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उद्धव ठाकरे ने सुशांत सिंह राजपूत और मुकेश अंबानी को एक ही तराजू में बिठा दिया और फंस गए

उद्धव ठाकरे सरकार की पैंट उतार कर पूरी तरह नंगा कर दिया।

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Positive India:दयानंद पांडेय,18 मार्च 21:
उद्धव ठाकरे ने सुशांत सिंह राजपूत और मुकेश अंबानी को एक ही तराजू में बिठा दिया। और फंस गए। सुशांत सिंह राजपूत मामले में उद्धव ठाकरे ने अपने बेटे आदित्य ठाकरे को बचाने के लिए सारी नौटंकी की थी। सारे सुबूत मिटा कर बचा भी लिया। पर मुकेश अंबानी को डरा कर करोड़ो रुपए की उगाही में भी उद्धव ठाकरे शामिल हैं ? उम्मीद है कि महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार मुंबई पुलिस कमिश्नर परमवीर सिंह के हटाने भर से डैमेज कंट्रोल नहीं कर पाएगी। हमेशा , हर बिंदु पर जहर उगलने वाले , तिरछा बोलने वाले संजय राउत आज पहली बार नरमी से और झुक कर बात करते दिखे हैं तो यह अनायास नहीं है।

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तो एन आई ए की जांच क्या उद्धव ठाकरे तक पहुंचेगी। मुकेश अंबानी से उगाही का अपराधी सिर्फ पुलिसकर्मी सचिन वझे ही तो नहीं है। उस ने कहा भी है कि इस मामले में मैं अकेले नहीं हूं। रणनीति तो यही थी कि किसी तरह मुकेश अंबानी को दहशत में डाल कर बातचीत की मेज पर लाया जाए और करोड़ो , अरबों की उगाही कर ली जाए। पर इस साज़िश की रणनीति बनाने वाले भूल गए कि नरेंद्र मोदी और मुकेश अंबानी की दोस्ती सिर्फ़ राजनीतिक आरोपों तक नहीं है। सचमुच है। महाराष्ट्र सरकार इसी दोस्ती के फंदे में आ गई है। नरेंद्र मोदी की गिरह जो है सो है। मुकेश अंबानी को भी कम आंकने की ज़रूरत नहीं है।

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वाकये कई हैं। पर अभी एक ही वाकया बताता हूं।

मई , 2004 की बात है। तब मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी दोनों भाई अलग नहीं हुए थे। लोकसभा के चुनाव परिणाम आने के एक दिन पहले दोनों भाई दिल्ली आ गए। मकसद था , येन-केन-प्रकारेण मुलायम सिंह यादव को प्रधान मंत्री बनवाना। जैसी कि सब को उम्मीद थी कि लोकसभा में किसी भी को बहुमत नहीं मिलेगा , त्रिशंकु होगी लोकसभा। अंबानी बंधु को भी यही लगता था। ऐसे में जिस के पास ज़्यादा सांसद होते , वही प्रधान मंत्री। तो सांसदों की खरीद-फरोख्त की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए अंबानी बंधु ने दिल्ली में डेरा डाल दिया था। लेकिन जब चुनाव परिणाम आने शुरू हुए सुबह आठ बजे से तो ठीक आधे घंटे बाद साढ़े आठ बजे ही मुकेश अंबानी की समझ में आ गया कि अब मुलायम सिंह यादव प्रधान मंत्री नहीं हो सकते। अटल बिहारी वाजपेयी भी नहीं। यह बात सुबह साढ़े आठ बजे तक बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ और राजनीतिक टिप्पणीकार भी नहीं समझ पाए थे तब तक। लेकिन मुकेश अंबानी की समझ में आ गया था। मुकेश अंबानी ने बिना एक क्षण देरी किए सोनिया गांधी को फ़ोन किया कि आप के साथ चाय पीना चाहता हूं।

और यह देखिए आधे घंटे बाद ही सुबह नौ बजे अंबानी बंधु 10 , जनपथ पर सोनिया गांधी के साथ चाय पी रहे थे। फिर पूरे देश ने देखा , न अटल , न मुलायम , सोनिया के नेतृत्व में मनमोहन सिंह ने प्रधान मंत्री पद की शपथ ले ली थी। अटल तो अटल मुलायम भी आंख फाड़ कर अंबानी बंधु की यह दूर दृष्टि देखते रह गए। ऐसी दूर तक तुरंत देख लेने की कुछ उद्योगपतियों की अनेक कथाएं हैं मेरे पास। जिन्हें फिर कभी बांच दूंगा। वैसे जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री बने थे मुकेश के पिता धीरू भाई अंबानी से शुरू में दूरी बना कर रहने लगे। बड़ी कोशिशों के बाद राजीव गांधी धीरू भाई से सिर्फ दस मिनट के लिए मिले और पहले ही मिनट में बता दिया कि मैडम ने कुछ पैसे हमारे पास छोड़ रखा है , उस का क्या करना है ? मैडम मतलब इंदिरा गांधी।

राजीव गांधी की धीरू भाई अंबानी से दूरी तुरंत खत्म हो गई थी। तो अगर व्यक्तिगत अहंकार बीच में न आए तो तक़रीबन सभी उद्योगपतियों की हर सरकार से मीठे रिश्ते होते हैं। कुछेक अपवाद को छोड़ कर। सारे उद्योगपति सत्ता पक्ष के साथ-साथ प्रतिपक्ष को भी खूब चंदा देते हैं। तरह-तरह की मदद भी। बल्कि प्रतिपक्ष को ज़्यादा चंदा और मदद। ताकि प्रतिपक्ष उन के गड़े मुर्दे न उखाड़े सार्वजनिक रूप से। बाक़ी अंबानी , अडानी और मोदी की दोस्ती का उलाहना सिर्फ़ राजनीतिक शोशेबाज़ी होती है। नमक , मिर्च , मसाला और तेल भोजन की तरह कम , ज़्यादा होता रहता है।

अभी तो सचिन की गिरफ़्तारी के बाद मुंबई पुलिस कमिश्नर परमवीर सिंह को हटाया गया है। जांच की आंच अभी दूर तक जाएगी। जो भी हो विपक्ष इसे कहते हैं। जैसे कि महाराष्ट्र में भाजपा ने विपक्ष की भूमिका निभाई है। पूर्व मुख्य मंत्री देवेंद्र फडणवीस ने सुबूत दर सुबूत रख कर इस पूरे मामले को पानी की तरह पूरे देश के सामने रख दिया। उद्धव ठाकरे सरकार की पैंट उतार कर पूरी तरह नंगा कर दिया। राजनीति के नैतिकता और शुचिता का तकाज़ा तो यही है कि उद्धव ठाकरे सरकार तुरंत इस्तीफ़ा दे। पर वह शायद नैतिकता और शुचिता शब्द से परिचित ही न हों तो इस्तीफ़ा भी भला क्यों देंगे।

जैसे महाराष्ट्र में विपक्ष ने कमाल किया है , केंद्र में कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष को कान के लिए कौए के पीछे भागने के बजाय तथ्य के साथ आरोप लगाने का अभ्यास करना चाहिए। कभी शाहीनबाग़ , कभी मज़दूरों के पलायन , कभी किसान आंदोलन के बहाने दिल्ली को जालियावाला बाग़ बनाने जैसे लाक्षागृह के कुचक्रों के मार्फत देश को गृहयुद्ध में झोंकने की रणनीति से बाज आना चाहिए। सीधी और साफ़ राजनीति करनी चाहिए। लाक्षागृह रचना और राजनीति करना दोनों दो बात है।
साभार:दयानंद पांडेय(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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