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गूँगे जानवर भूख-प्यास, तकलीफ़ के पलों में आँखों से सम्प्रेषित करने का क्यों जतन करते हैं?

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India: Sushobhit:
मनुष्य का जीवन भाषा से इतना भरा है कि निर्वाक् होने की अनुभूति घुटन से भरी हो सकती है। लेकिन जो गूँगे ही हों- वो? जो बोल नहीं पाते, उनके दु:ख का आकार क्या छोटा होता है?

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अकसर पाया गया है कि गूँगे जानवर भूख-प्यास, तकलीफ़ के पलों में आँखों से सम्प्रेषित करने का जतन करते हैं। मदद की गुहार तक लगाते हैं। क़त्ल से पहले तो लगभग रहम की भीख माँगते हैं। उनकी आँखें बोलती हैं। वो कहती हैं, मुझे छोड़ दो, मैंने क्या बुरा किया है जो मुझे मारते हो?

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क़त्लख़ानों में काम करने वालों के इंटरव्यू मैं पढ़ता हूँ। उनमें से एक ने कहा, बाज़ दफ़े किसी जानवर को क़त्ल के लिए ले जाते समय हम सोचते हैं, यह कितना ख़ूबसूरत और मासूम है, मेरे बच्चे इसके साथ ख़ूब खेलते। लेकिन कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, अगले ही पल मुझे उसको मार डालना है। यही काम मुझे दिया गया है। इसका एक बहुत बड़ा बाज़ार है। माँग और आपूर्ति का नियम उस निर्दोष प्राणी की जान पर लागू हो चुका है। उसकी क़ीमत बदी जा चुकी है।

ऐसे ही एक कामगार ने एक इंटरव्यू में बताया कि अकसर ऐसा होता है किसी जानवर को क़त्ल के लिए ले जाते समय जैसे ही उसे एहसास होता है कि कुछ अशुभ होने जा रहा है, वह हमें कसकर जकड़ लेता है मानो हमीं से उम्मीद करता हो कि उसे बचायेंगे। वह नहीं जानता कि हम ही उसका गला काटने वाले हैं!

यह भोलेपन और भरोसे के क़त्ल की अरबों रुपयों की इंडस्ट्री- जो इस संसार में अहर्निश संचा​लित हो रही है- वह आपकी रातों की नींद क्यों नहीं हराम करती, जैसे कि उसने मेरी कर दी है?

जानवरों के रेस्क्यू के लिए काम करने वाले मेरे एक मुसलमान दोस्त अयान ने मुझसे कहा, एक बार मेरे घर पर क़ुर्बानी दी जा रही थी। बकरे की आँख मुझ पर जा टिकी, मानो वह कह रहा हो तुम औरों से अलग मालूम होते हो, मैं मिन्नत करता हूँ मुझे बचा लो। मैं उसको बचा नहीं पाया, लेकिन उसकी आँखों को मैं कभी भुला नहीं पाया। बाद उसके मैंने गोश्त खाना छोड़ दिया और अब जानवरों की मदद के लिए काम करता हूँ।

ये मदद की गुहार लगाती करोड़ों आँखें सब तरफ़ मौजूद हैं। और उनकी बेशर्म अनदेखी मनुष्य-सभ्यता का सबसे कलं​कित अध्याय!

लाइव एक्सपोर्ट करके एक शैतानी चीज़ होती है, जिसमें हज़ारों की संख्या में जानवरों को जहाज़ों में लादकर दूर-देश भेजा जाता है। क्यों? फ्रोज़न मीट भी तो भेजा जा सकता है। लेकिन माँसभक्षियों को ताज़ा माँस चाहिए, अभी-अभी जो जानवर जीवित था, जिसकी रगों में लहू दौड़ रहा था, उसका माँस।

लेकिन जहाज़ में पखवाड़े तक खड़े, समुद्री-यात्रा की कठिनाइयों से भरे, अजनबी आबोहवा में लहरों के थपेड़ों से एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते, उमस और गर्मी में घुटते ये जानवर अकसर जहाज़ पर काम करने वालों की आँखों में झाँककर उनसे पूछते हैं कि तुम लोग हमारे साथ ऐसा क्यों कर रहे हो? उनके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं होता। ऐसे ही एक कर्मचारी का बयान मैंने आज ही एक ऑस्ट्रेलियन शिपिंग कम्पनी की एक रिपोर्ट में पढ़ा।

लाल सागर में जंग छिड़ी है, स्वेज़ नहर का रास्ता बंद हो गया है, इसलिए जानवरों को लादकर चले जहाज़ लौट आ रहे हैं। पाया जाता है महीनों लम्बे सफ़र के बाद उनमें से कइयों की मौत हो चुकी है। जब उन्हें जहाज़ पर लादा गया था, तब वे स्वस्थ, चंगे थे, शायद प्रसन्न भी, रोमांच से भरे कि हम किसी यात्रा पर जा रहे हैं!

ये ब्योरे, ये कहानियाँ पढ़ते-सुनते आपके गले नहीं रूँधते?

मैं कैसे मान लूँ कि इतना साहित्य, इतनी कविता, इतनी कला, संवेदना, न्याय की बातें जिस दुनिया में है, उनमें इन गूँगे बच्चों की बोली सुनने वाला कोई नहीं?

और यह सब जानने के बाद मैं अनास्था के बवण्डर में कैसे ना डूब जाऊँ?

मैं मनुष्यता पर कैसे विश्वास बनाए रक्खूँ? उसके ईश्वरों, उसके धर्मों की झूठी पवित्रताओं पर कैसे संशय ना करूँ?

क्योंकि हर दिन मनुष्य-जाति का पेट बड़ा होता जा रहा है, उसके लालच की भूख बढ़ती जा रही है, और इसकी भरपाई उन जानवरों से की जा रही है, जो सबसे मासूम थे, सबसे भले, सबसे नेक और इसीलिए- सबसे आसान शिकार!

साभार: सुशोभित -(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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