Positive India:Dr.Chandrakant Wagh:
आज पितृ दिवस है । संयोग से मैं अपने पिता स्व.डा.रामचन्द्र विनायक वाघ को श्रद्धांजलि देने के लिए ही लिख रहा हूँ । समय कैसे बीतता है, पता ही नहीं चलता। आज से तिरालीस साल पहले सत्रह जून सन उन्नीस सौ सत्तर को मात्र सडसठ साल की आयु मे मेरे पिता का निधन हुआ था । अचानक हुई मृत्यु से हम लोग हतप्रभ थे ।
मैं अब उस सफर को याद कर रहा हूँ जब लोग कम संसाधनो मे भी कुछ बनने की जिद्द रखते थे । जब इंसान मे हौसला हो, तो मंजिल अपने आप तय हो जाती है । पश्चिम महाराष्ट्र का वो छोटा सा गांव “नांदवल” जहां आज भी पहुचने मे मशक्कत करनी पड़ती है । नांदवल सातारा जिले की एक छोटी जगह, जहां से सबसे पास का रेलवे स्टेशन “वाठार” भी करीब दस से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर है । मेरे पिता एक कृषक परिवार में पैदा हुए थे । उस समय शिक्षा की उपलब्धता भी आसान नहीं थी । आवागमन के साधनों की कमी हर उस वयक्ति के लिए तकलीफ़ देह थी । किसी भी बड़े जगह जाने के लिए कम से कम दस से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पैदल तो तय करनी ही पड़ती थी । फिर वाठार से ही कहीं जाने की सुविधा थी ।
मेरे पिता जी की पढ़ाई की जिद्द ने अपनी आगे के पढ़ाई के लिए उन्हे आखिर अपने मामा के यहाँ सातारा पढ़ने के लिए रहना पड़ा । शायद उच्च शिक्षा सातारा मे ही रही होगी । मैट्रिक करने के बाद एक चिकित्सक बनने की लालसा में, जब मेडिकल कालेज की काफी कमी थी, ऐसे में उन्होंने अहमद नगर के आयुर्वेदिक कालेज में प्रवेश लेकर वहाँ से स्नातक किया । तब वहाँ पर आयुर्वेद तीर्थ की डिग्री दी जाती थी । फिर मेरे पिता सर्विस के कारण तत्कालीन मध्यप्रदेश आए । उस समय चिकित्सकों की बहुत ज्यादा कमी थी । उस समय एक आयुर्वेद चिकित्सक के तौर पर जनपद मे मगरलोड से लगा हुआ गांव भैंसमुडी में नियुक्त हुए थे । आज भी यातायात के साधन की सुविधा के बाद भी जाने मे तकलीफ है । उस समय तो रायपुर आना, याने पहले या तो पैदल या फिर बैलगाड़ी मे कुरूद तक को आओ, फिर छोटी ट्रेन से रायपुर आओ । पूरे दिन भर से कम की यात्रा नहीं रहती थी । उन्हे अपने गांव जाने के लिए, पहले मुंबई, वहाँ से वाठार, फिर पैदल चलकर गांव नांदवल ।
भैंसमुडी जैसे गांव मे रहना और चिकित्सक के तौर पर काम करना कोई साधारण बात नहीं थी । सुविधा विहीन गांव मे उस समय के एक चिकित्सक का रहना, अपने काम की प्रतिबद्धता बताता है। इसी समर्पण ने उनको भैंसमुडी जैसे छोटे गांव में बांधे रखा । गांव मे रहने वाले होने के कारण शायद ज्यादा तकलीफ नही हुई होगी, पर कल्चर और भाषा की तकलीफ हुई होगी । पर वो वहां से छत्तीसगढ़ी बोलना अच्छे से सीख गये ।
इसी बीच उनका एक एक्सीडेंट भी हुआ था। मुंबई से लौटते समय पानी के लिए, इगतपुरी स्टेशन में पानी के लिए उतरे। ट्रेन चालू हुई, तो जो डब्बा सामने दिखा, दादा उसी मे चढ़ गये। उनके साथ तीन चार और यात्री भी चढ़ गए। मिलिट्री कोच था, जिसमें सामान्य यात्रियों के लिए मनाही थी । उस समय कोच मे उपस्थित किसी जवान ने धक्का दे दिया। पिता जी के सामने तीन यात्रियों की तो मृत्यु ही हो गई । पिता जी का पैर कटा था, जिसे जोड़ दिया गया । पर हर समय के लिए एक अपंगता आ गई । शायद उस जमाने मे सैनिकों का गुरूर था, जिसे उन्हे ऐसा काम करने मे हिचक भी नही आई ।
