हमारे समाज के लेखक का कबीर आख़िर कहां गुम हो गया है ?
-दयानंद पांडेय की कलम से-
Positive India:Dayanand Pandey:
फेसबुक पर तमाम लेखक लोग सेक्यूलर होने का चोंगा ओढ़ कर बैठे हैं । लेकिन सच यह है कि इन में एक भी सेक्यूलर नहीं हैं । यह अपने को सेक्यूलर कहने वाले सभी लेखक एकपक्षीय हैं । एजेंडा चलाने वाले सेक्यूलर हैं । सच तो यह है कि कबीर के बाद कोई लेखक सेक्यूलर नहीं हुआ । तमाम आदरणीय लेखक भी सेक्यूलर नहीं रह गए हैं । कबीर जैसे तो कतई नहीं हैं । क्या सांप्रदायिकता इतनी इकहरी होती है ? जैसा कि यह लेखकगण जता और बता रहे हैं । बिलकुल नहीं । सांप्रदायिकता बहुरंगी होती है । दोतरफा होती है । क्रिया के बराबर विपरीत प्रतिक्रिया की तरह । इकतरफा नहीं होती कोई भी सांप्रदायिकता । लेकिन तमाम सेक्यूलर लेखकों को सांप्रदायिकता सिर्फ़ सावरकर जैसे हिंदूवादियों में दिखती है । लीगियों में नहीं । मिशनरियों में नहीं । सो हर बात का जवाब यह लोग सिर्फ़ संघी , भाजपाई आदि शब्दों में खोजते हैं । खोजते क्या हैं , जैसे इन शब्दों को वह गाली का पर्यायवाची बना बैठे हैं । हिंदू , मुस्लिम सौहार्द्र पर असग़र वजाहत ने क्या तो खूबसूरत नाटक लिखा है , जिन लाहौर नई देख्या । लेकिन फेसबुक पर उन का यह लाहौर कहीं गुम हो गया है । उन का कबीर गायब हो गया है । इसी लिए असग़र वजाहत जैसे तमाम आदरणीय लेखकों को जब एकतरफा बात करने के लिए सामान्य लोगों की गालियां और भद्दी बातें सुनता-पढ़ता हूं तो तकलीफ़ होती है । लेकिन इन की एकपक्षीय बातें पढ़ कर भी तकलीफ़ होती है ।
किन-किन का नाम लूं यहां । बहुत से लोग हैं जिन्हों ने निरंतर एकपक्षीय बात कर के अपने लिए अपना लेखकीय आदर नष्ट कर लिया है । इन तमाम लेखकों की वाल पर जा कर देख लीजिए कि यह लोग कभी भी मिशनरी फंडिंग से चल रहे जहर की खेती पर नहीं बोलते । जिन दिनों जिन्ना का मौसम था तो यह लोग या तो जिन्ना पर ख़ामोश थे या फिर जिन्ना को बंटवारे का दोषी बता कर किनारे हो गए । जिन्ना की फ़ोटो रहे न रहे , इस पर ख़ामोश रहे । ओवैसी जैसों के ख़िलाफ़ भी यह लोग ख़ामोश हैं । अफजल गुरु , कश्मीर , पत्थरबाजी आदि पर भी ख़ामोश रहे । सेना को बलात्कारी बताने वालों के साथ खड़े दीखते हैं । जे एन यू में भारत तेरे टुकड़े होंगे , इंशा अल्ला नारे को डाक्टरड बता कर निकल जाएंगे। तबलीगी जमात की अति , डाक्टरों , पुलिस पर पथराव , नर्सों के साथ अश्लील हरकतों पर भी यह लोग चुप ही रहे। भाकपा महासचिव डी राजा ने बड़ी बेशर्मी से ऐन हिंदी दिवस के दिन हिंदी को हिंदुत्व की भाषा बता दिया। अपने को सेक्यूलर कहने वाले किसी हिंदी लेखक के लब खुले क्या इस पर। तो क्या मान लिया जाए कि सारे हिंदी लेखक हिंदुत्ववादी हैं ? बाकी संघी , भाजपाई आदि की एकतरफा गाली तो है ही तरकश में ।
तो क्या बहुतायत देशवासी भाजपाई और संघी हो गए हैं ? हो गए हैं तो क्यों हो गए हैं ? इन लेखकों को क्या इस पर विचार नहीं करना चाहिए । जैसा कि हर असहमत को इन के द्वारा भाजपाई , संघी कहने से लगता भी है कि यह भाजपाई , संघी होना अपराध है । और यह लोग इन शब्दों का इस्तेमाल ठीक उसी तरह करते हैं जैसे भाजपाई अपने से असहमत को सीधे पाकिस्तान भेज देते हैं । तो लेखकों और भाजपाइयों में फर्क क्या रह गया है ? हमारे लेखकों में कबीर की सी सलाहियत क्यों नहीं है । क्यों इतना एकपक्षीय हो गए हैं हमारे लेखक । क्या लेखकों को राजनीतिक पार्टियों की तरह एजेंडा चलाना चाहिए । वंदे मातरम से इतना भड़कना लेखकों का काम है । लोकसभा और राज्यसभा सहित विभिन्न विधानसभाओं में वंदेमातरम का गायन शुरू करने वाली कांग्रेस भी क्या भाजपाई थी तब के दिनों । भारत माता की जय बोलने का विरोध करना सेक्यूलर होना है । गाय का मांस खाने की पैरवी करना लेखकों का काम है । तब जब कि आप को मालूम है कि एक वर्ग की गाय पर आस्था है । भाजपा विरोध के बस यही सारे तरीके रह गए हैं । आप का सारा लेखन मनुष्यता के पक्ष में होने के बजाय सिर्फ़ भाजपा , संघी की गालियों में ही खर्च क्यों हो रहा है । राजनीति के आगे चलने वाली मशाल इतनी संकुचित और एकपक्षीय क्यों हो गई है । एकपक्षीय बात कर , एजेंडे पर चल कर सिर्फ़ अपने पाठकों की गालियां सुनने के लिए । बाहर वामपंथ का झंडा ले कर चलना , नारे लगाना , भाषण देना , फिर घर में पूजा करना , आरती और भजन गाना और बात है । वैसे ही सेक्यूलर होना और सेक्यूलरिज्म की दुकान चलाना और बात है ।
