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भागवत में नहीं। महाभारत-हरिवंश में नहीं। ब्रह्मवैवर्त का तो प्रश्न ही नहीं उठता। श्रीकृष्ण का सबसे पहले नामोल्लेख हुआ है- छान्दोग्योपनिषद् में!
वेदों में मुख्यतया इन्द्र, अग्नि, मरुत्, पूषा, रुद्र, आदित्य, सोम आदि की उपासना की गई है। कालान्तर में हिन्दू धर्म में उपास्य हुए राम, कृष्ण, हनुमान, गणेश आदि वेदों में आराध्य नहीं हैं। छान्दोग्य में भी श्रीकृष्ण का एक ही बार नामोल्लेख हुआ है। वह भी इतना गौण है कि अगर आप इस दीर्घकाय-उपनिषद् को बहुत ध्यान से न पढ़ें तो बड़ी आसानी से चूक सकते हैं।
8 अध्यायों, 154 खण्डों और 629 मंत्रों वाले छान्दोग्य में आठ ही मंत्र श्रीकृष्ण को सम्बोधित हैं, स्वयं श्रीकृष्ण ने एक शब्द इसमें नहीं कहा है!
छान्दोग्य के तीसरे अध्याय (प्रपाठक) के सत्रहवें खण्ड में ‘देवकीपुत्र कृष्ण’ को ऋषि घोर-आंगिरस पुरुष-यज्ञ का उपदेश देते हैं, जो अत्यंत गूढ़ है। दीक्षा, उपसद, दक्षिणा, अवभृथ आदि का भेद बतलाते हुए घोर-आंगिरस कृष्ण से कहते हैं कि वह जो भोजन तो करना चाहता है, जल भी ग्रहण करना चाहता है, किंतु इसमें रमण नहीं करता, उसका जीवन दीक्षा का जीवन है (“यन्न रमते ता अस्य दीक्षा:”)। जो रमण करता है, उसका जीवन उपसद का जीवन है। वह जो जनसामान्य के द्वारा प्रशंसित भोगों में डूबा रहता है, उसका जीवन स्तुत-शस्त्र का जीवन है। वह जो तप, दान, आर्जव (ऋजुता), अहिंसा, सत्य का जीवन बिताता है, उसका जीवन दक्षिणा का जीवन है।
इसके बाद घोर-आंगिरस कृष्ण से तीन वाक्यों का उच्चार करने को कहते हैं (“तद्धैतद् घोर आंगिरस: कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाचा-“) :
1. अक्षितम् असि (तू अविनाशी है!)
2. अच्युतम् असि (तू नित्य है!)
3. प्राण-संशितम् असि (तू प्राणों से भी सूक्ष्म है!)
और अंत में उनसे एक ऋचा कहते हैं :
“आदित्प्रत्नस्य रेतसो ज्योतिष्पश्यन्ति वासरम्, परो यदिध्यते दिवा”- द्युलोक से परे जो ज्योति प्रदीप्त है, उपासक उसी का दर्शन करते हैं!
कहते हैं घोर-आंगिरस ने श्रीकृष्ण को अविनाशी और नित्य तत्त्व का जो बोध कराया है और “यन्न रमते” कहकर अनासक्ति का जो उपदेश दिया है- उसी के आधार पर कालान्तर में श्रीकृष्ण ने गीता के वचन कहे। क्योंकि सबसे प्राचीन उपनिषदों में से एक छान्दोग्य का रचनाकाल गीता से बहुत पूर्व का है।
वेदान्त की प्रस्थानत्रयी में गीता को यों ही ‘गीतोपनिषद्’ नहीं कहते हैं। उसका बीज छान्दोग्य में है!
और श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने भी अकारण ही ‘वेदानां सामवेदोऽस्मि’ (“मैं वेदों में सामवेद हूँ!”) नहीं कहा था। क्योंकि छान्दोग्य सामवेद का ही उपनिषद् है!
गीता में गीत है।
छान्दोग्य में छन्द।
और सामवेद में सामगान!
सनातन परम्परा में अनुस्यूत श्रीकृष्णतत्त्व का यह छन्दबद्ध तारतम्य देखते हैं?
साभार: सुशोभित -(ये लेखक के अपने विचार हैं)