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प्रशिक्षित बुद्धि और अप्रशिक्षित बुद्धि में क्या भेद है?

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India: Sushobhit:
जीवन के हर क्षेत्र में एक्सपर्ट और एमेच्योर का द्वैत आपको दिखाई देगा। आप अभी यहां बैठे हैं, आप तुरंत ही उठकर कथक नृत्य नहीं कर सकते, यह वही कर सकता है जिसने उसका सुदीर्घ प्रशिक्षण लिया है। आप बिना किसी तैयारी के शास्त्रीय राग नहीं गा सकते। फुटबॉल में एक प्रोफेशनल का फर्स्ट टच अलग ही दिखाई देता है, एमेच्योर उस तरह से गेंद को रिसीव और पास नहीं कर सकता। क्रिकेट में गेंद को सही टप्पा देना बहुत ही कौशल का काम है। कहते हैं सबसे अच्छा टप्पा वह है, जब गेंद ऑफ़ स्टंप के टॉप को हिट करे। कोई एमेच्योर अगर गेंदबाज़ी करने की कोशिश करेगा तो बहुत संभव है गेंद को वाइड फेंक देगा।

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हर क्षेत्र में प्रशिक्षण अनिवार्य है। बुद्धि का भी एक प्रशिक्षण होता है। तर्कशक्ति का विकास अनवरत चिंतन-मनन, खंडन-मंडन, तर्क-वितर्क, पठन-पाठन से होता है। यह पीड़ा देने वाली प्रक्रिया है, क्योंकि मनुष्य एक मूल्य-व्यवस्था और विश्वास-प्रणाली के लिए बेचैन है और जल्द से जल्द किसी मान्यता को जीवन भर के लिए अपना लेना चाहता है। लेकिन एक कठोर बौद्धिक प्रक्रिया के बिना आपके भीतर तर्कबुद्धि का विकास नहीं हो सकता। एक ट्रेंड माइंड (प्रशिक्षित मस्तिष्क) आपका नहीं बन सकता।

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मैं बीते एक दशक से फेसबुक पर लोगों से डिबेट कर रहा हूं। इस प्रक्रिया में हज़ारों लोगों से मेरी आमने-सामने की बहस तो हुई ही होगी। निष्कर्ष बहुत दयनीय है। मैंने पाया है कि अधिकतर लोगों की तर्कबुद्धि का स्तर अत्यंत प्राथमिक स्तर का है। वे वाइड गेंदें ही फेंकते रहते हैं! परिप्रेक्ष्य उनके पकड़ में नहीं आता। आप दो और दो चार लिखें तो वो उसको दो और दो छत्तीस की तरह भी पढ़ सकते हैं। जो स्पष्ट लिखा गया है, उसे वैसे ही ग्रहण करने के बजाय वे अनुमान, कल्पना, मान्यता, पूर्वग्रह में भटकते रहते हैं। शिक्षा प्रणाली बहुसंख्य समाज को सोचने-विचारने में सक्षम नहीं बन पाई है। धर्म और राजनीति का इतना बड़ा अन्योन्याश्रित व्यापार इसी से स्थापित हुआ है। धर्म का प्राथमिक प्रयोजन संगठन है और राजनीति की भाषा में एक संगठित समूह ‘वोट बैंक’ कहलाता है। ऐसे में रिलीजन राजनीति की रॉयल्टी बन जाता है!

एक राजनेता का काम शासन-प्रशासन है, धर्म उसका निजी मामला होना चाहिए। लेकिन अगर वह धार्मिक आडम्बर का नियमित, सार्वजनिक प्रदर्शन करता है तो इसका कारण वोट की राजनीति है। वो जानता है कि जनता की तर्कबुद्धि विकसित नहीं है। वो उससे यह नहीं पूछेगी कि तुम पुजारी नहीं प्रधानमंत्री हो, जो काम दिया है वह करो, पूजा-पाठ आदि की नौटंकी मत करो। आप मान लें कि अगर समाज में धर्म की व्याधि अतिशय प्रचलित है तो उसको अच्छी सरकार मिल ही नहीं सकती! क्योंकि राजनेता को हमेशा पता होगा कि लोग किस बिंदु पर आसानी से ट्रिगर होते हैं। वो नियमित उस ट्रिगर का उपयोग करेगा और जनता अभिभूत होकर हाथ जोड़ लेगी। राजनीति के क्षेत्र में धर्म का अनुचित अतिक्रमण उसके पल्ले नहीं पड़ेगा। जबकि अच्छी सरकार पाने के लिए समाज में प्रशिक्षित बुद्धि का होना अनिवार्य है।

लोकसभा चुनाव शुरू हो चुके हैं। हम इस बात पर बहुत संतोष का अनुभव करते हैं कि लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपना प्रतिनिधि चुनने की स्वतंत्रता दी गई है। किंतु अगर व्यक्ति की विवेक-बुद्धि का स्तर शोचनीय है तो वह एक अच्छा प्रतिनिधि कैसे चुन सकेगा? लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा शासन है। पर जनता की मति मारी गई हो तो लोकतंत्र शोकतंत्र नहीं बन जाएगा?

साभार: सुशोभित -(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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