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90 साल की भरी-पूरी उम्र में सिनेमा का यह शलाका-पुरुष श्याम बेनेगल विदा हुआ है,उनकी फ़िल्में देखकर ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit-:
अनेक विश्लेषकों का मत है कि सत्यजित राय के बाद भारतीय सिनेमा में सबसे महत्त्वपूर्ण निर्देशक श्याम बेनेगल थे। ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, गिरीश कासरवल्ली, अडूर गोपालकृष्णन्, मणि कौल, बुद्धदेब दासगुप्ता आदि की विराट उपस्थिति के बावजूद इससे असहमत होने का कोई उपाय नहीं दिखता।

और ऐसा केवल इसलिए नहीं कि श्याम बेनेगल ने बहुत अच्छा सिनेमा बनाया, बल्कि इसलिए भी कि 1970 और 1980 के दशक में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण फ़िल्म आन्दोलन के वे अगुआ, उसकी केन्द्रीय उपस्थिति थे। ‘श्याम बेनेगल एज़ ए फ़िल्ममेकर’ से अधिक ‘श्याम बेनेगल एज़ एन इंस्टिट्यूट’ हिन्दी सिनेमा के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण परिघटना पिछले चालीसेक सालों में रही।

अलबत्ता ‘भुवन शोम’; ‘उसकी रोटी’; ‘सारा आकाश’; ‘मायादर्पण’ आदि फ़िल्में पहले ही आ चुकी थीं, लेकिन हिन्दी में समान्तर सिनेमा आन्दोलन की विधिवत शुरुआत ‘अंकुर’ से ही मानी जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि स्वतंत्र फ़िल्म निर्माण के नए प्रतिमान तब बेनेगल ने स्थापित किए थे।

70 के दशक तक यह स्थिति थी कि अगर कोई निर्देशक मुख्यधारा के सिनेमा से अलग ‘कला फ़िल्में’ बनाना चाहता था तो उसे फ़िल्म फ़ाइनेंस कॉर्पोरेशन (एफ़.एफ़.सी. और बाद में एन.एफ़.डी.सी.) से वित्तीय मदद लेनी पड़ती थी। लेकिन चूँकि ये गवर्नमेंट बॉडीज़ थीं, लिहाज़ा सरकारी दख़ल उनमें अवश्यम्भावी रूप से बना रहता था। बेनेगल ने इस परिपाटी को तोड़ा और ब्लेज़ इंटरप्राइज़ेस नामक एजेंसी को भरोसे में लेकर उसके साथ नाममात्र के बजट पर ‘अंकुर’, ‘निशान्त’ और ‘भूमिका’ बनाई। फिर, आंध्र प्रदेश के अपने मित्रों की मदद से ‘कोंडुरा’ बनाई। को-ऑपरेटिव संस्थाओं की मदद से ‘आरोहण’, ‘सुसमन’ और ‘अन्तर्नाद’ बनाई। दूरदर्शन के लिए 53 घंटे का महाआख्यान ‘भारत एक खोज’ बनाया।

लेकिन सबसे नायाब उदाहरण ‘मंथन’ का है। इस फ़िल्म के निर्माता गुजरात के पाँच लाख से भी अधिक ग्रामीण थे। गुजरात को-ऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फ़ेडरेशन के इन ग्रामीण सदस्यों में से प्रत्येक ने दो रुपये दिए और इस तरह दस लाख के बजट से यह सुंदर फ़िल्म बनाई गई। सिनेमा के इतिहास में इस तरह से कोई फ़िल्म बनाने की मिसाल आपको दूसरी नहीं मिलेगी।

हालाँकि कालान्तर में बेनेगल को शशि कपूर जैसे लोकप्रिय सितारे का साथ मिला, जिन्होंने निर्माता-अभिनेता के रूप में बेनेगल के साथ दो फ़िल्में बनाईं- ‘जुनून’ और ‘कलयुग’। दोनों ही बेहद मनोरंजक, कसावट से भरी और सार्थक फ़िल्में। श्याम बेनेगल कला-फ़िल्मों के निर्देशक होने के बावजूद कभी भी स्लो, ऊबाऊ या रूढ़िगत रूप से रूपवादी नहीं रहे थे। ‘त्रिकाल’ को ही ले लीजिये- उस फ़िल्म की कथावस्तु और उसमें बेनेगल के आख्यायक की सौंदर्य-दृष्टि अत्यन्त रुचिकर है। या फिर, ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ का बहुस्तरीय, नॉन-लीनियर नैरेटिव!

