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समय के थपेड़ों ने भारत की ऐतिहासिक थातियों और साहित्यिक धरोहरों का बहुत नुकसान किया है

-राजकमल गोस्वामी की कलम से-

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Positive India:Rajkamal Goswami:
समय के थपेड़ों ने भारत की ऐतिहासिक थातियों और साहित्यिक धरोहरों का बहुत नुकसान किया है ।
अशोक के स्तंभों को फिरोज़ शाह तुगलक के युग में पहचाना नहीं जा सका , उस पर लिखे अभिलेखों को पढ़ने वाले विलुप्त हो गये लेकिन उनकी भव्यता ने फिरोज़ को इतना प्रभावित किया कि वह सैकड़ों हाथियों की सहायता से अंबाला और मेरठ के स्तंभों को खींच लाया जो आज दिल्ली में फिरोजशाह कोटला और मेटकाफ हाउस के पास स्थापित हैं । मगर उस काल में इन स्तंभों को भीम की लाठियाँ समझा जाता था । ये सारे स्तंभ चुनार के पत्थर को काट कर बनाये गये थे और वहीं से सारे भारत में पहुँचाये गये ।

१९१५ में दक्षिण के रायचूर में मस्की नामक स्थान पर अशोक का एक शिलालेख मिला जिसमे पहली बार देवानामप्रिय प्रियदर्शी अशोक लिखा पाया गया तो एक बड़ी समस्या सुलझ गई और देश के कोने कोने के स्तंभ और शिलालेखों में वर्णित देवानामप्रिय प्रियदर्शी को सम्राट अशोक के रूप में पहचाना गया और भारत का इतिहास बदल गया ।

महाकवि कालिदास ने अपने नाटक मालविकाग्निमित्रम् में सूत्रधार के द्वारा महाकवि भास की प्रशंसा में कुछ संवाद कहलवायें हैं , महाकवि बाण ने भी भास को महान नाटककार माना है । भास का उल्लेख संस्कृत के अनेक आलोचकों के ग्रंथों में भी पाया गया । अभिनवगुप्त भी भास की प्रशंसा करते हैं किंतु भास का कोई भी ग्रंथ भारत में कहीं नहीं मिला। यवन आक्रमणों का सर्वाधिक दुष्प्रभाव भारतीय वाङ्गमय पर पड़ा । संस्कृत का विशाल साहित्य नष्ट हो गया ।
वर्ष १९१६ में मालाबार में गणपति शास्त्री ने एक साथ तेरह नाटकों की पांडुलिपि खोज निकाली जो दक्षिण भारतीय ग्रंथलिपि में लिपिबद्ध थे । विद्वानों ने अनेक अंतर्निहित साक्ष्यों के आधार पर नाटककार की पहचान भास के रूप में की । इस प्रकार महाकवि कालिदास , बाणभट्ट और अभिनवगुप्त जैसे मनीषियों द्वारा प्रशंसित और सम्मानित महाकवि भास का पुनर्जन्म हुआ । भास के सभी नाटक संस्कृत साहित्य की निधि माने जाते हैं । इन नाटकों के कथानक रामायण , महाभारत तथा गुणाढ्य की वृहत्कथा से लिये गये और सामूहिक रूप से इन्हें भास का नाटक चक्र कहा जाता है ।
काव्यों में नाटक को सर्वश्रेष्छ माना जाता है । आधुनिक टीवी सीरियलों के विकास में नाटकों का बड़ा योगदान है !
साहित्यानुरागियों को स्वप्नवासवदत्ता ,उरुभंग और प्रतिमा नाटककम् अवश्य पढ़ने चाहिये । प्रतिमा नाटकम् का तीसरा अंक भरत के अपनी ननिहाल से अयोध्या लौटते समय अयोध्या से बाहर स्थित प्रतिमामंडपम् के दृश्य से प्रारंभ होता है । प्रतिमामंडपम् में इक्ष्वाकु कुल के भूतपूर्व राजाओं की प्रतिमायें लगी हैं जिसमें राजा दिलीप , रघु , अज आदि राजाओं के साथ राजा दशरथ की प्रतिमा देख कर भरत भाव विह्वल हो जाते हैं क्योंकि तब तक उन्हें दशरथ की मृत्यु का समाचार नहीं मिला होता है । करुण और आश्चर्य रसों ने मिल कर इस दृश्य को बहुत सजीव बना दिया है । इस अंक की कल्पना रामायण के मूल कथानक से भिन्न है और इसी कारण इसका नाम प्रतिमा नाटकम् रखा गया है ।

भरत किसी के भी कहने से राजपाट नहीं स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं । वह तो ऐसी अयोध्या को अयोध्या मानने को तैयार नहीं है जहाँ राघव नहीं हैं और अयोध्या को छोड़ कर चित्रकूट चल देते हैं जहाँ से राम वनवास का प्रारंभ करते हैं।

तत्र यास्यामि यत्राऽसौ वर्तते लक्ष्मणप्रिय: ।
नायोध्या तं विनायोध्या सायोध्या यत्र राघव: ॥

वहाँ जा रहा हूँ जहाँ लक्ष्मणप्रिय अर्थात् राम रह रहे हैं , यह अयोध्या उनके विना अयोध्या नहीं है , अयोध्या तो वहीं है जहाँ राघव विराजमान हैं ।

साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार है)

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