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क्या है #स्वाधीन होने और #स्वतंत्र होने में अन्तर ?

-अमिताभ राजी की कलम से-

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Positive India:Amitabh Raji:
#स्वाधीन होने और #स्वतंत्र होने में धरती आकाश का अन्तर होता है, पन्द्रह अगस्त सन 1947 को भारत स्वतंत्र नहीं हुआ था, सही मायनों में तो स्वाधीन भी नहीं हुआ था, केवल #शक्ति_का_हस्तांतरण (ट्रांसफर आफ पावर) हुआ था, स्वतंत्र का अर्थ होता है अपना तंत्र यानी अपना सिस्टम, अपने नियम कानून, जबकि हालत आज तक ये है कि हम आज तक उसी संसद भवन से काम चला रहे हैं जो ब्रिटिश सरकार ने बनवाई थी, आज तक सन 1860 का इंडियन पेनल कोर्ट (#IPC) 1861 का #पुलिस_एक्ट देश में लागू है जो अंग्रेजों ने भारतीयों को पक्षपात पूर्ण ढंग से दंडित करने के लिए बनाए थे, मैकाले की #शिक्षा_नीति भी अभी तक बरकरार है जो भारतीयों को मालिक नहीं बल्कि सिर्फ अंग्रेजों के चाकर बनाने के लिए तैयार की गई थी…..

स्वतंत्र तो दरअसल हम तब होते जब हम वास्तविक अर्थों में स्वाधीन भी हुए होते, पंद्रह अगस्त सन उन्नीस सौ सेतालीस को हुआ शक्ति का वो हस्तांतरण असल में गोरे अंग्रेज से कुछ काले अंग्रेजो को मिला भारत की मालकीयत का चार्ज था….

काले अंग्रेज चार्ज मिलते ही ऐसे मस्त हुए कि न तो उन्हें मुल्क के बटने से कोई तकलीफ हुई और न ही लाखों नागरिकों के कटने से ही उनकी सेहत पर कोई संकट महसूस हुआ….

ये जानकर बहुत अफसोस होता है कि हमने जिसे भारत की स्वतंत्रता का दिन मान लिया था, गोआ, दमन दीव और दादरा नगर हवेली जैसे महत्वपूर्ण भारतीय क्षेत्र उस दिन के लगभग पंद्रह वर्ष बाद 1961 में जाकर आजाद हो पाए पुर्तगालियों के कब्जे से….

काश हम सन सेंतालीस में स्वाधीन हो गए होते, यानी भारतीय मूल्यों और भारतीय संस्कृति में विश्वास रखने वाले नेताओं के हाथों में भारत की बागडोर आई होती तो शायद तब ही हमारी शिक्षा नीति बदलने की आवश्यकता समझी जा सकती थी, #कृषि_सुधार के कानून तथा एक देश एक टैक्स जैसी व्यवस्थाओं की ओर बहुत पहले शायद ध्यान चला गया होता, कश्मीर में धारा 370 लगती ही न, जो कि अब बामुश्किल हटाई गई, आश्चर्य होता है ये जानकर कि अभी तक भारत में ऐसे गांव थे जहाँ सरकार सत्तर सालों में एक घर में भी बिजली नहीं पहुंचा पाई थी, फिलहाल गांव कोई बिजली रहित नहीं रहा ये एक अच्छी खबर है और उम्मीद है कि भविष्य में घर भी कोई बिजली रहित नहीं रहेगा….

धार्मिक आधार पर बटवारा होने के बावजूद हमें राम मन्दिर के लिए कैसे-कैसे पापड नहीं बेलने पडे कौन नहीं जानता, काशी मथुरा आदि हजारों मन्दिरों पर विदेशी आक्रांताओ की बर्बरता की निशानियाँ आज भी हमारी स्वाधीनता पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं….

इस सबके बावजूद बदलती हुई कुछ नीतियों, बनते हुए कुछ माहौल और होते हुए कुछ कार्यों को देख कर लगता है कि अब हम स्वाधीनता से धीरे-धीरे स्वतंत्रता की ओर बढ रहे हैं, ईश्वर #राष्ट्रीय_स्वयंसेवक_संघ और उसके #मोदी जैसे सिपाहियों को लम्बी उम्र तथा भारत के बहुसंख्यक बेवकूफों को सद्बुद्धि प्रदान करें….

साभार:अमिताभ राजी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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