Positive India:Dr.Chandrakant Wagh:
हम अपनी संस्कृति भूलते जा रहे है । हम पाश्चात्य बनने के होड़ मे अपनी विरासत के साथ खिलवाड़ कर रहे है । भारतीय संस्कृति मे हर संबंधो का महत्व है । पर दुर्भाग्य से बाजार को इसका फायदा नही होता । फिर यही मूल कारण है इन रिवाजों से यह परहेज करना चाहते है । बाहर से आये देशों के ब्रांड पूरा बाजार भावनाओ सहित वसूल लेता है । समाचार पत्र इनके विज्ञापनों से भरे पड़े रहते है । होटल का व्यापार अपनी पूरी सुविधाओ के साथ सेवा देने के लिए तत्पर रहता है । गिफ्ट आइटम पूरी तथाकथित छूट के साथ अपने प्रिय ग्राहकों के लिए खड़ा रहता है । जब ऐसा माहौल बाजार को मिले तो बाजार उस दिन की महिमा क्यो न गाये।
अभी की ही बात ले लो, हर भारतीय को, हर हिंदू को मालूम है यह नया साल ईस्वी सदी के कैलेंडर के हिसाब से है । हमारा नया साल चैत्र से चालू होता है , जिसे हर समुदाय अपने अपने हिसाब से मानता है । महाराष्ट्र मे इसे गुड़ीपाड़वा के रूप मे मनाते है । जिसमे घर मे पूजा-अर्चना कर गुडी लगाते है, जिसे शाम को उतार देते है । गुडी का मतलब विजय पताका होता है । वही पंजाब मे खालसा संवंत बैशाखी से शुरू होता है । बौद्ध संवंत वसंत विषुव मार्च से आरंभ होता है । जैन संवंत कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से शुरू होता है । उसी तरह तामिल संवंत पुथंडु, मलयालम संवंत बिशु, तेलगु संवंत उगादी और पारसी नववर्ष नवरोज होता है । पर इनसे बाजार को क्या फायदा होगा ? इसलिए 31 दिसंबर और एक जनवरी की रात होटल बुक हो जाते है आतिशबाजी होती है । डीजे बजाकर हंगामा होता है । फिर बड़े-बड़े होटल के आकर्षक विज्ञापन लोगो को उस चकाचौंध के लिए खींच लेता है ।
जिस देश की संस्कृति यह रही हो कि प्रातः उठते साथ मातापिता के चरण स्पर्श करना, अब उस देश मे फादर्स डे और मदर्स डे की पंरपरा चालू हो गई है । एक दिन मना लो साल भर फुर्सत।
आजकल वेलेंटाइन डे का बहुत ही ज्यादा महत्व बढ़ गया है । खासी तैयारी रहती है । यही देश है जहाँ राधा कृष्ण ,दुष्यंत शकुंतला ,हीर रांझा , लैला मजनू , व शीरी फरियाद की अमर गाथाएँ बगैर वेलेंटाइन डे के हुए है । कुल मिलाकर देश बाजारवाद के हत्थे चढ़ रहा है और हम अपने गौरवशाली परंपरा को विस्मृत कर रहे है यह दु:खद है । हमे अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण रखना होगा । यह हमारा दायित्व है कि आने वाले पीढ़ियो के लिए अपने सांस्कृतिक मूल्यो से उन्हे परिचित कराये जिसका एक समृद्ध शाली इतिहास है । बस इतना ही ।
लेखक:डा.चंद्रकांत वाघ।