Positive India:दयानंद पांडेय:
अच्छा अगर भारत के पास आज की तारीख़ में राफेल न होता तब ? क्या चीन इसी तरह खुद अपने बंकर तोड़ कर अपने टैंक और सेनाएं वापस ले जाता ? बल्कि पहला सवाल यह कि कांग्रेस एण्ड कम्युनिस्ट कंपनी राफेल की डील किसी तरह रद्द करवा ले गई होती या वाया सुप्रीमकोर्ट , मीडिया के दल्लों यथा एन राम आदि के मार्फत लटका कर रखे होती तब ?
1971 के भारत-पकिस्तान युद्ध में जब जनरल नियाजी ने पूर्वी पाकिस्तान में 90 हज़ार से अधिक सैनिकों के साथ आत्म समर्पण किया तो भारत के जनरल अरोड़ा ने उन के हथियार वगैरह की फेहरिस्त बनवाते वक्त पाया कि पाकिस्तानी सेना के पास पर्याप्त सैनिक तो मौजूद थे ही , पर्याप्त खाद्य रसद और पर्याप्त हथियार , गोला बारूद भी था। यह सब देखने के बाद चकित हो कर जनरल अरोड़ा ने जनरल नियाजी से पूछा कि इतना सब होने के बावजूद आप ने सरेंडर क्यों किया ? जनरल अरोड़ा के साथ उस समय भारतीय एयर फ़ोर्स के वरिष्ठ अफसर भी थे। जनरल नियाजी ने एयर फ़ोर्स के अफसर की वर्दी पर लगे भारतीय एयर फ़ोर्स की चिन्ह को इंगित करते हुए कहा कि इन के कारण। सच भी यही था। पाकिस्तानी सेना हमारी वायु सेना के हमले नहीं झेल पाई थी। पाकिस्तान ने अमरीका से बीच लड़ाई में लड़ाकू जहाज मांगे। अमरीका ने समुद्र के रास्ते सातवां बेड़ा भेजा भी। लड़ाकू जहाजों का। पर इंदिरा गांधी ने तुरंत सोवियत संघ से बात की।
सोवियत संघ ने भी अमरीका के सातवें बेड़े के पीछे अपना बेड़ा लगा दिया। विश्व युद्ध की स्थिति उतपन्न हो गई। अमरीका ने समझदारी दिखाई। विश्व युद्ध से बचने के लिए। अपना सातवां बेड़ा आनन-फानन वापस ले लिया। और पाकिस्तान को भारतीय हवाई हमले से आजिज आ कर सेना को सरेंडर करवाना पड़ा। नहीं सभी मारे जाते। हारना तो था ही। फिर इस बार चीन के खिलाफ तो भारत के साथ रूस और अमरीका भी भारत के साथ खड़े थे। अगर युद्ध की स्थिति आती तो चीन का क्या होता। अमरीका और रूस या बाक़ी देश तो बाद में भारत के साथ आते। पहले भारत की तरफ से राफेल जो चीन पर कहर बन कर टूट पड़ते तो चीन का क्या होता भला !
याद आता है जब भारत में परमाणु बम का परिक्षण अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने सारे रिस्क , सारे प्रतिबंध ठेंगे पर रख कर दिया था तब अमरीका को बहुत बुरा लगा था। अनाप-शनाप प्रतिबंध अमरीका ने लगाए और लगवाए। तब के समय अमरीका , पाकिस्तान का आक़ा बना फिरता था। तो पाकिस्तान को हैपी करने के लिए अमरीका ने भारत के साथ बहुत अतियां कीं। संयोग था कि सोवियत संघ टूटने के बाद अमरीका और चीन में तब तक गहरी दरार बन चुकी थी। अटल बिहारी वाजपेयी तब अमरीका को यह समझाने में कामयाब हो गए कि परमाणु बम भारत ने पिद्दी से पाकिस्तान के लिए नहीं , तानाशाह , धूर्त और हिंसक चीन से भारत की रक्षा के लिए बनाए हैं। अमरीका ने यह बात समझते ही सारे प्रतिबंध देखते ही देखते हटा दिए। याद कीजिए बालाकोट।
