सच्चाई: राजपाल यादव जैसे कलाकार से एक बयान दिलवा कर लगभग बीस हजार का धंधा किया
-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-
Positive India: Sarvesh Kumar Tiwari:
पिछले कुछ वर्षों से एक पैटर्न देखने को मिलता है। दीवाली के सप्ताह भर पूर्व कोई सिनेमा कलाकार, या ऐसा ही कोई सेलिब्रिटी जिससे राइट विंग के लोग खार खाये बैठे हों, पटाखा नहीं फोड़ने का निवेदन करता है। उसके बाद राष्ट्रवादी जनता जोश में आती है और अधर्मियों को औकात दिखाने के लिए दोगुने पटाखे खरीदती और जलाती है। सही कह रहा हूँ न?
यह बात मन में बहुत दिनों से चल रही है, पर जानबूझ कर मैं दीवाली बीतने के बाद चर्चा कर रहा हूँ। भारत में पटाखों का कुल लीगल कारोबार लगभग छह हजार करोड़ का है। इससे लगभग दूना कारोबार छोटे स्तर पर, अवैध तरीके से होता है। और मजा यह कि इसमें अस्सी प्रतिशत गैर हिन्दू ही हैं।
देश में पटाखों की सबसे अधिक फैक्ट्रियां शिवकाशी में हैं। लगभग सत्तर प्रतिशत लीगल उत्पादन यहीं से होता है। और यहाँ के अधिकांश मालिक अहिन्दू हैं। है न मजेदार बात?
सम्भव है कि मैं गलत होऊं, पर अब यह विश्वास हो चला है कि आपकी भावना भड़का कर मूर्ख बनाया जाता है। जानबूझ कर विरोध में बयान दिलवाया जाता है कि आप जागें और अपना धन फूँक आएं, उनको दे आएं।
बारूद का आविष्कार नौवीं शताब्दी के आसपास चीन में हुआ था, और भारत में इसके बड़े पैमाने पर उपयोग का प्रमाण तेरहवीं शताब्दी में मिलता है। यदि उसके पूर्व आतिशबाजी का कहीं जिक्र मिले भी तो उसका माध्यम बारूद नहीं, कुछ और रहा होगा। बारूदी आतिशबाजी तेरहवीं शताब्दी के बाद की ही है। मजेदार बात यह है कि आतिशबाजी के लिए कोई हिन्दी शब्द मुझे याद नहीं आ रहा।
आज ही मैंने एक संत की वाल पर ‘अग्निवर्षा’ शब्द पढ़ा। मुझे याद है, आज से आठ दस वर्ष पूर्व तक होली के समय इस तरह का एक खेल होता था हमारी ओर। लोग लम्बे लम्बे लट्ठों में पुआल बांध कर मशाल जैसी चीज बनाते और होलिका दहन के बाद उसमें आग लगा कर दूसरे गाँव की ओर जाते। उधर दूसरे गाँव से भी इसी तरह की भीड़ आती और लोग देर तक आसमान में आग उड़ाते थे। यह परम्परा जाने कितनी सदियों से चली आ रही थी, जो अब समाप्त हुई है। पशुओं की बीमारी फैलने पर भी इस तरह के उपक्रम होते थे। तो स्पष्ट है कि अग्निवर्षा का माध्यम बारूद तो नहीं ही रहा होगा…
एक बात और! भारत में जातियां काम के हिसाब से बनी थीं। आप जानते हैं पटाखा बनाने का काम किस जाति के पास था? यह आप गूगल से सर्च कीजिये। और आपको बता दें, आज भी पटाखों का आधा से अधिक उत्पादन उसी जाति के लोग घरेलू उद्योग के रूप में करते हैं, और दो दिन में कई लाख कमाते हैं।
सम्भव है कि मैं जो सोच रहा हूँ वह गलत हो। मैं भी यही चाहता हूं कि मेरा आकलन गलत निकले। कोई मेरी बात तथ्यों के साथ काट दे तो मुझे प्रसन्नता होगी। पर अभी मुझे यही लगता है कि वे भावनाएं भड़का कर धंधा करते हैं। राजपाल यादव जैसे कलाकार से एक बयान दिलवाना दो लाख का भी काम नहीं, और धंधा लगभग बीस हजार करोड़ का है।
साभार:सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार हैं) पटाखा आतिशबाजी राजपाल यादव शिवकाशी
गोपालगंज, बिहार।