Positive India:Kanak Tiwari:
जवाहरलाल नेहरू के दौरान कामराज योजना जरूरतों के अनुसार लागू हुई। कांग्रेस सत्तामूलक अहंकार, लगातार हुकूमत या आकलन की गलतियों के कारण पहले भी चुनावों में हारी है। शीर्ष नेतृत्व को लगा कि विभीषण और मीर जाफर तो गैरों से गलबहियां, बतकहियां, कनफुसिया कर रहे हैं। ताकतवर तथा आत्मविश्वास से लबरेज इंदिरा गांधी ने काॅरपोरेटी समर्थक कथित सिंडिकेट से दखलंदाजी और मतभेद के कारण पार्टी संविधान को दरकिनार कर संगठन में ही दो फांक कर दिए। इंदिरा ने संविधान को फकत किताबी बयान का हुक्मनामा कहते ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ताओं का जोश और समर्थन हासिल किया। परम्परागत कांग्रेसी धड़ा नवगठित इंदिरा कांग्रेस के सामने बौना होता गया। दो साल इंदिरा गांधी ने कम्युनिस्टों की मदद से सरकार चलाई। तयशुदा कार्यकाल के एक साल पहले 1971 में लोकसभा चुनाव कर दो तिहाई सीटें जीत लीं। देश और कम्युनिस्टों के साथ किया वादा निभाते कांग्रेस को वामपंथ की ओर झुका दिया।
चाटुकारों, चुगलखोरों और गलत सलाहकार मसलन मंत्रियों बंशीलाल, ओम मेहता, सिद्धार्थशंकर राय, विद्याचरण शुक्ल तथा संजय गांधी आदि के कारण देश पर थोपे गए आपातकाल ने इंदिरा शासन को कलंकित कर दिया। कद्दावर काठी की नेता ढाई साल में ही जनसंघ और समाजवादी पार्टियों आदि के गठजोड़ से बनी जनता पार्टी सरकार गिराकर सत्ता पर फिर काबिज हो गई। इंदिरा की हत्या से उपजी सहानुभूति की कांग्रेस-सत्ता राजीव गांधी सुरक्षित नहीं रख पाए। 1989 की हार के बाद राजीव की अगुआई में दो वर्ष में ही विरोधियों की एकता को ध्वस्त करते कांग्रेस ने फिर सरकार बनाई। कार्यकर्ताओं ने हर वक्त संघर्षशील नेताओं का ही साथ दिया। कांग्रेस से तो जगजीवनराम, चंद्रशेखर, नारायणदत्त तिवारी, अर्जुनसिंह, पी.ए. संगमा, शरद पवार वगैरह भी छिटकते रहे।
राहुल गांधी उलट चल पड़े हैं। इंदिरा ने अवसाद को आक्रोश और राजीव ने अवसाद को आत्ममंथन में बदला। राहुल अवसाद को पलायन का नकाब ओढ़कर पस्तहिम्मती को खुद्दारी में बदलने के नये प्रयोग के सूत्रधार बनने की कोशिश में हैं। होना चाहिए था कि आत्मप्रताड़ना को हटाकर बेलौस साहस से कहते कि मैं तो जिम्मेदार हूं। फिर तत्काल जिम्मेदारी का बंटाधार करने वाले क्षत्रपों और सूबेदारों को इस्तीफा देने का हुक्म देना था। पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष शराफत का चोला ओढ़कर सहायकों से इस्तीफा मांगने इशारे करता रहा। सत्ता की शहद चाटते कांग्रेसी अनमने ढंग के साथ कुर्सियों से चिपके हुए हैं। राहुल ने कांग्रेस संगठन चरित्र की ही उलटबांसी कर दी। शेर दहाड़ता है तो पेड़ों पर लटके बंदर यूं ही टपक जाते हैं। अब जो बच गए मंत्री ओहदेदार हैं वे बेहद सुरक्षित होकर ढीठ हो सकते हैं। भाजपा का दलबदल का अश्वमेध घोड़ा राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ क्यों नहीं पहुंचने की जुगत बिठाएगा?