बालाकोट के बाद कांग्रेस और राहुल गांधी भले कहते रहे कि बालाकोट में सिर्फ़ पेड़ गिराए गए हैं। पर पाकिस्तान बौखलाया हुआ था। सर्वदा की तरह परमाणु बम की धमकी देने लगा। कहने लगा कि हम परमाणु बम से भारत को तबाह कर देंगे। एक समय अपने को परमाणु पावर बताने की ऐंठ में चूर रहने वाले जनरल मुशर्रफ अचानक परदे पर उपस्थित होते हुए अपने पाकिस्तान को सतर्क करते हुए बोले कि ख़बरदार परमाणु बम का इस्तेमाल जो भूल कर भी किया। हम एक परमाणु बम मारेंगे तो हिंदुस्तान का कुछ नहीं बिगड़ेगा। क्यों कि हमारे पास परमाणु बम हैं ही कितने ? पर हिंदुस्तान ने जवाबी परमाणु बम चलाया तो दुनिया के नक्शे से पाकिस्तान ही गायब हो जाएगा। इमरान खान को हक़ीक़त तुरंत समझ आ गई।
तभी अभिनंदन की घटना हो गई। इमरान भारतीय मिसाइलों से इतना ख़ौफ़ज़दा हो गए कि भारत के गुस्से को शांत करने के लिए पाकिस्तानी संसद में अभिनंदन को छोड़ने का ऐलान कर बैठे। अभिनंदन की जो शेर की तरह शानदार वापसी हुई उसे पूरी दुनिया ने देखा। पर भारत में बैठे कुछ गद्दारों और दिलजलों को यह गुड नहीं लगा। सर्जिकल स्ट्राइक पर सुबूत मांगने वाले पुलवामा के लिए कहते रहे कि चुनाव जीतने के लिए इतने सैनिकों को मरवा दिया। बालाकोट हुआ तो पेड़ गिनने लगे। और जब अभिनंदन की शेर की तरह शानदार वापसी हुई तो इमरान खान को शांति दूत बताने में छाती चौड़ी करने लगे। वह तो जब ट्रंप ने खुलासा किया कि उन्हों ने इमरान खान से कहा कि जल्दी से जल्दी अभिनंदन को रिहा करो नहीं , पाकिस्तान के सभी शहरों को नेस्तनाबूद करने के लिए भारतीय मिसाइलें और एयर फ़ोर्स तैनात हो गई है। इमरान खान और बाजवा के पसीने छूट गए। पाकिस्तान की संसद में ही इस बात का खुलासा हो चुका है कि जनरल बाजवा उस दिन किस तरह कांप रहे थे।
अभिनंदन की रिहाई को भी इन विघ्नसंतोषियों ने चुनाव से जोड़ कर देखा। कहा कि पुलवामा , अभिनंदन सब कुछ चुनाव के लिए। राफेल सौदा रोकने के लिए भी एड़ी-चोटी एक कर दिया था। तत्कालीन सी बी आई डायरेक्टर को उकसाया। हिंदू , वायर , क्विंट , कारवां सब के घोड़े खोल दिए। खबरों पर खबरें प्लांट होने लगीं। सुप्रीम कोर्ट के कंधे पर बंदूक रख कर चलाने की नाकाम कोशिश की गई। सुप्रीम कोर्ट ने जब बंदूक अपने कंधे पर नहीं रखने दी तो कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट भाजपाई हो गई है। अब जब राफेल आ गया। तो चीन के नथुने तो फूले ही उस से ज़्यादा कांग्रेस और कम्युनिस्टों के।
अब जब लद्दाख की सरहद पर पैंगांग झील पर चीन ने सैनिक गतिविधि बढ़ाई तो कांग्रेस और कम्युनिस्टों की बांछें फिर खिल गईं। उसी बीच कोरोना के चक्कर में लाकडाऊन हुआ और चीन के इशारे पर कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने मज़दूरों को पलायन के लिए भड़काना शुरू किया। तबलीगी जमात के लोगों की अभद्रता की पैरवी में यह लोग पहले ही कोहराम मचा चुके थे। अंतत : मज़दूर जब सड़क पर आ ही गए तो खेल इस बात पर आ कर टिक गया कि मज़दूरों के कंधे पर बंदूक रख कर कैसे गृह युद्ध शुरू कर दिया जाए। वह गृह युद्ध जो सी ए ए के बहाने अधूरा रह गया था। मज़दूरों ने भी अपने कंधे पर बंदूक रखने से झटक दिया और गृहयुद्ध में नहीं कूदे।
