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त्रिवेणी के विलाप का यह विन्यास

-दयानंद पांडेय की कलम से-

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Positive India: Dayanand Pandey:
कल हम भी प्रयाग हो आए। गए थे एक पारिवारिक काम से। पर थोड़ा समय मिला तो कुंभ नगरी भी गए। जा कर कुंभ का जायज़ा भी लिया। गए थे संगम नहाने, गंगा नहा कर लौटे। पहले तो नाव नहीं मिली। पर जब ध्यान से देखा तो पता चला कि बीच नदी में जो नावों का कारवां सजा था संगम की दुकान के नाम पर वहां तो संगम था ही नहीं। पर क्या साधू-संन्यासी, क्या भक्तजन या कोई अन्य भी संगम नहीं नहाया इस पूरे कुंभ में। क्यों कि संगम तो अपनी जगह बदल गया था। संगम की जगह किले के पास आ गया है। उस संगम पर कोई नहाने गया ही नहीं। न ही प्रशासन ने इस पर कोई ध्यान दिया, न ही कोई व्यवस्था की। क्या यह सब भीड़ के नाते हुआ या लापरवाही के नाते? समझना बहुत आसान है। प्रशासन नपुंसक हो चुका है और लोग यथास्थितिवादी। तटस्थता की भी यह हद है। चकित तो धार्मिक गुरुओं का रवैया भी करने वाला है। किसी मीडिया का भी इस तथ्य पर कोई ध्यान क्यों नहीं गया यह भी हैरतंगेज़ है। संगम की शालीनता को इस सिस्टम ने कायरता क्यों मान लिया है यह समझना भी कुछ बहुत कठिन नहीं है। एक कविता की याद आती है:

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राजा ने कहा रात है
मंत्री ने कहा रात है
सब ने कहा रात है
यह सुबह-सुबह की बात है

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तो क्या यही हो गया है? कि सब ने सुबह-सुबह को रात स्वीकार लिया है। क्यों कि सरकार ऐसा चाहती है? कि सरकार और प्रशासन ने नहीं देखा कि कि संगम की जगह बदल गई है तो फिर किसी ने भी यह संगम के जगह बदलने पर गौर नहीं किया और संगम के बजाय गंगा में ही नहा-नहा कर धन्य होते रहे? पाप धोते रहे, पुण्य कमाते रहे। जान गंवाते रहे। यह कौन सी आस्था है या यह कौन सा धर्म है? कि किसी ने यह सोचने या देखने या कहने की ज़रुरत भी नहीं समझी कि संगम की जगह बदल गई है और कि सब को संगम में ही नहाना चाहिए? और कि प्रशासन को संगम में नहाने की व्यवस्था करनी चाहिए?