लोकसभा चुनाव में करारी हार से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पद से इस्तीफा देकर उसे तूल देने की लम्बी पारी बना दिया। पहले लगा केवल खीझ या आक्रोश की सनसनीखेज खबर है। कांग्रेस कार्यसमिति, नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा मानमनौअल के बाद भी राहुल ऐलान पर अड़े रहे। खबर है पार्टी ने डा0 कर्ण सिंह आदि के कहने पर उत्तराधिकारी ढूंढ़ने का मन बनाया है। बशर्ते कोई खरा सिक्का मिले तो। 1885 में स्थापित कांग्रेस आधुनिक भारत की सबसे पुरानी पार्टी है। पांच दशकों से ज्यादा देश और प्रदेशों पर लगभग एकक्षत्र राज्य किया। किसी पुरानी इमारत की तरह उसके दरवाजे, खिड़कियां घुन खाने लगे। दीवारों पर पलस्तर ढीला होने लगा। नींव कमजोर होती लगी। अब बुनियाद के ही हिलने जैसा अंदेशा भाजपा, रामदेव और कई आलोचक बता रहे हैं। कभी कांग्रेसी होना समाज में इज्जत, हुकूमत में दबदबा और जनमानस में लोकसेवक चेहरा उगाता था। कई कांग्रेसियों के जातिवादी, काॅरपोरेटीपरस्त और भ्रष्ट मुख्यमंत्रियों सहित उनके चेहरे कार्टून के ग्राफिक्स में तब्दील हो गए लगते हैं।
राहुल के सार्वजनिक पत्र का मजमून आॅक्सफोर्डी, हाॅरवर्डी नस्ल या सयानी समझ के किसी गैरबौद्धिक छद्म लेखक ने लिखा हो। वह इबारत सबसे पुरानी पार्टी चुनाव में हारने के कारण उसकी ऐतिहासिक समझ को ही तहसनहस करती है। पराजित पोरस ने सिकंदर से कहा था वे उनके साथ वैसा ही सलूक करें जैसा एक राजा दूसरे के साथ करता है। बहरहाल नेहरू-गांधी वंशवाद का आरोप तो घिस चुका सिक्का है। व्यापार, राजनीति, न्यायपालिका और फिल्म जगत वगैरह में वंशवाद ही वंशवाद है। राजनीति में वंशवाद तो जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं के समर्थन से ही पनपता है। दूर दूर तक कांग्रेस में कोई ऐसा नेता लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विकसित ही नहीं हुआ जो कार्यकर्ताओं को अपने चुंबक होने का अहसास करा पाए। कार्यकर्ताओं का अवमूल्यन दोनों बड़ी पार्टियों में है। फिल्म स्टार, खिलाड़ी, काॅरपोरेटी तत्व, अंगरेज़ीदां, दल बदलू, अपराधी, हिंसक लोग राजनीतिक पार्टियों की बैसाखी बने हुए हैं। उनकी देह में न फाज़िल गिरी है न लकवा लगा है। फिर भी बड़े नेता कार्यकर्ताओं के ईमान पर बोली लगाकर उन्हें बेच देना चाहते हैं। लोकतंत्र में पार्टियों की नसों में कार्यकर्ताओं का खून बहता है। यह संदेश भी राहुल गांधी को वक्त के माथे पर शिलालेख की तरह पढ़ लेना चाहिए।
कांग्रेस के साथ अजूबा है। विदेशी होने के बावजूद विवाह के बाद भारत में आत्मसात सोनिया गांधी ने बार बार बिखरती कांग्रेस को फेविकोल बनकर कायम रखा। यह करतब आज भी है। उन्होंने नहीं सम्हाला होता तो कांग्रेस सत्ता में कहां लौट पाती! कांग्रेस केवल चुनाव प्रबंधन के कारण नहीं हारी। अपनी जनसमर्थित आइडियोलाॅजी को भूल जाने के कारण उसके परखचे उखड़ गए। गांधी नेहरू का आदर्शवाद रंगरोगन लगाकर आज भी नई इमारत में पेंट किया जा सकता था। नेहरू की बौद्धिकता, लालबहादुर शास्त्री का चरित्र, इंदिरा के साहस और राजीव के संयम से मौजूदा कांग्रेस ने कहां कुछ सीखा? इस्तीफा हड़बड़ी, आत्ममुग्ध असफलता, राजनीतिक परिस्थितियों के गलत आकलन और चुनावी राजनीति की पृष्ठभूमि में इतिहास के मूल्यों के आईने के सामने नहीं खड़े होने की गलती है।
वे गाय, गंगा, राम, धर्म, हिन्दू, दलित आदिवासी, स्वदेशी अभिव्यक्तियों को हाइजैक करते रहे। कांग्रेस ग़ाफिल रही है। अब भी है। अब तो खरीदफरोख्त के नीलाम-बाजार में कांग्रेसी विधायकों और सांसदों के रेट का सेंसेक्स उछल रहा है। कांग्रेस को अपना संगठन मजबूत रखना था। पता नहीं राहुल गांधी को पढ़ने लिखने, सोचने और विमर्श करने की फुरसत मिली भी है या नहीं। कांग्रेस की भयानक हार के बावजूद दलबदल लाभार्थी भाजपा खुली और शर्मसार करने वाली सियासत से बचकर सबसे मजबूत विपक्षी पार्टी अपनी बुनियाद, कार्यक्रम और राजनीति को सक्षम तो दिखाई पड़ने दे? भविष्य कोई नहीं जानता। दकियानूसी है अपशकुन या शकुन की बाईं या दाईं आंख पहले से फड़कती जरूर है। इतिहास व्यक्तियों के चेहरों को ढोता नहीं है। वह लेकिन कहता ज़रूर है ‘वीर नहीं होंगे तो गीत गाने वाले मर जाएंगे।‘
साभार:कनक तिवारी