तो इन को अपना सिर उचकाने के लिए चीन मिल गया। अब भारत सरकार को चीन से ज़्यादा जवाब कांग्रेस को देना था। कम्युनिस्टों को देना था। अलग बात है कि सरकार ने जवाब सिर्फ चीन को दिया। माकूल जवाब दिया। धैर्य और संयम का परिचय देते हुए सेना का मनोबल निरंतर मज़बूत किया। सेना की कारगर मौजूदगी , राफेल की ताक़त और सरकार की विश्व स्तर पर कूटनीतिक चालों ने चीन को बेदम कर दिया। अब चीन की सांस जब उखड़ गई है तो कांग्रेसी , कम्युनिस्ट सभी कांखते , खांसते खामोश हो गए हैं चीन के बिंदु पर।
अब इन के पास किसान आंदोलन की राख रह गई है। वह किसान आंदोलन जो बीते 26 जनवरी की दिल्ली में हुई हिंसा में बेदम हो कर हांफ रहा है। किसानों के बहाने कांग्रेस और कम्युनिस्टों की दिल्ली को जालियावाला बाग़ बनाने की मंशा चकनाचूर हो गई। बताइए कि तीन तलाक पर यह लोग देश में आग नहीं लगा पाए। कश्मीर में 370 पर आग नहीं लगा पाए। राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आग नहीं लगा पाए। हां , सी ए ए पर ज़रूर आंशिक लगाई। ख़ास कर दिल्ली में। सोनिया गांधी को कहना पड़ा था , इस के लिए कि सड़क पर उतर जाओ। पर कोरोना काल में विस्थापित मज़दूरों को भड़का कर देश में आग नहीं लगा पाए। किसान आंदोलन की भट्ठी सुलगाई ज़रूर पर यहां भी पार नहीं पाए। देश को निरंतर गृह युद्ध में झोंकने के लिए प्रयासरत विभिन्न तत्वों को यह तथ्य भली भांति जान और समझ लेना चाहिए कि नरेंद्र मोदी नामक व्यक्ति अभी अभिमन्यु नहीं , अर्जुन की भूमिका में है। कितने भी चक्रव्यूह रच लें , अर्जुन सारे चक्रव्यूह तोड़ डालेगा पर देश को गृह युद्ध में नहीं झुलसने देगा। अभिमन्यु की तरह मारा नहीं जाएगा।
चीन पर भी उन के आंसू अब देखने लायक हैं। जो आंसू राफेल के सौदे को अड़ंगा लगाने पर नहीं दिखे थे , अब दिख रहे हैं। राफेल प्रसंग में तो चौकीदार चोर कहने की चौधराहट में सुप्रीम कोर्ट में राहुल गांधी ने लिखित माफ़ी मांगी थी। क्या बाक़ी बिंदुओं पर भी कभी माफ़ी मांगने की सोचेंगे ? अलग बात है हर चुनाव में जनता मुर्गा बना दे रही है पर मुंहजोरी और सीनाजोरी से फुर्सत फिर भी नहीं है। राम पर तो कांग्रेस और कम्युनिस्टों को यक़ीन नहीं है , यह सर्वविदित है पर पता नहीं उन्हें महाभारत की कथा पर भी यक़ीन है कि नहीं , राम जाने। पर अब से सही कांग्रेस और कम्युनिस्टों को एक साथ जान-समझ लेना चाहिए कि सत्ता जुआ में द्रौपदी जीत कर उस का चीर हरण करने या लाक्षागृह बनाने से कभी नहीं मिलती। यह सब बैकडोर वाले रास्ते हैं। कुटिलता , कुचक्र , साज़िश का सौदागर बन कर तब राजतंत्र में भी सत्ता नहीं हासिल होती थी। फिर यह तो लोकतंत्र है।
कम्युनिस्टों का तो खैर लोकतंत्र में यक़ीन ही नहीं। उन्हें तानाशाही और हिंसा में ही यक़ीन है। यही उन का जीवन-दर्शन है। यही उन का सिद्धांत है। इसी लिए उन्हें संसदीय राजनीति से निरंतर खारिज होते जाने का कोई ग़म नहीं है। सी ए ए हो या किसान आंदोलन , इस बहाने देश में उपजी हिंसा , उपद्रव में कम्युनिस्टों का खुल्ल्मखुल्ला सहयोग अकारण नहीं है। जय भीम , जय मीम को अब वह और आगे ले जाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। जय जवान , जय किसान के नारे को लांछित करने की उन की पहली कोशिश नाकाम भले हुई है पर वह हारे नहीं हैं। हम होंगे कामयाब के गीत को अभी भी वह रवां कर रहे हैं।
पर कांग्रेस ?