सोचिए कि संगम पर क्या अदभुत नज़ारा है कि एक तरफ से गंगा बहती हुई आती है पूरे वेग से और दूसरी तरफ से पूरे वेग से बहती आती है यमुना । न गंगा यमुना को डिस्टर्ब करती है न यमुना गंगा को। कोई अतिक्रमण नहीं। दोनों ही एक दूसरे को न रोकती हैं न छेंकती हैं। बड़ी शालीनता से दोनों मिल कर काशी की ओर कूच कर जाती हैं। और एक हो जाती हैं। प्रकृति का यह खूबसूरत नज़ारा औचक कर देता है। इस का औचक सौंदर्य देख मन मुदित हो जाता है। यह अलौकिक नज़ारा देख मन ठहर सा जाता है। दूधिया धारा गंगा की और नीली धारा यमुना की। मन बांध लेती है। मन में मीरा का वह गीत गूंज जाता है-चल मन गंगा यमुना तीर ! मन गुनगुनाने लगता है- तूं गंगा की मौज मैं जमुना की धारा ! गंगा-जमुनी तहज़ीब का चाव भी यही है। और यहां तो विलुप्त सरस्वती का भी संगम गंगा और यमुना के साथ है। त्रिवेणी का तार बजता है। मन उमग जाता है। अब भी जब संगम की जगह बदल गई है। तो यह संगम की जगह का बदलना भी क्या प्रकृति से निरंतर छेड़छाड़ का ही नतीज़ा है? या कि संतों और न्यायालय के दबाव के चलते गंगा का पानी ज़्यादा छोड़ दिया गया और यमुना का पानी कम छोड़ा गया। गंगा का प्रवाह प्राकृतिक होने के बजाय कृत्रिम हो गया, तेज़ हो गया और वह यमुना के क्षेत्र में ज़्यादा घुस गई। पर दोनों बहनों का बहनापा फिर भी नहीं गया। और आपस में शालीनता को वह समोए रहीं। संगम की पवित्रता और शालीनता जगह बदलने के बावजूद बनी रही। तो क्या विलुप्त सरस्वती ने भी अपनी जगह बदल ली होगी? विलुप्त सरस्वती का यह विलाप है कोई सुनने वाला? कोई पर्यावरणविद, कोई साधू-संन्यासी, कोई प्रशासन या फिर कोई और सही? प्रकृति का यह विलाप जो नहीं सुना गया तो प्रकृति हमारे साथ क्या करेगी, यह अंदाज़ा है क्या किसी को? सभी नदियां धारा बदलती हैं। गंगा और यमुना भी। पाट और पेट बदलती हैं। संगम की धारा और जगह भी बदलती है। पर इस तरह और इतना तो नहीं ही। बीते कई वर्षों से मैं जब भी कभी इलाहाबाद जाता हूं तो थोड़ा समय निकाल कर संगम भी ज़रुर जाता हूं। संगम की शालीनता को निहारने। संगम की शांत शालीनता मन को असीम शांति से भर देती है। दिन हो, दोपहर हो, शाम हो या सुबह , यह मायने नहीं रखता, संगम की शालीनता को मन में समोने के लिए। चल देता हूं तो बस चल देता हूं। खास कर शाम को उस की नीरवता मन में नव्यता से ऊभ-चूभ कर देती है। इक्का-दुक्का लोग होते हैं। और संगम की शालीनता को निहारने के लिए शांति का स्पंदन शीतलता से भर देता है। संगम को मन में समोना हो, उस की शालीनता को मन में थिराना हो तो शांति ज़रुर चाहिए। भीड़-भाड़ नहीं। सचमुच भीड़ से बच कर ही संगम का सुरुर मन में बांचने का आनंद है, सुख है और उस का वैभव भी। भीड़ में भी उस का वैभव हालां कि कम नहीं होता। तो कल जब भीड़ में भी गया तो संगम का वैभव कम नहीं हुआ। उस की शालीनता, उस का संयम भी बदस्तूर था। इस लिए भी कि संगम तो बिलकुल खाली था। निर्जन था। ऐसे जैसे किसी वन में हो, नगर में नहीं। भीड़ चाहे घाट पर हो चाहे सो काल्ड संगम पर, पर संगम की शांति बदस्तूर तारी थी उस पर। उस की शालीनता और शांति को सरस्वती घाट से आती-जाती नौकाएं भी चीर नहीं पा रही थीं। संगम का यह विलाप मेरे मन में और गहरा गया यह सब देख कर। संगम में नहाने की साध की तरह यह विलाप भी साथ हो लिया है और मैं मन मार कर गंगा में डुबकी मार कर निकल लेता हूं। उस गंगा में जिस गंगा को लोग और तमाम पर्यावरणीय रिपोर्टें चीख-चीख कर कह रही हैं कि गंदी हो गई है। राज कपूर अपनी फ़िल्म में गाना सुनवा गए हैं राम तेरी गंगा मैली हो गई। उस मैली गंगा में नहा कर, डुबकी मार कर मन फिर भी मुदित है। नहा कर निकलता हूं। कपड़े पहन कर जब चलने को होता हूं तो मेरे सहयात्री श्रीधर नायडू कहते हैं कि, ‘सर, आप की एक फ़ोटो ले लूं?’ मेरे हां कहने पर वह अपनी टेबलेट से मेरी फ़ोटो खींच लेते हैं।