नसीरुद्दीन शाह श्याम बेनेगल की ही खोज थे। उन्होंने नसीर को सबसे पहले ‘निशान्त’ में अवसर दिया और उसके बाद नसीर समान्तर सिनेमा आन्दोलन का प्रतिनिधि चेहरा बन गए। स्मिता, शबाना, ओम पुरी, अनंत नाग, कुलभूषण खरबंदा- इन्हें भी सबसे पहले बेनेगल ने ही अवसर दिया। गोविन्द निहलानी उनके सिनेमैटोग्राफ़र थे, आगे चलकर बेनेगल के आशीर्वाद से वो स्वतंत्र निर्देशक बने। कल्पना लाजमी उनकी सहायिका थीं। वे भी कालान्तर में समर्थ निर्दे​शिका बनीं। वनराज भाटिया, प्रीति सागर, शमा ज़ैदी, मोहन अगाशे… बेनेगल स्कूल से निकले नामों की शृंखला जैसे अन्तहीन है। वे एफ़टीआईआई की तरह पृथक से सिनेमा की एक यूनिवर्सिटी रहे थे।

श्याम बेनेगल के सिनेमा में हम समाज के विभिन्न स्तरों पर उपस्थित शक्ति-संरचनाओं को परस्पर संघर्ष में देखते हैं। बाज़ दफ़े ये टकराव अन्तर्संघर्ष और आत्म-विघटन की स्थिति तक पहुँच जाते हैं। उनकी फ़िल्मों में क्रांतियों और विप्लवों के बीज फूटते हैं और वे विफल भी होती हैं। सामाजिक व्यतिक्रम वहाँ हमेशा स्वयं को प्रश्नांकित और रेखांकित पाता है। उन्हीं के बीच में प्रेम और चाहना की कहानियाँ विकसती हैं। शोषण और दुराव के नए प्रतिरूप सामने आते हैं। भारतीय समाज के मनोगत इतिहास की डटकर पड़ताल बेनेगल ने अपने सिनेमा में की है। अपने फ़िल्म-निर्माण करियर के अंतिम वर्षों में उन्होंने भारत में मुस्लिम आइडेंटिटी को वर्णित करने वाली चार फ़िल्में बनाईं- ‘मम्मो’, ‘सरदारी बेगम’, ‘ज़ुबैदा’, ‘वेलडन अब्बा’।

सिनेमा की जैसी प्रगल्भ भाषा और अभिव्यक्ति की मितव्ययिता के साथ एक अर्थपूर्ण कहानी सुनाने की जो कसावट श्याम बेनेगल के पास है, हमारे यहाँ समान्तर सिनेमा में भी वैसी कम ही के पास मिलती है। यह अकारण नहीं है कि समान्तर सिनेमा में भी सबसे लोकप्रिय फ़िल्मकार वही रहे हैं और उनकी अनेक फ़िल्मों ने अच्छा व्यवसाय भी किया है। दर्शकों की रुचियों को परिष्कृत करते हुए उनका मनोरंजन करना, उन्हें सोचने को विवश करना और एक दृष्टिकोण देना- यह श्याम बेनेगल की ख़ास पहचान रही।

90 साल की भरी-पूरी उम्र में जब सिनेमा का यह शलाका-पुरुष विदा हुआ है तो उनकी फ़िल्में देखकर ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है। लोकप्रिय टीवी चैनलों को ‘भारत एक खोज’ के सभी 52 एपिसोड्स का पुन:प्रसारण करके नेहरूवादी इतिहास-दृष्टि के सिनेमाई-पाठ का आस्वाद दर्शकों तक पहुँचाना चाहिए। और क्या ही अच्छा हो अगर बड़े परदे पर श्याम बेनेगल की चुनी हुई फ़िल्मों का एक रेट्रोस्पेक्टिव दिखाया जाए, जैसे कि इधर राज कपूर का दिखाया गया था।

Courtesy:Sushobhit-(The views expressed solely belong to the writer only)

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