आधे-अधूरे मन से ही सही कांग्रेस तो घोषित रूप से अहिंसा पर यक़ीन करने वाली पार्टी कही जाती है। गांधी की कांग्रेस , अगर अभी भी है तो उसे संसदीय राजनीति में यक़ीन कर जनता के बीच अहिंसक जनांदोलन करने चाहिए। जनता का दिल जीत कर चुनाव में विजय पा कर सत्ता का स्वाद लेना चाहिए। नाम में सिर्फ़ गांधी लिख देने से कोई गांधी नहीं हो जाता , गांधी के रास्ते पर चलना भी पड़ता है। साज़िश का सौदागर बन कर , लाक्षागृह बना कर , देश में गृह युद्ध की स्थितियां बना कर कभी किसी को सत्ता नहीं मिलती। मुग़ल काल और मुग़ल साम्राज्य एक अपवाद है।
तो सिर्फ एक मुसलामानों के वोट खातिर कांग्रेस को सत्ता खातिर मुग़लिया साज़िशों से अवश्य बचना चाहिए। जहां सत्ता खातिर बेटा , बाप को क़ैद कर भाई को मार डालता है। समूची मुग़लिया सल्तनत खून खराबे और साज़िशों के रक्त में डूबी हुई है। कांग्रेस को अब से सही , इन सब साज़िशों से बचना चाहिए। देश की पीठ में छुरा भोंकने से बेहतर है आमने-सामने लड़ाई लड़ी जाए , लोकतांत्रिक तरीके से। जनता के बीच मेहनत कर लोकतांत्रिक तरीक़े से कभी दो सीट वाली भाजपा 303 पर आ सकती है तो कोई कांग्रेस क्यों नहीं। 1984 में राजीव गांधी के समय तो कांग्रेस 401 सीट पा कर देश की सत्ता पर काबिज हुई थी। पर अब लोकसभा में कांग्रेस की संख्या 52 में अब क्यों सिमट गई है ? नक्कारखाने में तूती की आवाज़ क्यों बन कर रह गई है कांग्रेस। इस लिए कि वह कायर हो गई है। आलसी और भ्रष्ट हो गई है। कम्युनिस्टों की सोहबत में साज़िश और हिंसा की डगर पर निरंतर अग्रसर होती गई है।
ऐसे ही चलता रहा तो तय मानिए कि जैसे ब्रिटिशर्स के राज में कभी सूरज नहीं डूबता था पर निरंतर अतियों के कारण आखिर सूरज डूब गया , वैसे ही कांग्रेस भी डूब जाएगी। कोई नामलेवा नहीं रह जाएगा। भारतीय राजनीति में कम्युनिस्टों से भी बदतर हालत हो जाएगी , कांग्रेस की। नरेंद्र मोदी नाम की राफ़ेल से कांग्रेस को कुछ सीख लेनी चाहिए। नहीं नेस्तनाबूद होने से किसी को कोई रोक सका है क्या ? इमरान खान पाकिस्तान को बचाने के लिए बिना शर्त अभिनंदन को छोड़ सकता है तो क्या कांग्रेस खुद को बचाने के लिए कुछ भी नहीं कर सकती ? यह समय ही बताएगा। क्यों कि कांग्रेस और कांग्रेस के लोग किसी की नहीं सुनते। प्रियंका गांधी नरेंद्र मोदी को पुराने राजाओं की तरह अहंकारी बताती ज़रूर हैं पर गांधी परिवार तो रावण से भी ज़्यादा अहंकारी है। रावण ने भी मंदोदरी , विभीषण समेत किसी भी की सलाह नहीं मानी थी। सोने की लंका जलवा ली। एक विभीषण छोड़ समूचा खानदान समाप्त कर लिया एक सीता के अपहरण को ले कर। कांग्रेस भी सत्ता रूपी सीता का अपहरण करने में मशगूल है। बचना चाहिए उसे इस तरह के अपहरण और देश में निरंतर गृह युद्ध की साज़िशों से। कांग्रेस का भला जो होगा , सो होगा ही। देश का बहुत भला होगा। देशवासी निरंतर गृहयुद्ध की दस्तक और आहट से मुक्त होंगे। नहीं कबीर लिख ही गए हैं :
संसारी से प्रीतड़ी, सरै न एको काम
दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम।
साभार:दयानंद पांडेय-एफबी(ये लेखक के अपने विचार हैं)