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आत्महत्या की अंधी सुरंग में ख़ुद को झोंकते ही पहली प्रतिक्रिया क्या होती है?

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India: Sushobhit:
आत्महत्या(Suicide)की अंधी सुरंग में ख़ुद को झोंकते ही पहली प्रतिक्रिया शरीर की तरफ़ से आती है, जो अब कुछ पल बाद नष्ट होने जा रहा है, कि– “क्या अब भी कुछ किया नहीं जा सकता कि फिर जीवन में लौट सकें?”

मन और शरीर एक सिक्के के दो पहलू हैं. मन ने शरीर को मनाकर इस हत्या के लिए उकसाया था, शरीर ने आज्ञाकारी की तरह आदेश का पालन किया, जैसे वो भूल ही गया हो कि उसका केवल एक ही धर्म है– “जब तक सम्भव हो, जीवित बने रहना.”

किंतु अब मृत्यु से ठीक पहले शरीर किसी बनैले पशु की तरह जाग जाता है और मन को अपने बस में कर लेता है. प्राणों में, धमनियों में एक हूक गूंजने लगती है– “क्या इसे अब बदला नहीं जा सकता? जीना इतना भी कठिन ना था जितना तुमने सोच लिया था, मैं सबकुछ करने को तैयार हूं, अगर एक बार फिर जी सकूं.”

आत्महत्यारा एकान्त में हो तो स्वयं को कोसता है कि उसने संसार को उसे बचाने का एक अवसर भी नहीं दिया. यह सच नहीं था कि उसकी किसी को ज़रूरत नहीं थी. जो एक आदमी भी लपककर उसकी तरफ़ बढ़ता और फूलते दम से उसे पीठ पर लादे दौड़ता तो वो जी जाता. जिलाए रखने की साज़िश में बचाने वाले का साथी बन जाता!

किंतु आसपास कोई नहीं है, कमरे का दरवाज़ा भी उसी ने लगाया है. “क्या इतनी पुख़्ता तैयारी ज़रूरी थी?” वो ख़ुद से कहता है. इस कहन में जीवन था– क़ब्र पर उगती घास की तरह. वो इसीलिए तो मर रहा था क्योंकि सोचता था कि अब वो कुछ भी ठीक से नहीं कर पाएगा. वो कितना ग़लत था!

इस हरकत में इतनी सुथराई थी, ऐसा सधा हुआ हाथ, कि मरने वाला एकबारगी ख़ुद पर रीझ जाता है– “मैं इस आख़िरी क़दम पर अनाड़ी क्यों ना साबित हुआ! मैं जो सब जगह हारा, यहीं पर क्यों जीता!”

कमरे में मद्धम सुर से पंखा चलता है. गुलदान सजा है. खिड़की से किसी फेरीवाले की आवाज़ सुनाई देती है. उसका दिल पसीज जाता है. “कुछ पल बाद मैं इस सबसे दूर हो जाऊंगा”, वो सोचता है और जीने की एक लाख साल पुरानी अंधी लालसा उसे जकड़ लेती है– “काश मैं किसी डोर को थाम पाता, काश मैं और कोशिश करता, ये फेरीवाला जहां हांक रहा है, उस संसार से मुझे लगाव है, कोई मुझे लौटा लो!”

किंतु अब तो देरी हो चुकी. फंदा कस गया. प्राण छूटने लगा. जिसको पूरा जीवन पल पल पोसा था, गांठ के धन की तरह संजोया था, वो अब छूट रहा है– “मैं मरकर हवा बन जाऊंगा या धूप? दूसरी दुनिया में मेरा नक़्श कैसा होगा, कौन होगा साथी-संगी? यहाँ के तमाम नियम जानता था, वहाँ फिर से सब सीखना होगा? तब यहीं फिर से शुरू करना क्या बुरा था, यह तो मेरा पहचाना संसार था!”

जो मरने वाला जानता कि उसके बाद कितने मीठे मन से उसको याद करेगी दुनिया, तो वो नहीं जाता. किंतु दुनिया को अपनी याद दिलाने के लिए मरे बिना कोई रास्ता नहीं, यही वो चतुराई थी, जिसने उसको अपने ही बरख़िलाफ़ भरमा लिया था!

कितना सजीव होता है मरने वाले के भीतर जीवेषणा का चलचित्र, ये उससे पूछो जो मरा है!

साभार: सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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