श्रीधर से बस अभी रास्ते में ही टैंपो में परिचय हुआ है। हैदराबाद के रहने वाले हैं। रायपुर में रहते हैं। एक कंपनी में नौकरी करते हैं। किसी काम से बनारस जा रहे थे। रास्ते में इलाहाबाद पड़ा तो उतर गए। कुंभ का पुण्य कमाने के लिए। और रास्ते में मुझे मिल गए। शाम को मेरी भी लखनऊ वापसी की ट्रेन है और उन के बनारस जाने की। बात ही बात हम तय कर लेते हैं कि नहाते समय हम बारी-बारी एक दूसरे का सामान देखेंगे। वी आई पी घाट पर आ कर पता चलता है कि नाव तो सरस्वती घाट पर मिलेगी। यमुना पुल के पास। श्रीधर बहुत हैरान परेशान होते हैं संगम जाने के लिए। पर यहा से संगम जाने के लिए। पर सरस्वती घाट जाने के लिए फिर वापस तीन चार घंटे का उपक्रम होगा। रास्ते भर जाम का लफड़ा है। शाम की ट्रेन है। छूट जाने खतरा है। फिर वह और मैं खुद बहुत सारे जुगाड़ लगाते हैं संगम पर जाने खातिर नाव के लिए। पर कोई जुगाड़ बनता नहीं। फिर किले तक आते-जाते इस घाट से उस घाट तक मेरी नज़र अचानक संगम की बदली जगह पर पड़ती है। तो मैं हैरान परेशान हो जाता हूं। जिन पुलिस वालों से नाव की बात पहले कर रहा था उन्हीं से संगम के सवाल पर उलझ जाता हूं। तो एक पुलिस वाला वी आई.पी. घाट को इंगित कर के कहता है कि, ‘सारे साधू संन्यासी यहीं नहा कर गए हैं। शंकराचार्य से लगायत सारी वी.आई.पी. तक। किसी ने यह सवाल नहीं पूछा कि संगम तो वहां है यहां क्यों नहाऊं? आप ही एक नए आए हो जो यह सवाल पूछ रहे हो !’ मैं फिर जब यमुना की नीली धारा और गंगा की दूधिया धारा किले के पहले की तरफ दिखाते हुए कहता हूं कि, ‘संगम तो वह देखिए उधर है। न कि जहां नांवें लगी हैं उधर।’ यह सुन कर वह पुलिस वाला उस तरफ ध्यान से देखते हुए चुप लगा जाता है। तो मैं उसे टोकता हुआ कहता हूं संगम जब इधर है तो नहाने के लिए भी इधर ही नावें लगा कर व्यवस्था करनी चाहिए थी।’ और जब कई बार यही बात कहता हूं तो वह पुलिस वाला भन्ना जाता है। कहता है यह सब जा कर अखिलेश यादव से पूछिए। उन के पिता जी मुलायम सिंह से पूछिए। शिवपा्ल सिंह से, आज़म खान से पूछिए ! और मेरे पास से चला जाता हे तेज़-तेज़ कदमों से। श्रीधर नायडू जो संगम जाने के लिए लालायित हैं समझाता हूं कि कोई फ़ायदा नहीं वहां जाने से। संगम तो वह है नहीं। संगम तो इधर है जहां नहाने, जाने की कोई व्यवस्था नहीं है। सो यहीं नहाते हैं गंगा में। श्रीधर बड़बड़ाते हैं कि गंगा तो मुझे बनारस में भी मिल जाती। फिर यहां उतरना बेकार गया। मैं तो संगम नहाने आया था। अब यहां क्यों नहाऊं? खैर, पहले मैं नहाता हूं। श्रीधर मेरा सामान देखते हैं। नहा धो कर जब मैं ने कपड़े पहन लिए तो अचानक श्रीधर भी मचल गए। बोले, सर मैं भी नहा लेता हूं। और वह भी नहाने चले गए। नहा कर आए तो कपड़े पहनने के बाद बोले, सर आप की फ़ोटो खींच लूं? मैं ने कहा कि बिलकुल। फिर उन्हों ने अपनी टेबलेट से न सिर्फ़ फ़ोटो मेरी खींची बल्कि मेरी आई.डी. पूछ कर वहीं से तुरंत मुझे मेल भी कर दी।