इसी बीच तत्कालीन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री स्व.पं रविशंकर शुक्ल के प्रयास से रायपुर मे तीन वर्षीय डिप्लोमा कोर्स आयुर्वेद कालेज रायपुर में चालू हुआ । वहां मेरे पिता लेक्चरर नियुक्त हुए । मेरे पिता को पढ़ना और पढ़ाने का बहुत शौक था । उनके पसंदीदा विषयों मे प्रसूति तंत्र, बाल रोग और कायचिकित्सा था । उनको श्लोक कंठसथ थे । आयुर्वेद के अच्छे ज्ञाता और शिक्षक थे । उस समय के प्रतिष्ठित ऐलोपैथीक चिकित्सक जिसमें स्व.डा.रामजी बैस, स्व.डा.कुलकर्णी और दुर्ग के प्रतिष्ठित चिकित्सक डा.पाटनकर आदि चिकित्सक आयुर्वेद के चिकित्सा के लिए मरीजों को भेजते थे ।
आज वो बात भी श्रद्धांजलि मे लिख रहा हू । हम सब परिवार रजबंधा मैदान में लगने वाले मीना बाजार गये थे । वहाँ पर दादा को घबराहट महसूस हुई, तो वो एक जगह बैठ गए । जब हम लोग मीना बाजार देख कर घर आए, तो रात को हमारे मकान मालिक व आजू बाजू के लोग दादा क्या कर रहे है, पूछने लगे, तो आई ने कहा खाना खा रहे हैं । तो सब आश्चर्य मे पड़ गए । तब उनहोंने बताया कि राजकुमार कालेज के सामने एक एक्सीडेंट हुआ है । रिक्शा चालक ने बताया कि वो सवारी आयुर्वेदिक कालेज से ला रहा है । पोशाक भी उसने बताई और टोपी पहने हुए बताया, तो सब जगह यह खबर फैल गई कि डा.वाघ का एक्सीडेंट हुआ है । पर यह बात तय है, जब एक्सीडेंट हुआ, उस समय दादा को भी बहुत बेचैनी थी । पर बाद में पता चला कि दुर्घटना श्री बैजनाथ मल्होत्रा जी की हुई थी । बाद मे इलाज के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गई थी । मल्होत्रा जी कोई और नही, मेडिकल कालेज के एनाटॉमी के प्रोफेसर डा. टी.एन.मल्होत्रा सर के पिता थे । यह एक्सिडेंट दस अक्टूबर सन उन्नीस सौ पैंसठ को हुआ था । सर उस समय आयुर्वेदिक कालेज कैम्पस मे रहते थे। उनके पिताजी, अपने भतीजे, जो इलाहाबाद बैंक में थे,उनसे मिलने गये थे। लौटने मे यह हादसा हुआ था।
इस लेख को लिखने से पहले, जो बात मैंने बचपन मे सुनी थी, यह सच है कि नहीं, इसलिए मैंने आज डा.मल्होत्रा सर से बात की । सर ने इस बात की तसदीक की तथा वो उस क्षण के यादों मे खो गए।सर ने कहा कि उन दिनों आयुर्वेदिक कालेज तक का बीच का भाग खाली था । सर ने यह भी कहा कि दूसरे दिन मेडिकल कॉलेज की नींव रखी जानी थी । पर उन्हे इस बात की हैरानी थी कि दस साल के बच्चे को इतना याद है । पर सर की याददाश्त को मेरा सलाम! मेरा नाम उन्हे अभी भी अच्छे से याद है!! चंद्रकांत बोल रहे हो न? यही तो उन्होंने पूछा था मुझसे ।
पंद्रह जून सत्तर को मेरे बड़े भाई की सगाई हुई थी। घर मे खुशी का माहौल था । पर एक दिन बाद ही दादा को हार्ट अटैक आया, बगैर किसी इलाज के वे नहीं रहे । सब छोटे थे। सबकी पढ़ाई आदि सब बाकी था । तब आई ने दोनों की जिम्मेदारी निभाई, जिसके कारण हम आज सभी अच्छे है । पर आज भी हम उनकी कमी महसूस करते हैं ।
दादा की वो पोशाक ही उनको सबसे अलग करती थी । पैजामा और वो फुल बांह का कुर्ता या फिर धोती, उपर टोपी ; कभी विशेष मौके पर कोट । शुद्ध महाराष्ट्र की पोशाक। गांधीवादी और कांग्रेस के विचारधारा के थे । एक चिकित्सक के साथ-साथ वो अच्छे लेखक भी थे । अपने विषयों से संबंधित लेख समाचार पत्रों में लिखा करते थे । मुझे आज भी याद है, लकवा या पक्षाघात पर तिवरा दाल पर लेख नवभारत मे आया था । शायद तिवरा दाल के कारण लकवा होने की बात और ध्यान उन्होंने ही खींचा था । मै भी उनकी परंपरा को निभा रहा हू । आज तक मै आप लोगों के लिए लिखता था । पर पहली बार मैंने अपने लिए लिखा है, अपने पिता को श्रद्धांजलि देने के लिए लिखा है । हम सबकी तरफ से विनम्र श्रद्धांजलि!
• बस इतना ही।
लेखक: डा.चंद्रकांत रामचन्द्र वाघ-अभनपूर ।