Positive India:Kanak Tiwari:
विकास और आदिवासी विनाश—3
राज्य यह आचरण करके भी तो दिखाए कि वह संविधान के भाग 3 और 4 तथा उद्देशिका में वर्णित उपदेशों को ध्यान में रखकर समाज के पिछड़े वर्गों और सामान्य जनता के अधिकारों और संपत्तियों छीनेगा नहीं, जिससे लोकतंत्र का आधार ही चरमरा जाए। कारपोरेट जगत इक्कीसवीं सदी का सबसे बड़ा खलनायक है। वही संसदीय विधायन और सरकार के मंसूबों को लगातार असफल कर रहा है। कुछ सांसदों के बयान, न्यायपालिका के कुछ निर्णय और कुछ जनआंदोलनों की चिनगारियां देश के भीषण अवैध अंधकार में केवल जुगनुओं की तरह टिमटिमा जाती हैं। पांचवीं और छठवीं अनुसूची सहित संविधान के 73 वें और 74 वें संशोधन, पेसा और वन भूमि की मान्यता का अधिनियम वगैरह मिलकर भी सरकार और कारपोरेट जगत की हिंसक जुगलबंदी के सामने लाचार हो रहे हैं। देश अपनी गुलामी के ही पिंजरे में तोते की तरह कैद होकर रह जाएगा। राज्य में इच्छाशक्ति डूबती जा रही है। निजीकरण के अभिशाप के कारण ऐसी स्थिति आ जाएगी, जब चाहकर भी कोई कल्याणकारी विधायन नहीं किया जा सकेगा। शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, सड़कें, सिंचाई पेयजल, खाद्यान्न, कल्याणकारी योजनाएं वगैरह में ये इलाके राष्ट्रीय औसत से तो बहुत पीछे हैं ही, प्रदेश के औसत के भी पिछलग्गू हैं। योजना आयोग के एक विशेषज्ञ दल ने चौंकाने वाली खस्ता माली हालत का नक्सल पीड़ित आदिवासी इलाकों को देखकर चित्रण किया है। सरकारी बदइंतजामी पर कटाक्ष भी किया है। सरकारों ने उस रिपोर्ट को न तो श्वेतपत्र की तरह जारी करने की हिम्मत जुटाई और न ही उस पर सार्थक बहस मुबाहिसा किया।
साभार:कनक तिवारी (ये लेखक के अपने विचार हैं)