क्या होता यदि सुभाष चंद्र बोस भारत में जीवित लौट आते?
-राजकमल गोस्वामी की कलम से-
Positive India:Rajkamal Goswami:
सन ४५ में विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद आज़ाद हिंद फ़ौज के बहुत से सैनिक भारत वापस आ गये । साधारण सैनिकों को तो अंग्रेजों ने कुछ नहीं कहा और वे चुपचाप अपने गाँव/ घरों को वापस लौट गये लेकिन अफसरों को पकड़ कर उन पर सैनिक विद्रोह का मुकदमा चलाया । लाल क़िले में चलाये गये इस मुक़दमे में विद्रोहियों का बचाव तत्कालीन भारत के सबसे योग्य वकील भूलाभाई देसाई ने किया । जवाहर लाल नेहरू जिन्होंने पहले शायद ही कभी वकालत की हो भी काला कोट पहन कर भूलाभाई देसाई की टीम में शामिल हो गये ।
सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजी सेना में कभी नहीं रहे तो उन पर सैनिक विद्रोह का मुकदमा तो नहीं चलाया जा सकता था लेकिन अलग से देशद्रोह का मुकदमा जिसमें सैनिकों को भड़काने का आरोप भी होता अवश्य चलाया जा सकता था । लेकिन लाल क़िला में ढिल्लन, सहगल, शाहनवाज़ के मुकदमें ने देश में जो उनके प्रति सहानुभूति और जन जागृति की लहर पैदा कर दी थी उसे देखते हुए अंग्रेज सुभाष पर मुकदमा चलाने का साहस शायद ही कर पाते ।
हालाँकि जर्मनी की तरफ से लड़ने वाले एक अंग्रेज नागरिक जॉन एमरी जिसने ब्रिटिश फ्री कॉर्प्स नाम का संगठन नाज़ी जर्मनी के अधीन बनाया था को विश्व युद्ध के पश्चात अंग्रेजों ने फाँसी दे दी थी । जॉन एमरी एक अंग्रेज राजनेता लेव एमरी के पुत्र थे और कम्युनिस्टों के विरुद्ध फासी राष्ट्रवादी शक्तियों के साथ थे। सुभाष चंद्र बोस का मामला एमरी से अलग था , भारत की जनता समवेत स्वर से बोस के साथ थी, यहाँ तक कि बोस के न होने पर भी अंग्रेजों को आज़ाद हिंद फ़ौज के सेनानियों को अंतत: छोड़ना ही पड़ा जबकि वे तो सेना के भगोड़े थे । सुभाष को तो वह किसी दशा में दंडित न करते ।
सुभाष चंद्र बोस को भारतीय राजनीति में स्वतंत्र रूप से कार्य करने के लिये छोड़ देने सिवा कोई और विकल्प अंग्रेजों के पास था नहीं । अब बोस के पास दो विकल्प थे कि वह या तो काँग्रेस में शामिल हो जायें या फिर से अपने फॉरवर्ड ब्लॉक को पुनर्जीवित करें । काँग्रेस में तब भी महात्मा गाँधी का वर्चस्व था और वह सुभाष का स्वागत करते हुए उन्हें पटेल और नेहरू के साथ मिल कर अंग्रेजों और जिन्ना को राज़ी करने को कहते । काँग्रेस के पास सन ४६ में दो ही काम थे एक जिन्ना को साधना कि वह विभाजन की माँग छोड़ दें और दूसरा अंग्रेजों को जल्दी से जल्दी देश छोड़ने को राजी करना ताकि वे चलते चलते देश को कम से कम नुक्सान पहुँचा सकें ।
सुभाष का काँग्रेस और महात्मा के साथ अनुभव ठीक नहीं रहा था वह जिस तरह सन ३९ में काँग्रेस छोड़ने को विवश हुए थे उसे देखते हुए वह स्वतंत्र राजनीति करना ही पसंद करते । मुस्लिम अलगाववाद और जिन्ना पर सुभाष की वापसी का कोई असर नहीं पड़ता । डाइरेक्ट एक्शन डे भी मनाया जाता नोआखाली नरसंहार भी होता और पाकिस्तान भी बनता ।
अंग्रेज काँग्रेस को ही सत्ता सौप कर जाते और नेहरू ही प्रधानमंत्री बनते ।
बोस तब जेपी और आचार्य कृपलानी तथा लोहिया के साथ मिल कर समाजवादियों का नेतृत्व करते या अलग दल बनाते लेकिन आज़ादी की लड़ाई का श्रेय काँग्रेस लेती और कम से कम पहले दो आमचुनाव नेहरू ही जीतते ।
सुभाष चंद्र बोस उम्र में नेहरू से पूरे आठ साल छोटे थे जिसका लाभ उन्हें अवश्य मिलता । सन ६२ के चुनावों में सुभाष लोकप्रियता में शायद नेहरू को पछाड़ देते और देश का नेतृत्व करते ।
लेकिन ये सब कयासआराइयाँ हैं ।
हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है ।
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता ॥
साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)