प्रगतिवादी लेखक/कवि जो न कर सके, उर्फी ने वह साहित्य आज तक में कर के दिखाया
-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-
Positive India: Sarvesh Kumar Tiwari:
साहित्य आज तक में सुश्री उर्फी का आना उतनी ही क्रांतिकारी घटना है, जितना श्रीयुत केजरीवाल जी का राजनीति में आना, मार्क्स और लेनिन को अपने नाम मे धारण करने वाली आतिशी मारलेना का छठ व्रत करना, या चिकित्सा जगत में छू कर ही गूंगे को आवाज देने वाले प्रोफेट विजेंदर सिंह का आना… साहित्य के क्षेत्र में आज तक का यह योगदान कल तक याद रखा जाएगा।
सुश्री जावेद मुझे स्वयं में किसी प्रगतिशील कवयित्री की कविता जैसी लगती हैं। पिछले दशक भर में लिखी गयी प्रगतिशील कविताओं का निचोड़ सुश्री उर्फी अपनी देह पर धारण कर घूमती हैं। सुविधाओं की तमाम मलाई चाटने और लंदन पेरिस घूमने के बाद भी प्रगतिवादी लेखक/कवि जो न कर सके, उर्फी ने वह कर के दिखाया है। उन्हें तो राष्ट्र के हर मंच पर होना चाहिये।
आजतक के मंच पर उर्फी और तम्मना का साहित्य 500 रुपये में बिक रहा है, और कुछ घोंचू कहते हैं कि देश में महंगाई है। भाई साहब! यदि तम्मना जी उस मंच पर अपनी कालजयी रचना “आंखों से लीजिये” की प्रस्तुति दे दें, तो उसपर करोड़ों न्योछावर किये जा सकते हैं। और उर्फी? तनिक कल्पना कीजिये कि उर्फी उन्ही वस्त्रों में उपस्थित हो जाँय जिसके लिए उनकी ख्याति है। भइया जी! दिल्ली का बौद्धिक वर्ग अपना दिल जिगर गुर्दा कलेजी लुटा देगा…
मुझे साहित्य आजतक के मंच पर जा रहे लेखकों शायरों से जलन हो रही है। जिस मंच पर उर्फी के कदम पड़ रहे हैं, वह मंच शायरों के लिए जन्नत के समान है। उस मंच पर नाक रगड़ लेना मैग्सेसे और बुकर पुरस्कार प्राप्त कर लेने जैसा है। उस मंच की मिट्टी चूम लेना भी गालिब और मीर हो जाने जैसा है।
पिछले कुछ दशकों से हिन्दी के लेखक कवि रोते रहते हैं कि किताबों, पत्रिकाओं को पाठक नहीं मिलते। मैं कहता हूं आप हर पत्रिका के कवर पर सुश्री उर्फी की तस्वीर लगाइए, फिर देखिये कमाल। हंस जैसी पत्रिका को भी हजार दो हजार लोग न पढ़ने लगें तो कहियेगा…
मुझे उम्मीद है कि अब हिन्दी के हर कवि, हर शायर का अंतिम लक्ष्य सुश्री उर्फी के साथ कविता पढ़ना होगा… हर शायर उर्फी को अपना आदर्श मानेगा, हर कवि उर्फी पर कविताएं लिखेगा। दूसरों को क्या ही कहें, बातों बातों में ही हमने भी चार पंक्तियां ठोक मारी हैं। मुलाहिज़ा फरमाइए…
गजल उर्फी, बहर उर्फी, नज्म उर्फी, सुखन उर्फी
सहन उर्फी, कि घर उर्फी, शहर उर्फी, वतन उर्फी
निछावर जान यह जावेद की लख्ते जिगर पर है,
उन्हें ही हक है जीने का कि जिनका तन बदन उर्फी…
सर्वेश बाबा,
लाइव फ्रॉम मोतीझील…
साभार: सर्वेश कुमार तिवारी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)