं।
साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)