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विकास और आदिवासी विनाश-2 कनक तिवारी

राज्य सरकारें झूठे आंकड़ों का सच्चा प्रचार करने में समर्थ होती हैं।

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Positive India:Kanak Tiwari:
पांचवीं और छठवीं अनुसूची में राज्यपालों को दिए गए संवैधानिक अधिकार तथा सलाहकार परिषदों के कृत्य सीधे तौर पर राज्य के उन कानूनों का विरोध कर सकते हैं जो अन्यथा किसी भी नागरिक से उसकी भूमियां कथित लोक प्रयोजन के लिए जबरिया अधिग्रहित करते हैं। इन दिनों किसानों, गरीबों, आदिवासियों और सामान्य जनता के विरुद्ध राज्य कारपोरेट जगत के लिए रिहायशी और कृषि भूमियां कथित लोक प्रयोजन के नाम पर जबरिया छीन रहा है। जाहिर तौर पर कोई लोक प्रयोजन नहीं दिखाई देता। सीधे तौर पर पूंजीवादी तेवर का अट्टहास ही है। लोकशक्ति को संविधान के मर्म का संवाहक बनाने के दृष्टिकोण से 73 वें और 74 वें संशोधन किए गए। इनके अनुसार पंचायत और नगरीय स्वायत्त संस्थाओं को अनवरत बना दिया गया। संविधान की ग्यारहवीं और बारहवीं अनुसूचियों मे स्वायत्त शासन के अधिकारों का ब्यौरा दर्ज है। वही अंग्रेज कुटिल दृष्टि आज के भारतीय विधायन में झिलमिला रही है। राज्य की सभी संवैधानिक और कार्यपालिक जिम्मेदारियां विधायकों और सांसदों में इस कदर निहित हो गई हैं कि वे लोकसेवक बनने के बदले सत्ता के अहंकारी केन्द्रों के रूप में दिन ब दिन ताकतवर और एकाधिकारवादी होते गए हैं। संसद ने पंचायतों के अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार का अधिनियम, 1996 (पेसा अधिनियम) तथा अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 का विधायन किया। पेसा अधिनियम, 1996 निश्चित तौर पर अनुसूचित क्षेत्रों की पंचायतों को कुछ अधिक अधिकार सौंपने का ऐलान लिए हुए आया है। अधिकांश राज्य सरकारों ने अधिनियम की भावनाओं और आदेशों का पालन नहीं किया है। वन अधिकारों की मान्यता वाला अधिनियम पूरी तौर पर लुंजपुंज, निष्क्रिय और आप्रासंगिक बनकर रह गया है। राज्य सरकारें झूठे आंकड़ों का सच्चा प्रचार करने में समर्थ होती हैं।

लेखक:कनक तिवारी(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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