Positive India:Dayanand Pandey:
आप चाहे जो कहिए, जो मानिए पर फर्क तो पड़ा है। बहुत बड़ा फर्क पड़ा है। एकतरफा विमर्श अब टूट चुका है। चुनी हुई चुप्पियों और चुने हुए विरोध की हवा निकल चुकी है। और तो और कोई भी उपद्रव , आगजनी जहां एक बार हो जाती है, फिर दुबारा नहीं होती। 99 प्रतिशत जगहों पर तो दूसरे दिन से ही सब कुछ थम जाता है। सारा उपद्रव, सारी आग एक दिन में ही बुझ जाती है। देश के हर हिस्से की सूरत यही है। उपद्रवियों को अब से सही जान लेना चाहिए कि कैंसर बन चुके आतंक की आग में बरसों से दहकते कश्मीर की हिंसा को जो सरकार स्वाहा कर सकती है, पत्थरबाजों को थाम सकती है, उस सरकार के लिए देश के बाक़ी उपद्रव क्या बला हैं भला। आप करते रहे अला-पला।
इतना ही नहीं निरंतर डरने वाले आमिर खान , शाहरुख़ खान,नसीरुद्दीन शाह भी अप्रत्याशित रूप से इस बार के उपद्रव में खामोश हैं। जानते हैं क्यों ? एक डर की नौटंकी ने इन लोगों का बॉक्स आफिस छीन लिया है। आर्थिक कमर तोड़ दी है जनता जनार्दन ने इन की। सो अब खामोश हैं। मुसलसल खामोश हैं।
आप अपनी बौद्धिक जुगाली में बना दीजिए राष्टवाद को गाली। उड़ा लीजिए भारत माता की जय का मजाक, बता दीजिए वंदे मातरम को सांप्रदायिक , गाय- गोबर का तंज भी। पर जनता तो सब कुछ समझती है। लेकिन क्यों नहीं बोल रहे पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी भी। यह भी कम नहीं है। महेश भट्ट की जुगलबंदी के साथ हैदर जैसी प्रो आतंकी फिल्म बनाने वाले विशाल भारद्वाज, मुल्क जैसी आतंक परस्त फिल्म बनाने वाले अनुभव सिनहा और सिर्फ और सिर्फ हिंसा परोसने वाले अनुराग कश्यप की खीझ पर मत जाइए। यह सब अब डूबती नाव और बुझते दिए हैं। एक ख़ास फंडिंग और ख़ास मकसद से फ़िल्म बनाने वाले लोग हैं। तो भी दिलचस्प ही रहा दीपिका पादुकोण का आज कन्हैया के मजमे में जे एन यू पांच मिनट के लिए सही छपाक से पहुंच जाना। अब देखना दिलचस्प होगा कि बॉक्स आफिस पर दीपिका पादुकोण की छपाक का क्या होता है। आज़ादी का गीत गाती है या बॉक्स आफिस का।
दीपिका जैसे लोगों को जान लेना चाहिए कि जनमत आग की नदी है। जनमत से आज तक न कोई सत्ता लड़ सकी है और न कोई बाज़ार। और बॉक्स आफिस, निठल्ले नारों और तरानों से नहीं , जनता की गाढ़ी कमाई से चलता है। बड़े-बड़े सिद्धू जैसे बड़बोले इस जनमत के आग की नदी में स्वाहा हो जाते हैं। कहां हैं आज इमरान खान के दोस्त सिद्धू ? ननकाना साहब की घटना पर अपने शांति दूत इमरान को एक संदेश ही भेज दिया होता। पर सांस नहीं ली। तो जनता जानती है कि सच क्या है और झूठ क्या है। पसंद और नापसंद चुपचाप बता देती है। बिकाऊ मीडिया रिपोर्ट के स्वांग और चीख़-चिल्लाहट में नहीं फंसती। इस पूरे मामले में लेकिन जैसी फ़ज़ीहत फैज़ अहमद फैज़ और उन की नज़्म हम देखेंगे की हुई है कि मत पूछिए। पूरा विमर्श ही बदल गया।
रही बात स्वरा भास्कर , सदफ़ आदि का तो यह लोग वैसे भी मुंबई में निठल्ले हैं। बॉक्स आफिस से नहीं, विवाद से ही यह नाम चर्चा में रहने के आदी हैं।
लेखक:दयानंद पांडेय-एफबी(ये लेखक के अपने विचार हैं)