अब हम लोग लौट रहे हैं। मेला हालां कि उजड़ चला है। धूल उड़ रही है। पर भीड़ बनी हुई है। इतवार होने के नाते स्थानीय लोग ज़्यादा हैं। पर बाहरी लोग भी कम नहीं हैं। भीड़ चल रही है अपनी गति से। अपने मूड से। अपने रंग से। कैलाश गौतम की कविता अमौसा क मेला मन में तिर जाती है- अमौसा नहाए चलल गांव देखा ! भीड़ चल रही है। साथ ही यात्रियों से लूट-पाट भी। क्या रिक्शा वाले, क्या आटो वाले और क्या नाव वाले सब के सब आने वालों को लूटने में एक दूसरे से आगे थे। एक किलोमीटर के लिए भी कोई दो सौ रुपए भी ले सकता था, पाच सौ रुपए भी। नाव वाले भी आठ सौ ले सकते हज़ार भी, दो हज़ार भी। प्रशासन और पुलिस मूक दर्शक थी।

स्टेशन पर भी भीड़ बहुत है। नहा कर लोग लौट रहे हैं और रेल के डब्बों में भेड़-बकरी की तरह ठुंस रहे हैं। कोई व्यवस्था नहीं है। कोई इधर हांक रहा है कोई उधर। यह दबे-कुचले निर्बल वर्ग के लोग हैं। एक ट्रेन में लोग सामान रखने वाले डब्बे में चढ़ गए हैं। बिलकुल भूसे की तरह। औरतें और बच्चे ज़्यादा हैं इन में। वृद्ध और अधेड़ लोग। कुछ रेल कर्मचारी आते हैं उन्हें कुत्तों की तरह दुत्कार-दुत्कार कर उतार रहे हैं। लोग इधर उधर भाग रहे हैं। ट्रेन के डब्बों में जगह नहीं मिल पा रही है। ट्रेन चल देती है। लोग प्लेटफ़ार्म पर दौड़ते रह जाते हैं। गिरते-पड़ते। पर ट्रेन नहीं मिलती, निकल जाती है। जो कुछ चढ़ गए हैं वह भी कूद-कूद कर चलती ट्रेन से उतर रहे हैं। क्यों कि बाकी परिजन प्लेटफ़ार्म पर रह गए हैं। चेहरे पर अब कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे! का भाव है। प्लेटफ़ार्म पर अब दूसरी ट्रेन आ गई है। लोग फिर इधर-उधर भाग रहे हैं। झोला, झंझट लिए हुए। चलने की क्षमता नहीं है पर दौड़ने की कोशिश जारी है। कुंभ में संगम नहाने के लिए, पुण्य कमाने के लिए यह यातना, अपमान और नर्क भुगतते लोगों को देख कर मन तकलीफ़ से भर जाता है। संगम की शालीनता का सारा सौंदर्य, औचक सौंदर्य मन से तितर -बितर हो जाता है।

मुझे नौचंदी से लौटना है। अचानक उस का प्लेटफ़ार्म बदल जाता है। लोग इधर-उधर हो रहे हैं। अजब अफ़रा-तफ़री है। अमावस्या की शाम का हादसा याद आ जाता है। मरे हुए लोगों के जूते-चप्पल और उन के परिजनों की चीख-पुकार याद आ जाती है। साथ ही दयाशंकर शुक्ल सागर की हिंदुस्तान में लिखी वह खबर भी मन में तैर जाती है एक भयावह दु:स्वप्न की तरह कि स्टेशन पर कफ़न पहले आ गए, डाक्टर और दवाएं बाद में। खैर कोई हादसा नहीं होता। हम सही-सलामत अपने डब्बे में आ जाते हैं।

मन में सवाल बदकता हुआ-सा बाकी है कि संगम की जगह तो बदल गई है मय अपनी शालीनता के। पर यह व्यवस्था कब बदलेगी भला? अपमान, यातना और नरक का यह कौन सा संगम है भला? कि आप संगम तक लोगों को पहुंचा तो देते हैं पर संगम नहाने की व्यवस्था नहीं करते। लोगों के सम्मान से आने-जाने की सुविधा नहीं दे सकते। अपमान, तिरस्कार और मृत्यु की इस त्रिवेणी के तार कब टूटेंगे भला? गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी का विलाप भी यही है शायद ! सुबह-सुबह को रात कहने की यह रवायत और राजा की ज़िद अब टूटनी ही चाहिए। राजा की रात की बात को मानने का सूर्यास्त अब बहुत ज़रुरी हो गया है। आखिर् यह कब तक चलेगा कि कफ़न पहले आ जाएंगे और डाक्टर और दवाएं बाद में। त्रिवेणी के विलाप के इस विन्यास को अब सूर्योदय में बदलना ही होगा।

साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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