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जब बंट गया था देश !

-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

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Positive India: Sarvesh Kumar Tiwari:
जब बंट गया था देश!
वे अपनी जान बचाने के लिए भागे। जैसे दस खुंखार कुत्ते मिल कर किसी बिल्ली के बच्चे को चीर-फाड़ देते हैं, वैसे ही उनकी बच्चियों को चीर फाड़ रहे थे वे! वे अपने बचे हुए बच्चों को बचाने के लिए भागे! अपने सामने अपने बच्चों को नोंचे जाते देखना कितना पीड़ादायक होगा, समझ रहे हैं आप? वे उस पीड़ा को झेलने के बाद भागे, वह पीड़ा दुबारा न झेलना पड़े इसलिए भी भागे।

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वे एक दो या हजार पाँच सौ नहीं थे, वे करोड़ों में थे। पाकिस्तान से भारत की ओर आती हर सड़क महीनों तक भरी रही। लोग भागते रहे।
वे मुड़ मुड़ कर देखते रहे पीछे! उनका गाँव छूट रहा था। उनका घर छूट रहा था। उनके जीवन की मधुर स्मृतियां छूट रही थीं। शमशान में सोए उनके पुरखे-पुरनिया छूट रहे थे। उनके बंगलें, उनके खेत, उनकी सम्पत्ति छूट रही थी। वे जब मुड़ कर देखते, फफक पड़ते थे। फिर आंखें पोंछते हुए और तेजी से भागने लगते थे।

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वे अपनी समूची सम्पत्ति को छोड़ कर भाग रहे थे, फिर भी उनके पीछे हजारों की भीड़ पड़ी थी। नारे लगाती हुई एक भीड़ आती और सैकड़ों को काटती, नोचती, लुटती चली जाती। धरती लाल हो जाती और मुर्दा शांति पसर जाती थी।
मारने वाले गैर नहीं थे, उन्ही के पड़ोसी थे। वे एक दूसरे के त्योहारों में शामिल होते थे, एक दूसरे की मदद करते थे, एक साथ खाते पीते थे। भागती लड़कियां मरने से पहले एक बार यह सोच कर मर जाती थीं कि जो युवक उनका दुपट्टा खींच रहा है, उसे पिछले ही सावन में उसने राखी बांधी थी। वह पहले दुपट्टा खींचता, फिर हाथ, फिर टांग…

भागते लोग सोच रहे थे, दो साल पहले जिसकी बारात में नाच रहे थे, वही गरदन पर तलवार मार रहा था। जिसे अपनी जमीन दे कर बसाया था वही घर में आग लगा रहा था। जिसकी लुगाई हर साल बच्चे की होनिहारी पर मतवा से साड़ी मांग कर ले जाती थी, वही मतवा की साड़ी खींच रहा था।
सब तो नहीं, पर इस भीड़ में अधिकांश ऐसे थे जिन्होंने निकलते समय अपने घरों में लाहौरी ताला मारने के बाद खींच कर उसकी मजबूती जांची थी। उन्हें यह उम्मीद थी कि कुछ दिनों बाद जब बवाल ठंढा हो जाएगा, वे लौटेंगे। वे फिर आएंगे लाहौर की गलियों में, वे फिर तैरेंगे रावी दरिया में! वे फिर टेकेंगे हिंगलाज माता के दरबार में मत्था! वे फिर उड़ाएंगे पतंग! वे भरम में थे। वे कभी न लौट सके…

कुछ भागने के पहले मारे गए। कुछ रास्ते में मारे गए। कुछ ट्रेन के डब्बों में मारे गए। कुछ चलते चलते गिर पड़े और मर गए। कुछ भूख से मरे, कुछ प्यास से, कुछ धूप से, कुछ बरसात से…

वह उन्नीस सौ सैंतालीस था। वे हिन्दू थे। कुछ बाभन, कुछ दलित, कुछ जादो, कुछ जाट, कुछ सिक्ख, कुछ बौद्ध, कुछ जैन… कुछ लाहौर के, कुछ पिंडी के, कुछ पेशावर के… सिंध के, गुजरात के, बलूचिस्तान के…

मैंने सुना है, भाग कर भारत पहुँचे लोग मरने के दिन तक अपने बच्चों से कहते थे, मत भूलना उस दिन को! मत भूलना! कभी मत भूलना!

साभार:सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार हैं)
गोपालगंज, बिहार।

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