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नेस्तनाबूद नहीं होगा जब तक बॉलीवुड, नवोदय कहां से होगा?

-विशाल झा की कलम से-

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Positive India:Vishal Jha:
जब भी रामायण के फिल्मिंग की बात आती है, रामानंद सागर अवश्य याद किए जाते हैं। तुलना आरंभ हो जाता है। आदिपुरुष वाले फिल्म को वाल्मीकि रामायण पर आधारित होने का दावा करते हैं। रामानंद सागर कहीं दावा करते नहीं नजर आते, आग्रह करते नजर आते हैं। रामानंद सागर की रामायण से बाकी रामायण की तुलना ‘क्या फर्क है’ प्रश्न पर आधारित होता है। जबकि ‘क्यों फर्क है’ पर विमर्श करेंगे तो ना केवल उत्तर मिलेगा, हल भी मिलेगा।

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बॉलीवुड की फिल्में स्टारडम पर बनती है। अर्थात स्टार के हिसाब से कौन सी फिल्म सटीक बैठेगी, उसका चुनाव किया जाता है। साफ शब्दों में कहें तो स्टार के हिसाब से फिल्में चुनी जाती हैं और यदि वह स्टार उस फिल्म के लायक ना हो तो जबरन उसे उस फ्रेम में डालने की कोशिश की जाती है। रामानंद सागर ने रामायण के फिल्मांकन के लिए नायक चुना था। बड़ी मशक्कत करके चुना था। पहला और सबसे सरल अंतर तो यही है। बॉलीवुड स्टार के लिए फिल्म का चुनाव करता है।

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अरुण गोविल आज भी जहां किसी एयरपोर्ट अथवा पब्लिक प्लेस पर पाए जाते हैं, लोग उन्हें जिस श्रद्धा से नमन करते हैं, सिर्फ एक धारावाहिक ने उन्हें नायक बना दिया। यही एक सिनेमा की भी ताकत है। जब सिनेमा बनाने वाला सिनेमा के साथ पूरी ईमानदारी बरतता है, उसके धर्म की रक्षा करता है, तब सिनेमा भी अपने अभिनेताओं के साथ पूरा न्याय करता है। और समाज में उसे एक अलग ही स्टारडम देता है। बॉलीवुड वालों ने सिनेमा के साथ बहुत पाप किया है। आज भी लगातार करते जा रहे हैं। यही कारण है कि स्टारडम में बादशाहत, दबंगई और परफेक्शनिस्ट जैसा तमगा बंटने के बावजूद भी लोग बॉलीवुड वालों पर थूकते हैं। अरुण गोविल की तरह पूजे नहीं जाते, कम से कम सम्मान तो बचा रहता।

रामायण से पहले के अरुण गोविल और रामायण के बाद के अरुण गोविल दोनों में बहुत फर्क है। अरुण गोविल पहले एक साधारण विचार के आम मानव थे, जिसमें प्रेम और करुणा जैसे तमाम धर्मघटकों का एक सामान्य स्तर पाया जाता है। आज अरुण गोविल इतने धर्मनिष्ठ अवश्य हैं कि एक राम की मर्यादा को अपने आचरण में संभाल कर रखे हुए हैं। यही एक सिनेमा की पवित्रता है, जो उसके अभिनेताओं को प्राप्त होती है। भगवान राम का किरदार करने के बाद प्रभास आदिपुरुष फिल्म से यदि इतनी पवित्रता प्राप्त नहीं करता है, तो इसका मतलब है कि उसने इतने बड़े किरदार के साथ अन्याय किया है।

आदिपुरुष के निर्माण में, उदाहरण के तौर पर एक प्रश्न लेता हूं कि, बूढा प्रभास ही क्यों चाहिए? 42 वर्ष जिसकी उम्र है। क्या सवा सौ करोड़ के भारत में अभिनय करने वालों का अकाल पड़ गया है। लोगों को सिनेमा चाहिए या स्टारडम? फिल्म एकेडमी में 24-25 वर्ष के युवा दाखिल नहीं हैं क्या? वाल्मीकि रामायण पर फिल्मांकन सिनेमा के लिए एक महत्वपूर्ण विषय है। और इसको स्टारडम की भेंट चढ़ा कर सिनेमा का धर्म भ्रष्ट किया जा रहा। तो बहिष्कार ही होगा न? नेस्तनाबूद नहीं होगा जब तक बॉलीवुड, नवोदय कहां से होगा?

साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार है)

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