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फ़िल्मों में हम अपनी शर्तों के साथ काम नहीं करते : इला अरुण

-दयानंद पांडेय की कलम से-

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Positive India: Dayanand Pandey:
‘फ़िल्मों से मुझे मत आंकिये।’ कहने वाली सुप्रसिद्ध गायिका इला अरुण के भीतर थिएटर अब भी धड़कता है, अभिनय उन के भीतर अब भी कुनमुनाता है। वह अब भी अपने को अभिनेत्री ही कहलाना चाहती हैं बावजूद इस के कि गायकी ने उन्हें स्टार स्टेटस दिया। पर वह कहती हैं कि, ‘गायकी में भी मैं अभिनय ही पेश करती हूं।’ आज शाम इला अरुण लखनऊ आईं और झूम गईं। यह कहने पर कि यह शहर भी आम शहरों जैसा ही हो गया है तो वह, ‘नहीं’ कह कर पुलकित हो गईं। बोलीं, ‘लखनऊ को देखने का बड़ा मन था। लखनऊ का एक रोमांस है दूर से।’ कह कर वह खिड़की से बाहर देखने लगती हैं। वैसे लखनऊ वह दूसरी बार आई हैं। बहुत पहले वह बचपन में आई थीं।

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राजस्थान के जोधपुर में पैदा हुई, जयपुर में पली-बढ़ी इला अरुण मूल रूप से उत्तर प्रदेश की ही हैं। वह बताती हैं कि, ‘इलाहाबाद के पास फतेहपुर चौससी की मेरी मां हैं और पिता उन्नाव के काकूपुर से हैं।’ तो इस बहाने पूर्वजों की धरती पर आ कर भी वह खुश हुईं और झूमीं। ताज होटल की लॉबी में आई.टी. कालेज की कुछ लड़कियों ने उन्हें अचानक आज घेर लिया। तो वह लपक कर उन से मिलीं। लड़कियां उन से बोलीं, ‘वेरी ग्लैड टू सी। आई कांट इमेज़िन यू नो।’ फिर उन्हों ने लड़कियों के साथ फ़ोटो भी खिंचवाई। चोली के पीछे…लोटन कबूतर…वोट फ़ार घाघरा जैसे गीतों को गाने वाली इला अरुण नेशनल स्कूल आफ़ ड्रामा की विद्यार्थी रही हैं। ‘मंडी’, ‘अर्धसत्य’, ‘त्रिकाल’, ‘सुष्मन’, ‘रूपमावती की हवेली’, जैसी फ़िल्मों, जीवन रेल, भारत एक खोज, तमस यात्रा जैसे धारावाहिकों में अपने अभिनय के लिए भी वह जानी जाती हैं। पेश है इला अरुण से खास बातचीतः-

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अगर ‘चोली के पीछ क्या है…’ गीत न होता तो आप क्या होतीं?

इला अरुण ही होती। ऐसा नहीं कि कुछ भी न होती। फिर भी जब मैं इला अरुण थी-कुछ था मुझ में तभी तो सुभाष घई ने मुझ से यह गीत गवाया।

तो भी इस के पहले प्रसिद्धि का यह शिखर तो छुआ नहीं था आप ने?

सही है कि ‘चोली’ की वज़ह से ही इंटरनेशनल स्टार हूं। हो सकता है कि इस के बिना मध्यम वर्ग तक ही सीमित रह गई होती या सिर्फ़ थिएटर ही कर रही होती या जो कैसेट अभी लाखों में बिक रहे हैं, हज़ारों में बिक रहे होते।

पर चोली वाले गीत की निंदा भी खूब की गई। डबल मीनिंग के नाते। एक स्त्री होने के नाते आप क्या कहेंगी?

चोली से कामर्शियली यहां तक पहुंची चोली की बुराई कैसे करूं।

इधर आप के फ़िल्मी गीत नहीं आ रहे?

फ़िल्मों में गाना बंद ही है। क्यों कि हर कई चोली ही चाहता है। लोग डबल मीनिंग गाना ही देते हैं। मैं कहती हूं कि दर्द भरा गाना दो। नहीं देते। साउथ तक के गाने गाए। पर हर जगह वही। दिमाग से चोली नहीं निकलती।

आप के वीडियो अलबमों में अधनंगी लड़कियां आप के गानों पर छाई रहती हैं?

क्या करूं। ब्लेड आप के शेव के लिए और लड़कियां। दरअसल जब चीज़ें बिकने को आती हैं तो मार्केटिंग होती है। और मार्केटिंग के लिए लड़कियां। मैं कहती भी हूं कि मैं खुद एक्ट्रेस हूं, मेरे गानों में माडल की क्या ज़रूरत? पर व्यावसायिक दबावों के आगे ऐसे सवाल बेमानी हो जाते हैं।

आप एक समर्थ और संवेदनशील अभिनेत्री हैं। पर अब आप को नहीं लगता कि आप की संवेदनशील अभिनेत्री एक गायिका बन कहीं घुप अंधेरे में खो गई है? रूपमावती की हवेली तथा जीवन रेखा के अभिनय का रंग बिसार गई है। ऐसे में अभिनेत्री या गायिका अपना कौन सा रंग, कौन सा रुप पसंद करेंगी?

