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तुम्हें अपने बर्क़ पे नाज़ है हमें तीलियों पे ग़ुरूर है

-राजकमल गोस्वामी की कलम से-

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Positive India:Rajkamal Goswami:
सोमनाथ मंदिर पिछले हज़ार से अधिक वर्षों में १७ बार ध्वस्त किया गया और इतनी ही बार बनाया गया । हिंदुओं का देवता पत्थर में नहीं उसके हृदय में निवास करता है । पुरी में भगवान जगन्नाथ का विग्रह हम स्वयं ही मुहूर्त देख कर जिस वर्ष दो आषाढ़ पड़ते हैं बदल देते हैं । दीवाली पर तो मिट्टी की मूर्तियों की पूजा की जाती है । मिट्टी से ही पार्थिव शिवलिंग बना कर भी पूजा कर ली जाती है ।

पृथ्वीराज चौहान के पतन के दस वर्षों के भीतर ही पंजाब से बंगाल तक तुर्कों का क़ब्ज़ा हो गया । आज इस क्षेत्र में हज़ार वर्ष पुराना एक भी मंदिर नहीं मिलता । जब हर तरफ़ से आदमी हार जाता है तब भगवान के शरणागत हो जाता है । पंजाब में गुरु नानक देव जी ,बंगाल में चैतन्य महाप्रभु ,गुजरात में नरसी भगत , ब्रज में सूरदास ने भक्ति आंदोलन को जन्म दिया । मीराबाई महलों को छोड़कर कृष्ण भक्ति में दीवानी हो गईं । कबीर ने एक अलग ही अलख जगा दी ।

इन सभी भक्तों ने क्षेत्रीय भाषाओं का को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया । हिंदी हृदय प्रदेश में तुलसीदास ने साबित कर दिया कि कलम की ताक़त तलवार सें कहीं अधिक होती है । उनका रामचरितमानस अकेला हिंदी ग्रंथ है जिसे धर्मग्रंथ की मान्यता मिली हुई है । उन्होंने सारे कर्मकाण्ड, मंदिर दर्शन, मूर्ति पूजा आदि को उस घोर कलियुग में अनावश्यक घोषित करके नाम स्मरण को ही मोक्ष प्राप्ति के लिए पर्याप्त बता कर राम नाम को धर्मभीरु जनता के मनमंदिर में स्थापित कर दिया । राम का नाम जपना ही पूजा , यज्ञ और योग ध्यानादि से अधिक फलप्रद होता है ।

* सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार।
गुनउ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार॥102 क॥
भावार्थ:-हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, कलिकाल पाप और अवगुणों का घर है, किंतु कलियुग में एक गुण भी बड़ा है कि उसमें बिना ही परिश्रम भवबंधन से छुटकारा मिल जाता है॥102 (क)॥
* कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥102 ख॥
भावार्थ:-सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान्‌ के नाम से पा जाते हैं॥102 (ख)॥
चौपाई :
* कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥1॥
भावार्थ:-सत्ययुग में सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु को समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं॥1॥
* द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा॥2॥

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥

उस युग में जब प्रचार प्रसार के साधन नहीं थे तब तुलसी की मानस घर घर पहुँच गई । इसकी चौपाइयाँ दोहे छंद मंत्र बन कर दैनिक पूजा का अंग हो गए । तलवार की धार तले रौंदा जाता सनातन धर्म फिर सीना तान कर खड़ा हो गया ।

स्पेन में ७८० वर्षों तक इस्लामी राज के बाद ईसाई राज आ गया और अगले सौ वर्षों में इस्लाम धर्म का नामों निशान मिट गया । आज वहाँ बड़ी बड़ी मस्जिदें वीरान पड़ी हैं या चर्च में बदल ली गई हैं ।

आज तुलसीदास को कोई कुछ भी कह ले किन्तु उस अंधकार युग में हिंदू पुनर्जागरण के लिए सनातन धर्म उनका सदा ऋणी रहेगा ।

नाम राम को कल्पतरु कलि कल्याण निवास
जेहि सुमिरत भयो भांग तें तुलसी तुलसीदास

साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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