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आज लखनऊ में तुलसीदास कृत रामचरितमानस को जलाए जाने की एक क्षोभ कारी घटना हुई है। तो उस संदर्भ में बताना है कि मेरे निजी संग्रह में गोस्वामी तुलसीदास विरचित रामचरितमानस हैं के तीस से अधिक संस्करण हैं। जिनमें काशिराज संस्करण, अखिल भारतीय विक्रम परिषद संस्करण, इंडियन प्रेस की भट्ट जी वाली टिका, भुवनवाणी लखनऊ वाली प्रति के साथ पंडित रामनरेश त्रिपाठी वाली टिकाएं मुझे बेहद पसंद हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ.माता प्रसाद गुप्त और श्याम सुंदर दास के साथ पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के संपादन वाले पाठ साहित्य के विद्यार्थियों के लिए रुचिकर हैं। श्रीकृष्ण व्यंकेश्वर प्रेस मुंबई के साथ घनश्याम दास बिड़ला द्वारा प्रकाशित संस्करण संग्रहणीय हैं।
कम लोगों को ज्ञात है कि गीता प्रेस वाला पाठ हिंदी के महान आलोचक आचार्य नंद दुलारे बाजपेई द्वारा संपादित है। उसके 1938 के पहले संस्करण में सह संपादक चिम्मन लाल जी हैं। आगे नंद दुलारे बाजपेई जी का नाम संपादक के रूप में पता नहीं क्यों हटा दिया गया?
पता नहीं गीता प्रेस के पाठ संशोधन की वह संपादकीय आदरणीय विजय बहादुर सिंह जी ने नंद दुलारे रचनावली में संकलित की है या नहीं? खैर
मेरे पास रामचरितमानस के ये सारे संस्करण हैं, इनके अलावा अन्य कई और हैं। अन्य भाषाओं में भी हैं। जैसे कि यह ओड़िया संस्करण भी है।
तो आज वहां मानस का कौन वाला संस्करण जलाया गया? क्या आने वाले दिनों में ये सभी संस्करण जलाए जाएंगे?
क्या मेरे घर से निकाल कर जलाया जाएगा रामचरितमानस को? कब आयेंगे लोग मेरे घर से ये सारे संस्करण छीनने, जलाने! कुछ तय हो तो बताना भाई लोग! मैं दे दूंगा। अगर जलाने से उद्देश्य पूरा हो जाए तो?
यह ध्यान रहे कि गोडसेवाद यही है, जिससे असहमत हों उसे खत्म कर दो। उसका नाम मिटा दो, उसे जला दो! फिर रामचरितमानस जलाने वालों और मुगल गार्डन का नाम बदलने वालों और महात्मा गांधी की हत्या करने और मिठाई बांटने वालों में अंतर क्या है?
यह वैचारिक युद्ध नहीं पाखंड है! ढोंग है, नफरत का नया एजेंडा सेट करना है!
जलाने वाले, मारने वाले, लिंचिंग करने वाले, बुलडोजर वाले ये सब एक ही हैं, इनकी शक्लें अलग हों तो क्या इनके उद्देश्य एक हैं, कार्य का तरीका भी तो एक है! लेकिन जलाने से विचार नहीं जलते, वह घृणा का विचार हो या प्रेम का!
साभार:बोधिसत्व-(ये लेखक के अपने विचार है)