मौके-मौके की बात है। पर मैं पैदाइशी स्टेज की अभिनेत्री हूं। मैं ने कभी कहा ही नहीं कि सिंगर हूं। में तो गानों में भी अभिनय ही जीती हूं।

लोक संगीत को जो आप ने पाप के मसाले में फेंटा है बहुत लोग इसे लोक संगीत के साथ खिलवाड़ करना बताते हैं। आरोप है कि आप लोक संगीत को नष्ट कर रही हैं। बुरा मानते हैं लोग।

जितना जनता प्यार करती है मुझे नहीं लगता कि लोग बुरा मानते हैं। मुट्ठी भर कुछ लोगों की टिप्पणियों की बात अलग है। क्यां करें उन का। मैं अगर आप से कहूं कि आप पारंपरिक धोती कुर्ता की जगह शर्ट पैंट क्यों नहीं पहने हैं? यह वैसी ही बात है और अब तो शास्त्रीय संगीत में भी फ़्यू्ज़न (सम्मिश्रण) चलने लगा है। रवि शंकर ने सितार में सब से पहले ईस्ट-वेस्ट का फ़्यूज़न किया। जाकिर लोग कर रहे हैं। तो हम भी वेस्टन रिदम पर फोक गा रहे हैं। बुरा क्या है। फिर आज की माडर्न जेनरेशन रिदम और डांस में ‘फ़ास्ट’ चाहती भी है।

पर लोग ‘फ़ास्ट’ से उतना नहीं डबल मीनिंग से ज़्यादा नाक भौं सिकोड़ते हैं?

फ़िल्मों में हम अपनी शर्तों के साथ काम नहीं करते। समझौते करने पड़ते हैं। फिर आप मुझे फ़िल्मों से मत आंकिये। अगर आप मुझे जानना चाहते हैं तो मेरे कैसेट्स देखिए। अब फ़िल्मों में जा कर कहूं कि राग बागेश्वरी गाऊंगी तो लोग कहेंगे कि घर जा कर गाइए।

पर आप के कैसेटों में भी डबल मीनिंग वाले गाने हैं। अधनंगे दृश्य हैं। ‘म्हारो घाघरा ही’ ले लीजिए?

आप ने फिर ठीक से देखा नहीं म्हारो घाघरा। इसमें तंज है पुरुषों पर। और फिर लोक संगीत की परंपरा भी देखिए। क्या शादी में नकटौरा के समय छेड़छाड़ के गाने नहीं होते। अब एक गाना है ‘कहां खोया मेरा नवल बिछिया, सब कोई ढूंढे छूछिया बिछिया।’ या फिर खाने के समय समधी को संबोधित गाली गीत, ‘उन की अम्मा ढूंढे खसम रसिया!’ जैसे गाने क्या डबल मीनिंग के खाने में डालेंगे? गांवों में गाली गीत में औरतें परदे के पीछे से क्या-क्या नहीं कहतीं।

पर अब यह गाली गीत जैसी परंपराएं तो गांवों से भी गुम हो रही हैं?

गांवों से भी ये चीज़ें गुम हो रही हैं तो ट्रेजडी है।

पर बाहर भी तो आप लोक संगीत को मार रही हैं-उस पर हावी हो रही हैं?

कोई भी लोक संगीत पर हावी नहीं हो सकता। लोक संगीत हर संगीत की जननी है।

अभी ‘घातक’ फ़िल्म में आप के अभिनय का एक नया ही रंग दिखा है।

मैं इमेज से जुड़ी नहीं, ज़मीन से जुड़ी लड़की हूं। जैसे कि अपने कैसेट बंजारन की बात करूं। तो मैं किसी बंजारे की लड़की तो हूं नहीं पर बंजारन बनी हूं।

आप अपने को मिडिल क्लास मानती हैं कि अपर क्लास?

मैं हूं मिडिल क्लास की आऊट इन आऊट। दरअसल मिडिल क्लास अपर क्लास एक दृष्टिकोण है।

आप अपनी बेटी को फ़िल्मों में आने देंगी?

बेटी को क्यों नहीं आने दूंगी फ़िल्मों में। मैं खुद ट्रेडिशन तोड़ कर आई। बड़ी डांट खाती थी। तो मेरी मां ने मुझे सपोर्ट किया तो मैं क्यों नहीं अपनी बेटी को सपोर्ट करूंगी।

राजनीति पर?

राजनीति से जनता इतना प्रभावित न हो कि चार दिन की ज़िंदगी घृणा में गुज़ार दें। लोग मुझ से पूछते हैं कि इलेक्शन में जाओगी? मैं कहती हूं क्यों जाऊंगी? (कान पकड़ती हैं)।

थिएटर का क्या हो रहा है?

मैं तो अपने जमीला बाई कलाली और रियाज़ नाटक लखनऊ में करना चाहती हूं। पृथ्वी थिएटर के चक्कर काटती रहती हूं। ‘सुर नाई’ हमारा थिएटर ग्रुप है-1982 से। के.के. रैना, विजय कश्यप, अंजुला बेदी वगैरह हैं।

और क्या रह रही हैं?

राजकुमार संतोषी की ‘चायना गेट’ में एक्ट कर रही हूं। मेरा एक कैसेट बन कर तैयार है। अप्रैल में टिप्स रिलीज़ कर रहा है। पर नाम नहीं बताऊंगी। टाप सीक्रेट है अभी।

और क्या तमन्ना है?

‘जो तमन्ना उम्र भर आए न दर पर, वो तमन्ना उम्र भर की थी।’…पर मैं बिना बात के यह चीख-चीख कहना चाहती हूं कि मदर टेरेसा की तरह काम करना चाहती हूं। मिस वर्ल्ड की तरह। हमने निहलानी के साथ कई फ़िल्म बिना पैसे के भी की है। कोढ़ियों पर, हस्त कला पर। लेकिन कहने की ज़रूरत नहीं। क्यों कि चैरिटी इस समय सब से बड़ा भद्दा मज़ाक है।

साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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