हमारे आदरणीय लेखकों का काम समाज को दिशा दिखाने का है । राजनीति की गोद में बैठ कर अपने पाठकों की गालियां सुनने का नहीं । राजनीति की गोद में बैठ कर एजेंडा चलाने का चालू काम आप से बहुत बेहतर ज़्यादा बेहतर ढंग से मीडिया कर रही है । आप जानते ही होंगे कि मीडिया को हमारा समाज अब दलाल नाम से जानता है । क्या आप लोग चाहते हैं कि आने वाले दिनों में मीडिया की तरह लेखक समाज को भी दलाल कह कर , जाना जाए । माफ़ कीजिए हमारे आदरणीय लेखक मित्रों आज के दिन , आज की तारीख में यह दस्तक हो चुकी है । आप की एकपक्षीय बातों , नजरिए और एजेंडे की भेड़चाल ने समय की दीवार पर यह इबारत लिख दी है । आप अपनी झोंक , ज़िद , सनक और पूर्वाग्रह में यह इबारत नहीं पढ़ पा रहे हैं तो यह गलती आप की है , समय की नहीं । आप नामवर सिंह के उस कहे की याद कीजिए कि हमारा ईश्वर कोई कमज़ोर थोड़े है । नामवर के इस कहे में लोगों ने उन का अपराध खोज लिया । इस से उपजे विवाद और उस पर हुई सतही बहस से उपजे तहस नहस में अब लेखक समाज को अपने आप को खोजना शेष है कि वह है कहां । माई गाड में , या ख़ुदा में या भगवान में या इस से उपजी बहस के तहस नहस में । तो फैज़ जब लिख रहे थे , बस नाम रहेगा अल्लाह का। तब लोग चुप क्यों थे। आज भी इस बिंदु पर चुप हैं। तो फैज़ सेक्यूलर थे और नामवर सांप्रदायिक हो गए। अदभुत ! हमारे समाज के लेखक का कबीर आख़िर कहां गुम हो गया है । कि किसी एकपक्षीय एजेंडे में घायल हो कर किसी गुफा में कैद हो गया है ।
दिक्कत यही है कि हमारे लेखकों ने अपने कबीर को सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की तरह अपने लालच , स्वार्थ और दंभ में मार डाला है । कबीर को मार कर अपने को नफ़रत और जहर का केंद्र बना लिया है । ज़रुरत अपने कबीर को जिंदा कर लेने की है , जगा लेने की है । लेखक हिंदू , मुसलमान नहीं होता । लेखक किसी समुदाय या किसी पार्टी का प्रवक्ता नहीं होता । लेखक वामपंथी और भाजपायी नहीं होता । लेखक मनुष्यता का पैरोकार होता है । वंचितों और शोषितों का पैरोकार होता है । लेकिन यह जो पोलिटिकली करेक्ट होने की चौहद्दी बना ली गई है न , यह लेखक को सिर्फ़ गाली दिलवा रही है । किताबों के पन्नों पर , सेमिनारों में आप अपना गाल और ढपली बजाने के लिए स्वतंत्र हैं । क्यों कि वहां आप लिखते हैं , आप ही पढ़ते हैं । आप ही बोलते हैं और आप ही सुनते हैं । तो कोई कुछ नहीं कहता । या लिहाज कर जाता है । लेकिन सोचिए फेसबुक तो चौराहा है । लोकतांत्रिक प्लेटफार्म है । हर तरह के लोग हैं यहां । तो फेसबुक के पन्नों पर आप को इंतनी बहुतायत में गाली क्यों मिल रही है , यह सोचना चाहिए । और अपने को करेक्ट करना चाहिए । आप चाहें तो फेसबुक को भी या फिर फेसबुक पर उपस्थित लोगों को फासिस्ट कह कर निकलने की तरकीब निकाल लें तो बात और है । यह आप पर मुन:सर है । पर लेखक मित्रों को एक बार मुड़ कर अपने को दर्पण में देखना ज़रूर चाहिए । इस लिए भी कि पूरा देश हिंदूवादी नहीं है । कभी नहीं हो सकता । अब आप यह कह कर शुतुरमुर्ग न बन जाईएगा कि फेसबुक पर अधिकांश हिंदूवादी हैं । फेसबुक पर या बाहर समाज में भी हर असहमत को हिंदूवादी , संघी , भाजपाई कह कर अनफ्रेंड करना या ब्लाक कर देना भी विकल्प या समाधान नहीं है । समाधान है , सब को जागरूक करना , शिक्षित और सावधान करना । समाज तभी बदलेगा । राजनीति के आगे चलने वाली साहित्य की मशाल जलनी चाहिए । बुझी-बुझी और गाली सुनती हुई नहीं दिखनी चाहिए ।
साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)